Saturday 31 August 2013

ऐतरेयोपनिषद्

जग संरचना विषयक प्रभु के सत संकल्पों का वर्णन है 
प्रत्यक्ष  जगत से  पूर्व  वही परमात्मा का ही चित्रण है।

सृष्टि आदि में परमेश्वर के मन में अनुपम विचार आया 
कर्म - भोग के लिए जीव के विविध लोक- रचना भाया।

जग की रचना भी विचित्र है मोक्ष का कारण मात्र देह है
जो  भी प्रभु को पाना चाहे प्रभु को पाने का यही गेह  है।

प्रविष्ट हुए प्रभु ब्रह्म - रंध्र से है ब्रह्म - रंध्र आनन्द प्रदाता 
प्रभु - प्रतीति इससे होती है विदृति -द्वार आनंद विधाता। 

जन्म - मृत्यु - वर्त्तुल से छूटे प्रयास मनुज को करना है 
महा - यंत्रणा जन्म -मरण है आनंद  हेतु तप करना है । 

जब तक निज को देह मानता उसकी जन्म मृत्यु होती है
"मैं आत्मा हूँ " जिसने  जाना  जीत उसी की  ही होती है

उपास्य - देव  है वह  परमात्मा  वही  ब्रह्म  है वही इन्द्र है 
समस्त  शक्ति  का  श्रोत  वही  है वही सूर्य है वही चन्द्र है। 

जिसने परमेश्वर को जाना  देह- त्याग वह अमर हो गया 
जन्म-मरण झंझट से छूटा  परमात्मा को प्राप्त हो गया।  

शकुन्तला शर्मा , भिलाई  [ छ  ग  ]

Friday 30 August 2013

माण्डूक्योपनिषद्






जगत ऒम का ही स्वरूप है किन्तु  ब्रह्म  सर्वथा पृथक है 
निराकार - साकार भी है वह इन  दोनों से रहित अकथ है। 

जैसे जीवात्मा विषयों का उन्नीस मुख से करती उपभोग 
वैसे ही जन देह की आत्मा है जग -ज्ञाता भोक्ता का योग। 

लक्षण जिसका नहीं है कोई जिसमें ब्रह्म - प्रतीति सार है 
सर्व शांत - शिव अद्वितीय है पूर्ण  ब्रह्म  वह  ही अपार  है।

चेतन ही जिसका मुख  है आनन्द ही जिसका भोजन है 
वह आनंद-मय प्राज्ञ ब्रह्म ही पूर्ण - ब्रह्म संशय मोचन है। 

परब्रह्म  वह  ओंकार  है  'अ' ' उ ' ' म'  अक्षरा -  कार  है  
परमेश्वर के  तीन पाद  हैं  यह  तीन पाद ही ओंकार  है।
 
' अ 'ही ब्रह्म का प्रथम पाद है 'अ 'अक्षर साक्षात् ईश्वर है 
'अ ' और ब्रह्म एक ही तो हैं  परमेश्वर पूजा - पथ पर है। 

'उ' ही ब्रह्म का द्वितीय पाद है प्रभु का हिरण्यगर्भ रूप है
इस रहस्य को जानने वाला ईश्वर का ही द्वितीय रूप है।

'म 'ही ब्रह्म का तृतीय पाद है 'अ उ म' में विलय होता है
इस प्राज्ञ रूप का ज्ञाता ही प्रभु - चरणों में लय होता है। 

शकुन्तला शर्मा , भिलाई  [ छ  ग  ]
 


Thursday 29 August 2013

मुण्डकोपनिषद्


गुरुकुल के शिष्य प्रार्थना करके देवगणों से यह कहते हैं 
"यह जीवन हो यज्ञ परायण प्रभु स्तवन सतत करते हैं।"

शौनक ने जब  जिज्ञासा की अंगिरा ने यह  बात बताई 
"मनुज हेतु  दो विद्यायें हैं परा- अपरा महिमा समझाई।

चतुर्वेद  है अपरा - विद्या जहाँ यज्ञ - फलों का वर्णन  है
वेदपाठ की विधि शिक्षा है कल्प में यज्ञ याग जीवन है। 

वैयाकरण है शब्द-साधना निरुक्त कहलाता शब्द-कोष 
ग्रह - नक्षत्र  युक्त विद्या है ज्योतिष का है  यह उदघोष।

चार वेद और  छहों शास्त्र  ही कहलाते हैं अपरा - विद्या
परब्रह्म  का तत्त्व - ज्ञान  ही  कहलाती  है  परा - विद्या। 

सूक्ष्म सर्व - व्यापी है वह तो परब्रह्म जिसको कहते हैं
सब प्राणी के आश्रय हैं वे ज्ञानी जन अनुभव करते हैं।

परब्रह्म प्रभु निज इच्छा से स्वयं ही सृष्टि  बीज बोते हैं 
अकर्ता है वह ईश्वर फिर भी कर्मों में लिप्त नहीं होते हैं। 

संकल्प - रूप तप प्रभु  करते  हैं धरते हैं ब्रह्मा का बल 
दुनियाँ रचकर वे  देते हैं कर्म और सुख दुःख का फल। 

शौनक ने कहा अंगिरा ऋषि से  ईश्वर सबको भाता है 
जिसे जान लेने पर ऋषिवर सम्पूर्ण ज्ञान हो जाता है। 

वेदों  के  अनुरूप  जियें  हम  सार्वभौम  है सत्य  यही 
आलस्य प्रमाद न हो जीवन में धर्म मार्ग में चले सही।

यज्ञ हमें प्रतिदिन करना है मानवता का हो यह ध्येय
जलती आग में ही आहुति दें याद रहे नित श्रेय - प्रेय। 

