पूर्ण ब्रह्म से पूर्ण निकालें तब भी रहता शेष पूर्ण है ।
सर्वत्र समाया है परमात्मा सम्पूर्ण जगत में वही व्याप्त है
ब्रह्म- अंश से रहित कुछ नहीं ईश जगत में परिव्याप्त है ।
आसक्ति त्याग मन को समझायें कर्मवीर मुझको बनना है
ब्रह्म - रूप ईश्वर निमित्त ही श्रेष्ठ कर्म हमको करना है ।
भोग हमारा ध्येय नहीं है माया - ममता में न बँधना
जो भी साधन दिया है प्रभु ने व्यय पूजा- निमित्त करना ।
कर्म - प्रधान जगत की रचना निरभिमान हो कर्म करें
राग - द्वेष से तभी बचेंगे हर्ष - शोक में धीर - धरें ।
जन्म भोग के लिए नहीं है तप है जीवन - यापन करना
कर्म न डालेंगे बंधन में कर्म करो पर लिप्त न रहना ।
यह मानव तन दुर्लभ देकर हमसे कहते हैं परमेश्वर
जन्म- मृत्यु से तर जा मानव भोग - राग में नष्ट न कर ।
परब्रह्म है अचल एक है मन से अधिक वेग है उसका
आदि - देव वह ज्ञान - रूप है सूर्य - समीर अंश है जिसका ।
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा प्रेमी -जन उनको पाते हैं
वे हैं दूर बहुत फिर भी वे आर्तनाद सुन कर आते हैं ।
सत्य- रूप सर्वेश्वर श्री- मुख सूरज आभा से ढँका हुआ है
वह ही तो दर्शन पाएगा जो सदाचार में लगा हुआ है ।
हे यम भक्त जनों के पोषक मैं वही हूँ यह चिन्तन करता हूँ
परब्रह्म जो दिव्य रूप है " सोहSम् " यह अनुभव करता हूँ ।
हे अग्ने! अधिष्ठातृ- देवता शुभ- राह चलें दो आशीर्वाद
पथ के कण्टक नष्ट करें प्रभु सत्कर्म हेतु हो शंखनाद ।
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग ]
वाह, संस्कृत से पूरी तरह मिलता अनुवाद। पढ़कर आनन्द आ गया। बस पहले श्लोक में ७ की जगह ४ पूर्ण शब्द से ही भाव स्पष्ट हो गया।
ReplyDeleteवाह !!! बहुत सुंदर अनुवाद .....
ReplyDeleteRECENT POST : पाँच( दोहे )
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा प्रेमी -जन उनको पाते हैं
ReplyDeleteवे हैं दूर बहुत फिर भी वे आर्तनाद सुन कर आते हैं ।
स्तुत्य, प्रणाम, निःशब्द,
गर्व है छत्तीसगढ़ की माटी पर
सर्वत्र व्याप्त है वह परमात्मा प्रेमी -जन उनको पाते हैं
ReplyDeleteवे हैं दूर बहुत फिर भी वे आर्तनाद सुन कर आते हैं ।
वह दूर से दूर है और पास से पास !
आनंदित करता अनुवाद
ReplyDeleteबहुत सुंदर अनुवाद .....
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