जो अपना कल्याण चाहते गुरु की शरण में वे जाते हैं 
गुह्य वेद को वही समझते परम पद को वह ही पाते हैं। "

द्वितीय मुण्डक

सर्व- व्याप्त है वह परमात्मा निराकार है वह परमेश्वर 
बिना प्राण इन्द्रिय व मन के सर्व शक्तिमान हैं प्रभुवर। 

जग विराट रूप है प्रभु का अग्नि रूप माथा को  मानो
सूर्य चंद्र  दो नयन हैं उनके कर्ण हैं दशों दिशायें जानो।

चतुर्वेद  उनकी  वाणी  है  परमात्मा  का प्राण पवन है 
जगत समूचा ह्रदय है उनका धरा ही मानो प्रभुचरण है। 

प्रभु की ही अचिन्त्य शक्ति से अग्नि तत्त्व उत्पन्न हुआ
है सूर्य रूप में वही प्रज्ज्वलित चंद्र अग्नि से प्रगट हुआ। 

उत्पन्न हुए फिर मेघ चंद्र से मेघों से वनस्पतियाँ आई 
वनस्पति-खाने से वीर्य बना नर ने वीर्य से आकृति पाई। 

ऋग्वेद - ऋचाएँ  साममंत्र भी प्रभु से ही उत्पन्न हुए हैं 
यजुर्वेद और सब श्रुतियाँ यज्ञादि - कर्म सम्पन्न हुए हैं । 

सभी यज्ञ क्रतु दान - दक्षिणा प्रभु से ही उत्पन्न हुई हैं 
संवत्सर रूप काल अधिकारी भक्तजोड़ियाँ प्रगट हुई हैं । 

परमात्मा के फलस्वरूप ही सभी लोक उत्पन्न हुए हैं 
सूर्य - चंद्र आलोक लुटाते परमेश्वर से ही  प्रगट हुए हैं । 

विविध मनुज और पशु-पक्षी भी वसु रुद्रादि देवतागण 
सब प्राणी उत्पन्न हुए जो यह है उसी ब्रह्म का चिन्तन। 

प्राण - अपान सभी जीवन के विविध अन्न व फलाहार 
ब्रह्मचर्य तप सत श्रध्दा भी प्रभु की देन है सब व्यवहार।

सब  प्राणी  में  वह  रहता  है  सागर- शैल सभी नदियाँ
सब उससे ही उत्पन्न हुई हैं रस से भरी सभी औषधियाँ।

तप  भी वही  है  कर्म  वही  है वह  हृदय गुहा में रहता है 
जो नर प्रभु को पा लेता है भ्रम - संशय में नहीं रहता है। 

परमात्मा को पाना है  यदि  करें प्रणव का  ही चिन्तन 
प्रगाढ़ प्रेम हो उस ईश्वर पर ब्रह्म - प्राप्ति पर करें मनन। 

आलोक पुञ्ज प्रभु के समीप आलोक नहीं पाता है सूर्य 
उसअसीम आलोक के सम्मुख निष्प्रभ हो जाता है सूर्य।

जो भी तत्त्व प्रकाश - शील है उसी ब्रह्म का  है वह अंश 
पुरुषोत्तम के ही प्रकाश से आलोकित  है आलोक- वंश । 

बाहर - भीतर ऊपर- नीचे सर्व- व्याप्त है वह परमेश्वर 
प्रत्यक्ष  दिखाई  वे  देते  हैं जगत - रूप  में  वे  प्रभुवर। 

तृतीय मुण्डक

मानव पीपल- वृक्ष सदृश है वृक्ष-हृदय में घर दिखता है 
जहाँ ब्रह्म जीव दो खग रहते हैं जीव कर्म-फल चखता है।

जीवस्वतः में ही निमग्न हो भाँति-भाँति के दुख़ पाता है 
जब ईश्वर को वह पा लेता है शोक रहित वह हो जाता है । 

सबके प्राणों का प्राण वही है सब जीवों में उनका बल है 
जो भी जग में घटित हो रहा वह भी परमात्मा का बल है। 

 वह  सब प्राणी में उद्भासित है वह  ही तो  है सबका नूर 
भक्त यही अनुभव  करता है  वह अहंकार  से रहता  दूर। 

परमेश्वर को वह पाता  है जो प्रभु - उपासना  करता  है 
भोगासक्त नहीं पाता है वह प्रभु से प्यार नहीं करता  है। 

जीत सत्य की ही होती है मानव निज मन में धीर-धरे 
जो नर प्रभु को पाना चाहे वह सत्य आचरण सदा करे। 

अचिंत्य सूक्ष्म वह परमेश्वर साधक के मन में रहता है 
हृदय देश में निज स्वरूप को स्वयं प्रकाशित करता है। 

कण- कण में वह विद्यमान है बहुत दूर है बहुत निकट 
बाहर न जाओ उसे खोजने भीतर ही है अत्यंत निकट। 

ज्ञानी पुरुष समझ जाता है जग का है कोई परमाधार 
वही विवेकी  है जो त्याग दे सार  वस्तु के हेतु  असार। 

परमात्मा उनको नहीं मिलते जो केवल श्रुति गाते हैं 
अभिमानी उन्हें नहीं पाते विनयशील उनको पाते  हैं। 

जैसे सरिता नाम त्यागकर सागर में लय हो जाती है
बस वैसे ही  पावन आत्मा  ब्रह्म - लीन  हो जाती  है  । 

परब्रह्म  को जो पाता  है स्वतः ब्रह्म  वह  हो  जाता  है 
जन्म - मृत्यु से तर जाता है अजर अमर हो जाता है। 

शकुन्तला शर्मा , भिलाई  [ छ  ग  ]
 

 

  

        


Wednesday 28 August 2013

प्रश्नोपनिषद्


पिप्पलाद की आज्ञा पाकर षड्र- ऋषियों ने श्रध्दा पूर्वक 
संलग्न हो गए तपाचरण में एक वर्ष तक संयम- पूर्वक । 

कत्य - प्रपौत्र कबन्धी ने फिर पिप्पलाद से पूछा प्रश्न
"कैसे  हुई  जगत  की  रचना  यही  है मेरा  पहला प्रश्न ?"

पिप्पलाद बोले - "कात्यायन !  वेदों ने भी यह गाया है
सभी जीव के स्वामी को जग रचने का विचार आया है । 

ईश्वर ने संकल्प तप किया अग्नि-सोम तब प्रगट हुए 
अग्नि-सोम दोनों मिलकर भाँति-भाँति की सृष्टि किए । "

विदर्भ देश के भार्गव ऋषि ने पिप्पलाद से यह पूछा था 
" देवों की संख्या कितनी है श्रेष्ठ कौन है द्वितीय प्रश्न था। "

" पंच इन्द्रियाँ वाक् आदि हैं नेत्र श्रवणादि ज्ञान इंद्रिय हैं
मनादि चार अंत:-करण हैं पञ्च - प्राण ही सर्व - श्रेष्ठ है । 

अग्नि - रूप में  ऊष्मा  देता यही  प्राण  है  यही सूर्य  है 
यही  मेघ है  इन्द्र - वायु है यही देव भू - भूत - पुञ्ज है । 

सत है यही असत भी यही है इससे भी श्रेष्ठ परम है वह 
यही प्राण है यही प्राण है अमृत - स्वरूप ब्रह्म है यह । "

आश्वलायन मुनि ने  पूछा पिप्पलाद ऋषि से छ: प्रश्न 
"किससे पैदा होता  है प्राण यही है उनका पहला प्रश्न । 

स्वत:विभाजित होकर कैसे मनुज देह में वह रहता है 
जग को कैसे धारण करता किस प्रकार तन तजता है । "

" प्रभु से  ही उपजा है प्राण वह भी आश्रित  है उन पर 
वैसे ही जैसे नर की छाया आश्रित होती है खुद नर पर । 

मरणासन्न मनुज के मन में होता है जैसा भी संकल्प 
वैसा ही तन वह पाता है मन वांछित मिलता विकल्प ।"

"गहरी नींद में मानव तन में कौन देवता-गण सोते हैं 
स्वप्न देखता कौन देव फिर जागृत कौन-देव रहते हैं ?"

पिप्पलाद ने कहा गार्ग्य से-" इंद्रिय कर्म मुक्त होती हैं 
गाढ़ी नींद में सभी इंद्रियाँ मन में ही विलीन होती हैं । 

श्वासोच्छ्वास ही आहुतियाँ हैं समान-वायु रस लाता है
उदानवायु ही अभीष्ट फल मन हृदयगुहा में ले जाता है । 

नींद में नर तन रूप नगर में जागृत रहते हैं पंच -प्राण 
अपानवायु ही गार्हपत्य है दक्षिणाग्नि है वायु व्यान ।"

सत्यकाम के प्रश्नों का फिर समाधान ऋषि करते  हैं 
ॐ की उपासना विषयक उत्सुकता  पर वे कहते  हैं ।

"सत्यकाम जो ॐ शब्द है  परमात्मा तक जाता है 
परब्रह्म यह अपरब्रह्म यह ॐ साधक प्रभु को पाता है । 

ऋग्वेद स्वरूपा प्रथम भाग है इससे नरतन पाता है 
यजुर्वेद फिर ॐ साधक को चंद्र -लोक पहुँचाता है । 

सामवेद के मंत्र  मनुज को ब्रह्मलोक पहुँचा देते  हैं  
ओम  उपासना  द्वारा साधक परब्रह्म को पा लेते  हैं । "

पिप्पलाद कह रहे "सुकेशा! ब्रह्मांड सदृश ही है नरतन 
मनुजदेह में वे स्थित हैं यह है सोलह कला का नर्तन ।

भिन्न नाम वाली सरितायें जाके सागर में समाती हैं
नाम नहीं बच पाता उनका वे सब सागर कहलाती हैं । 

इसी तरह से षोडश कला  भी प्रभु में होती है तदाकार 
अस्तित्व के विलय होने पर हरि से होता है एकाकार । 

इस अद्भुत पथ के ज्ञाता ही परमेश्वर को जब पाते  हैं 
अमृत स्वरूप को पाकर फिर अजर अमर हो जाते हैं।" 

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ  ग  ]   
  

  

 



  

Tuesday 27 August 2013

कठोपनिषद्


मायातीत  ज्ञान  के  सुंदर -  सम्यक  उत्स  उपनिषद हैं 
वेदान्त कहाते यही उपनिषद यही वेदान्त अतिविशद  हैं ।

पृथ्वी  पर  जीवन - रहस्य के  शास्त्र  अनूठे  हैं  उपनिषद
गुह्य  गहनतम गरिमामंडित कठ  है सबसे सार  उपनिषद ।

जीवन जागृति जो जन चाहे  मौत का अनुभव करना होगा 
जीने की कला सीखनी हो तो मरने का उपक्रम करना होगा

जीवन का  ज्ञान उन्हें होता है नहीं है जिनको  मौत का भय
भयभीत  मृत्यु से जो होता है  भ्रम का जीवन  है  अतिशय । 

मृत्यु गुह्यतम  गहन  केन्द्र है जीवन का जीने  की कला का
इससे  परिचित वे ही  होते  हैं आँजे  हैं जो चैतन्य - शलाका । 

मौत  सभी  को आती  है  पर  कौन  जान  पाता  जीवन  को
बार - बार मरकर भी  समझ  न पाए  इस जीवन उपवन को । 

हर  मानव  के  जन्म  की  लगभग  एक  सी यही कहानी है
यही  जन्म अन्तिम  हो  जाए  अमरता  कठ  की  बानी  है । 

मौत  से  हम  डरते   हैं   क्योंकि  नहीं  चाहते  हम  मरना
किन्तु  मौत  निश्चित  है  इससे जन्म - मृत्यु का वृत्त बना ।

इस  खींचातानी  में  मानव  कष्ट  अनगिनत  पा  जाता  है
रस्साकसी  के  खेल  में जैसे  बाहु - बली  ही  जय पाता  है

परा - प्रकृति पल-पल पथ  सेती  दुःख  से  हमें  बचाती  है
असह्य  वेदना  नर  को  हो  यदि  संज्ञा -  शून्य बनाती  है ।

भारी  दुःख  का आहट  पाकर  मनुज  मूर्छित  हो जाता  है
मौत  के आने  के  पहले  ही  चेतना -  शून्य  हो  जाता  है । 

हम मूर्छा  में ही  मर  जाते हैं हमें  याद नहीं रहता कुछ भी
मर  पाते यदि  चेतनता में रहता सब  याद  हमें  अब  भी

जब  हम  रात्रि  नींद  में  सोते  हो  चैतन्य  कहाँ  सो  पाते
नींद  हमारी  जब खुलती है  पुनः - पुनः हम सब पछताते ।

नींद  मौत  जीवन  है  जागरण  पुनरावृत्ति  सदा  होती  है
एक  छोर पर  मूर्छा  है यदि  द्वितीय छोर पर भी होती  है

पूर्वजन्म में कहाँ  थे  क्या थे हमें कहाँ  स्मरण है  इसका
कारण मूर्छा में मौत  हुई थी जन्म दूसरा छोर  है उसका

धर्म  सीख  देता  है  हमको  यदि  चेतनता  में  मर पाये
मृत्यु पूर्व यदि रहे चेत में  मृत्यु स्वत: निःशेष हो जाये । 

मैं   मरता  हूँ  कहाँ  देह  है  जो  मुझसे  छूटी  जाती  है  
तन   है  मेरा  गेह  देह  है  माटी -  माटी  बन  जाती  है ।

वस्त्र  जीर्ण  जब  हो  जाता  है  नया  वस्त्र  पाता  है देह
देह  जीर्ण  जब  हो जाता  है आत्मा पाती  है नव - गेह ।

नहीं  गरीयस  देह  वस्त्र  से  मरता   है  बस  देह  हमारा
यही सत्य यदि जान लें हम तो होगा नहीं जन्म दोबारा ।

चेतनता  में  जो जन्मा  है होती  नहीं मृत्यु फिर उसकी
कैवल्य धाम वह पा लेता है  मृत्यु  छूट जाती है उसकी ।

मौत को जिसने जान लिया है कभी नहीं वह देह से जुड़ता 
देह  से तब हम जुड़ जाते हैं मृत्यु - पूर्व जब होती जड़ता ।

देह  से जुड़ना  बेहोशी  है  मानव - मूर्छा का सेतु  वही  है
मैं और  देह  पृथक  हो  जाये चेतनता  का  हेतु  यही  है ।

देह  जनमता देह  ही  मरता सदा पृथक  है वह अशरीरी
नहीं  जनमती और  न मरती  देही  सतत सदा से  पूरी ।

आत्मा के सान्निध्य  से सदा  देह सत्य सम लगता  है 
आत्मा से आलोकित होकर  शव भी जीवित लगता  है ।

देह  को जीवन  जानने  वाले सत्य - विमुख हो जाते हैं
मृत्यु - मूल  में जो जाते हैं  परम - सत्य वे  ही पाते हैं ।

कठ की व्याख्या बहुत कठिन है  सत्य संग ले जाती है
पर कठ को कविता में कहना  जिजीविषा  दे जाती  है

कठ है आनंद सरिता अनुपम आकण्ठ डूबता है जीवन
जीवन को परिभाषित करती आयाम नया पाता है मन । 

मनुज लक्ष्य को भूल गया है पथ से भटक गया है वह 
कठ  करती  संकेत हमें  है पकड़ाती  पथ  ध्येय है यह ।

कवि ने कठ की व्याख्या की है शैली है अत्यंत  सरल
पर  है कठ  अति गूढ़  अनूठी जी पाता है कोई  विरल ।

कठोपनिषद है एक कहानी अद्भुत है अतिशय रुचिकर 
जीवन के रहस्य को जिसमें समझाया है कथा कहकर ।

 
शकुन्तला शर्मा , भिलाई  [ छ ग  ]


Monday 26 August 2013

केनोपनिषद्

निज  दायित्व  निभाते  कैसे  अंत:करण  प्राण और बानी
  कौन  उन्हें  करता  प्रवृत्त  है यह रहस्य  समझाओ ज्ञानी ।

सम्पूर्ण जगत का परम हेतु है उससे सब उत्पन्न हुए हैं
               उसी  परम  से  बल  पाकर वे कर्म - क्षेत्र  में सफल रहे  हैं ।

ईश्वर  ही  सबका  प्रेरक  है  जग  से जब  प्रयाण  करते  हैं
होते जीवन - मुक्त भक्त - जन देह - मुक्त  हो तन तजते हैं ।

सत- चित- आनंद परब्रह्म तक इन्द्रिय नहीं पहुंच पाती है
               चेतन- शक्ति ब्रह्म से इन्द्रिय प्रेरित होकर बढ़ती जाती  है ।

कौन  कहे  ऐसी  स्थिति  में  वह  परब्रह्म  ऐसा  होता   है
वाणी  है असमर्थ  इसी  से  संकेत  मात्र आश्रय  होता  है ।

ब्रह्म -  तत्त्व  वह वाक् -अतीत है परिभाषा है उसकी  मौन
                      जो वाणी का प्रेरक - बल  है सर्व - नियन्ता  है  वह कौन ?

                    मन से मति से वह अतीत है मन का मति का है जो ज्ञाता
मन में मनन  बुध्दि में निश्चय की समर्थता का वह दाता । 

चक्षु   से  परे  परब्रह्म  है  शक्ति  उसी  की  नयन - दृष्टि  भी
                     प्रेरक  वही है दृश्य- जगत का अंश - मात्र है देह - शक्ति भी ।


श्रवण  से  पृथक  परब्रह्म  है प्रेरक ज्ञाता है शक्ति - प्रदायक
ग्रहण करते हैं कर्ण  शब्द  को समर्थ सर्व है ब्रह्म विधायक  ।

               प्राण  नहीं  है  परब्रह्म  वह  उससे   भी   तो  है  वह  अतीत
               प्राण - विधाता  जिससे  वह  है  उसी ब्रह्म का आंशिक गीत । 

               अहंकार -  मुक्त  वे  हो  जाते  हैं  जो  ईश्वर  को पहचानते हैं
परमहंस  वे  यही  समझते  भगवान  स्वयं  को  जानते   हैं 

 ब्रह्म - ज्ञान  की  ज्ञान -  शक्ति  भी  देता  है  वह  अन्तर्यामी 
                  मंत्रों  में  भी  अद्भुत  बल  है  ब्रह्म - सुधा  पाते  सत - गामी ।


                   सार्थक हो यह मानव -जीवन परम प्राप्ति में जन तत्पर हो 
जन्म - मृत्यु से तर जायें हम प्रभु दर्शन हमको द्रुततर हो । 

अनल - अनिल - इंद्र तीनों  ही  सब  देवों  में  परम - श्रेष्ठ हैं
                    स्पर्श   ब्रह्म  का  उन्हें  प्राप्त  है  देवताओं  में  भाग्यवान  हैं ।


                    अग्नि अनिल ने दिव्य यक्ष का पाया था पहले  दर्शन लाभ
 प्रभु  को पहचाना  था इंद्र ने पहले पाया सान्निध्य - लाभ ।

उत्सुकता उठती है साधक में जिज्ञासा  मन में नहीं समाती
               क्षण भर अपना रूप दिखाकर परब्रह्म छवि छिप छिप जाती ।


                आराध्य - देव के पास  पहुँच  कर साधक प्रेम मग्न होता है
ईष्ट  -  प्राप्ति  की  इच्छा  होती  प्रेम  में  वह  आपा  खोता है ।


आनंद - रूप वह  ब्रह्म  सभी  का  प्रिय  है  हम जानें न जानें
                 हम सब सुख की खोज में ही हैं अति आत्मीय ब्रह्म को मानें ।


                 जान नहीं सकते पढ़ - सुन कर वह परमेश्वर है अति पावन
ब्रह्म - ज्ञान प्रासाद नींव है तप - दम - कर्म आदि हैं साधन ।

जिसे  रहस्य  ब्रह्म - विद्या  का तद् - अनुसार  ज्ञात होता है
                     शुभाशुभ कर्मों को अशेष कर परमधाम  में स्थित  होता है ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग  ]

Sunday 25 August 2013

ईशावास्योपनिषद्


सत्  चित्  आनंद  ब्रह्म  पूर्ण  है  परब्रह्म से जगत  पूर्ण है
पूर्ण  ब्रह्म  से  पूर्ण   निकालें  तब  भी रहता  शेष  पूर्ण  है ।

सर्वत्र समाया है परमात्मा सम्पूर्ण जगत में वही व्याप्त है
ब्रह्म- अंश से रहित कुछ  नहीं  ईश  जगत में परिव्याप्त है ।

आसक्ति त्याग मन को समझायें कर्मवीर मुझको बनना है
ब्रह्म - रूप  ईश्वर  निमित्त  ही  श्रेष्ठ  कर्म  हमको  करना  है ।

भोग  हमारा  ध्येय  नहीं  है  माया - ममता  में  न बँधना
जो  भी साधन  दिया है प्रभु ने व्यय पूजा- निमित्त करना ।

कर्म - प्रधान  जगत की रचना  निरभिमान  हो  कर्म  करें
राग  -  द्वेष   से  तभी  बचेंगे   हर्ष  - शोक  में   धीर -  धरें ।

जन्म  भोग  के लिए  नहीं है तप है जीवन - यापन करना
कर्म  न  डालेंगे  बंधन  में  कर्म  करो  पर  लिप्त  न रहना ।

यह  मानव  तन  दुर्लभ  देकर  हमसे  कहते  हैं  परमेश्वर
जन्म- मृत्यु से तर जा मानव  भोग - राग में नष्ट न कर ।

परब्रह्म  है  अचल  एक  है  मन  से अधिक  वेग  है उसका
आदि - देव वह ज्ञान - रूप है सूर्य - समीर अंश है जिसका ।

सर्वत्र  व्याप्त  है  वह  परमात्मा  प्रेमी -जन  उनको पाते हैं
वे  हैं  दूर  बहुत  फिर  भी  वे  आर्तनाद  सुन  कर  आते हैं ।

सत्य- रूप  सर्वेश्वर  श्री- मुख सूरज  आभा से ढँका हुआ है
वह  ही  तो  दर्शन  पाएगा  जो  सदाचार  में  लगा हुआ है ।

हे यम भक्त जनों के पोषक मैं वही हूँ यह चिन्तन करता हूँ
परब्रह्म जो दिव्य रूप है " सोहSम् " यह अनुभव करता हूँ ।

हे  अग्ने! अधिष्ठातृ- देवता  शुभ- राह  चलें  दो  आशीर्वाद
पथ  के  कण्टक  नष्ट  करें  प्रभु  सत्कर्म हेतु हो शंखनाद ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग  ]

Wednesday 21 August 2013

भोजली


छत्तीसगढ़ की संस्कृति एवं परम्पराओं के मूल में अध्यात्म एवं विज्ञान है । यहाँ लोकाचार भी अध्यात्म से पोषित होता है और विज्ञान की कसौटी पर खरा उतरने के बाद ही परम्पराओं की निसेनी तक पहुँचता है । यहाँ का लोक विज्ञान समृध्द है । " चरैवेति चरैवेति " की शैली में चारों पुरुषार्थ [धर्म अर्थ काम मोक्ष ] को प्राप्त करना हमारे जीवन का एकमात्र उद्देश्य होता है । हमारा छत्तीसगढ़ " धान का बौटका "  है । यहाँ धान की शताधिक किस्में बोई जाती हैं । धान छत्तीसगढ़ की आत्मा है ।

"भोजली " का पर्व धान- बोनी का पर्व है । खेत में धान बोने से पहले यहाँ का किसान छोटी छोटी टोकनी में विभिन्न किस्म के धान को अलग अलग टोकनी में बोता है , उसकी देखभाल करता है ।  अँकुर निकलना पौधे की स्थिति, उसकी बाढ़ का बड़ी चतुराई से निगरानी करता है और फिर यह अनुमान लगाने में आसानी हो जाती है कि किस धान की फसल अच्छी होगी । किसान अपने हिसाब से धान की उसी किस्म को बोता है जिसकी पैदावार भोजली के रूप में अच्छी हुई है । अध्यात्म की भाषा में यदि हम कहें तो किसान अन्नपूर्णा मातेश्वरी का आवाहन करता  है सेवा सुश्रुषा करता है और संतोष का अनुभव करता है । यह पूरी प्रक्रिया यज्ञ -विधान जैसी है उतना ही सत्य पावन और भाव-पूर्ण ।

" अक्षैर् मा दीव्य: कृषिमित् कृषस्व वित्ते रमस्व बहु मन्यमान : ।"  ऋग्वेद [१० /४ /७ ] ऋषि कहते हैं -अक्षों [जुआ ] से मत खेल खेती कर । उससे जो धन मिलेगा यद्यपि वह कम होगा परन्तु तू उसी में खुश रहना सीख । मेहनत कर । मेहनत से जो धन मिलता है उसी से संतुष्टि मिलती है ।

भादो कृष्ण पक्ष प्रतिपदा को भोजली का विसर्जन किया जाता है । भोजली सेराने की यह प्रक्रिया बहुत ही सौहार्द्र पूर्ण वातावरण में अत्यन्त भाव पूर्ण ढंग से सम्पन्न होती है । मातायें-बहनें और बेटियाँ भोजली को अपने सिर पर  रखकर विसर्जन के लिए धारण करती हैं और भजन मण्डली के साथ, बाजे-गाजे के साथ भाव पूर्ण स्वर में भोजली गीत गाती हुई तालाब की ओर प्रस्थान करती हैं ।
" देवी गँगा देवी गँगा लहर तुरंगा हो लहर तुरंगा हमरो देवी भोजली के भींजै आठो अँगा अहो देवी गँगा ।
कौशल्या माँ के मइके म भोजली सेराबो हो भोजली सेराबो सिया राम के सँगे सँग तोला परघाबो अहो देवी गँगा ।  "  भोजली सेराने के बाद एक दूसरे को भोजली देकर गियाँ बदते हैं जिसे जीवन भर निभाया जाता है । इस भोजली पर्व का महत्व नवरात्रि जैसा ही है । मेरी ओर से आप सभी को भोजली तिहार की बधाई ।

Sunday 18 August 2013

संस्कृत दिवस


"पुरा कवीनां गणना प्रसंगे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदास; ।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावात अनामिका सार्थवती बभूव ।। " 

सावन शुक्ल-पक्ष को हम संस्कृत- दिवस पखवाड़ा के रूप में मनाते हैं । सावन के आते ही कालिदास मुझे कुरेदना शुरू कर देते हैं । कहते हैं मेरे बारे में भी तो कुछ लिखो । मेरे मन प्राण को बँधुआ मजदूर बना लेते हैं और मुझसे लिखवाते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि कालिदास के साथ मेरा पूर्व जन्म का कोई सम्बन्ध है । बचपन से ही मुझे उनकी रचनाओं से लगाव है । मेरा नाम भी ऐसा है जो मुझे कालिदास से जोड़ता है । बचपन का एक प्रसंग मुझे याद है। सन १९६३ की घटना है । मैं बिलासपुर में महारानी लक्ष्मीबाई स्कूल में नवमी कक्षा में पढ़ रही थी । उस समय बिलासपुर जिले में "कालिदास समारोह " का आयोजन किया गया था । बिलासपुर में सभी शालाओं के बीच में कालिदास के नाटकों की प्रतियोगिता थी । यह प्रतियोगिता नार्मल स्कूल में आयोजित की गई थी । हमारी शाला ने भी इसमें भाग लिया था । मैं राजा विक्रमादित्य बनी थी और मुझे सर्वश्रेष्ठ अभिनय हेतु पुरस्कृत किया गया था । तब से लेकर आज तक कालिदास मेरे मन मस्तिष्क में सर्वदा विराजमान रहते हैं ।

सन १९६५ की बात  है । मैं बी एस पी क उ मा शा से ५ भिलाई में कक्षा ११ वीं में पढ़ रही थी । जब शाला में वार्षिक उत्सव सम्पन्न हुआ, तब हमारे संस्कृत के आचार्य श्रीयुत प्रह्लाद चन्द्र शर्मा ने एक कार्यक्रम तैयार करवाया था, जिसका नाम था कवि-दरबार । उस कार्यक्रम में शर्मा सर ने मुझे कालिदास बनाया था । मैंने "अभिज्ञान शाकुन्तलम् " के श्लोक गाए थे । अल्पना सेनगुप्ता तुलसीदास बनी थी, पूर्णिमा रवानी सूरदास बनी थी और पूनम निराला बनी थी । यह कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हुआ था और समाचार पत्रों में इसे अच्छा विस्तार भी मिला था ।

कालिदास जन्म शताब्दी की पूर्व संध्या पर १८ /११ /१९९९ में संस्कृत शिक्षण दिशा निर्देश कार्यशाला का आयोजन किया गया था । यह आयोजन बी एस पी उ क शा से ५ में सम्पन्न हुआ था । मैं उसी शाला में संस्कृत व्याख्याता के पद पर कार्य रत थी । उस कार्यक्रम में मैंने पहली बार संस्कृत भाषा में मंच संचालन किया था । आचार्य महेश चंद्र शर्मा ने मुझे सहयोग किया था । मैंने 'अभिज्ञान शाकुन्तलम् '  से शकुन्तला के सौन्दर्य वर्णन से कार्यक्रम की शुरुआत की थी ।

"सरसिजमनुविध्दम् शैवलेनापिरम्यम् मलिनमपिहिमान्शोर्लक्ष्मलक्षी तनोति ।
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी किमिव हि मधुराणाम् मण्डनंनाकृतीनाम् ।। "
काई से घिरे रहने पर भी कमल सुन्दर दिखता है । चन्द्रमा मलिन होता हुआ भी सुन्दर दिखाई देता है । उसी तरह यह तरुणी वल्कल वस्त्र में भी सुन्दर दिखाई दे रही है क्योकि सौन्दर्य को आभूषण की आवश्यकता नहीं होती ।

मुझे अभूतपूर्व अनुभव हो रहा था । मैंने यह अनुभव किया कि यहाँ 'संस्कृति निलय ' में स्वयं कालिदास, हम सब संस्कृत परिवार के साथ ही उपस्थित हैं । जो आगन्तुक अतिथि विराजमान थे उन में भी इतना उत्साह इतनी आत्मीयता दृष्टिगोचर हो रही थी कि सब मंत्र मुग्ध होकर आनंदातिरेक में आकण्ठ डूबे हुए थे । अद्भुत दृश्य था । अपने जीवन काल में मैंने संस्कृत की एक ही कार्य शाला देखी है । पता नहीं आज भाषा की उपेक्षा क्यों हो रही है ? भाषा माँ है और बिना माँ के बच्चे का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता और फिर संस्कृत भाषा तो सभी भाषाओं की जननी है ।

कालिदास उद्भट विद्वान् थे पर उन्हें आसानी से प्रतिष्ठा नहीं मिली । पुराने प्रतिष्ठित साहित्यकारों के बीच में उनके आलोचक बहुत थे । लोग उन्हें बहुत गालियाँ देते थे और वे इन गालियों को बड़े प्यार से सुनते थे । वे कहा करते थे -" ददतु -ददतु गालीं "  अर्थात् तुम मुझे गाली दो , मुझे बहुत मज़ा आता है और तभी उन्होंने कहा था - "पुराणमित्येव न साधु सर्वम् न चापि काव्यम् नवमित्यवद्यम्  ।
संता:  परिक्ष्यान्य  तरद्भजन्ते   मूढा:  परप्रत्ययनेय   बुध्दि : ।। "
यह आवश्यक नहीं कि परम्परायें सदैव सही हों और यह भी सत्य नहीं है नवीनता हमेशा दूषित हो । संत जन विवेक मार्ग से सत्य का परीक्षण करते हैं पर न्यून बुध्दि दूसरों की बातों पर ही विश्वास करते हैं ।      
 

कविकुल गुरु कालिदास अद्वितीय हैं । वे भारतीय संस्कृति के उन्नायक और हम भारतीयों के स्तुत्य हैं । मैंने 'अभिज्ञान शाकुन्तलम ' [ जो कालिदास का सर्वाधिक लोकप्रिय नाटक है ] का भावानुवाद किया और ' शाकुन्तल' [खण्ड काव्य ] की रचना की । इसके बाद मेरा आत्मविश्वास बढ़ता गया और मेरे मन ने मुझसे कहा कि " शकुन ! तुम कालिदास के महाकाव्यों को भी छू सकती हो । डरो मत ।"   प्रेम, भय और साहस तीनों संक्रामक हैं । मैंने उसी दिन "रघुवंश " महाकाव्य का भावानुवाद आरंभ कर दिया । ले देकर ' रघुवंश ' महाकाव्य मैंने लिख तो लिया पर इसे लिखकर मैं संतुष्ट नहीं हूँ । मुझे लगता है कि मैं इसे और अच्छा लिख सकती थी वैसे यह अफ़सोस मुझे मेरी सभी किताबों के लिए होता है । कालिदास के  "कुमारसम्भवम् " महाकाव्य के एक एक श्लोक का छत्तीसगढी में अनुवाद करके मैंने छत्तीसगढी महाकाव्य की रचना तो की पर फिर भी मन का हाहाकार कम नहीं हुआ । सोचती हूँ उस हिमालय जैसे कालिदास को मैं क्या लिख कर श्रध्दाञ्जलि दूँ ?

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]  

Wednesday 14 August 2013

मॉंगे हिन्दुस्तान हिसाब


मैं दुनियाँ का सिरमौर रहा  भाई चारे की लिखी किताब 
आज  मैं  तुमसे  पूछ  रहा  हूँ  देना  होगा  तुम्हें हिसाब । 

तुमने   अंग्रेजों   के  आगे   कैसे   मुझे  गुलाम  बनाया
क्रांतिवीर  पड़  गए अकेले  तुमने गोरों का पाँव दबाया । 

एक  अकेली  रानी- झाँसी ने अंग्रेजों को ललकार दिया
तुमने   उसे  अकेला  छोड़ा  यह   कैसा  अपकार  किया । 

अब तुमने आज़ादी पा ली किंतु बताओ कहाँ है गरिमा 
पराधीन है आज आदमी कहाँ है हिंदुस्तान की महिमा । 

बेईमानों  ने  जेबें  भर  लीं  कहाँ  छुपाया  लूट का  माल 
नौनिहाल भूखे - नंगे  हैं  आज़ाद  देश  का यह  है  हाल । 

तुम गोरों से कहाँ  अलग  हो  दुर्योधन- दु;शासन सम हो 
खा लेते हो खीर तुम्हीं तुम जनरल डायर से क्या कम हो ।

अकबर हुआ महान यहाँ जब राणा प्रताप फिर गया कहाँ
निज आन मान के खातिर ही खोया था जिसने राज यहाँ ।

पूरब - पश्चिम  दोनों  सीमा  पर मुझे  पड़ोसी  घूर  रहे  हैं
तुम तो कबूतर उड़ा रहे हो वे तोप - तानकर  खड़े  हुए  हैं  ।

आतंकी को क्यों पाल रहे हो क्यों देते नहीं उन्हें छुटकारा
पृथ्वीराज  चौहान  से  सीखो  गलती  करना नहीं दोबारा ।

दादा  - देशों  से क्यों  डरते  हो  ढूँढो  कुछ उनका भी काट
अब  करो स्वदेशी  की  पूजा  भगाओ  तुरत  विदेशी  हाट ।

स्विस- बैंक से पैसा जल्दी लाओ बेईमानों पर करो प्रहार
बेईमान मगर  लाने न  देंगे  इस  पर  जल्दी करो विचार ।

मान - सरोवर चीन में क्यों है कैसे उड़ गया हाथ से तोता
नेता  यदि  जयचंद  न  होते  मान - सरोवर  अपना होता ।

मुझसे   है  अस्तित्व  तुम्हारा  मेरा  गौरव  पुन;  बढ़ाओ
मेरा गुरुत्व  वापस लौटा कर मुझे  पुन; सिरमौर बनाओ ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ  ग  ] 

Wednesday 7 August 2013

तुलसीदास


राम के चरित को मगन  मन गाया जिसने नहीं  कोई  और बड़भागी  तुलसीदास है
जीवन हम  कैसे  जियें उसने बताया  हमें आत्मज्ञान कैसे पायें  विधि उसके पास है ।

देश की  आज़ादी  में तुलसी की बड़ी  भूमिका है पराधीन सपनेहुँ  सुख नाहीं गाया है
आज़ादी का दिया तो जला दिया था तुलसी ने देश स्वाभिमान हमें उसने सिखाया है ।

शैव - वैष्णवों में सदभाव  का उदय  हुआ  एकता  का  पाठ  पूरे  विश्व  को  पढ़ाया है
राम घट -  घट में हैं तुलसी ने समझाया अपरा -  परा  को  संग -  संग उसने गाया है ।

दुनियाँ   है  कर्म  प्रधान  कहा  तुलसी  ने  जैसा  जो  करेगा  वैसा  फल  वह  पायेगा
जिसने  बबूल बोया  कांटे तो चुभेंगे  उसे आम जिसने  बोया  वह मीठा फल खायेगा ।

अहिल्या उध्दार किया राम ने सम्मान दिया नारियों को तिरस्कार कोड़े से बचाया है
 शबरी  के  प्रेम -  भरे  जूठे  बेर  खाए  प्रभु  शबरी - प्रसंग  को  महानदी  ने  गाया  है ।

राजा का धरम क्या प्रजा का  हक़ कितना है राम के चरित ने जगत  को समझाया है
धर्म - अर्थ - काम - मोक्ष  हमारे ही  हाथों में है बार - बार  तुलसी ने यही  दोहराया है ।

पर -  हित पुण्य है यही  कहा  है  तुलसी  ने  दूसरों  को  दुःख  देना  पाप  है बताया है  
श्रुतियों का सार  इसी  सूत्र में समा  गया है सुख का है  श्रोत यही उसने समझाया है  ।

तुलसी चले  गए  हैं  हमें  ऐसा  लगता  है किन्तु  तुलसीदास आज यहाँ  विद्यमान हैं
उनके  पदचिह्न   हमें रास्ता  दिखा  रहे  हैं  हमारी  चेतना  में  तुलसी  विराजमान  हैं ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ  ग  ]