जगत ऒम का ही स्वरूप है किन्तु ब्रह्म सर्वथा पृथक है
निराकार - साकार भी है वह इन दोनों से रहित अकथ है।
जैसे जीवात्मा विषयों का उन्नीस मुख से करती उपभोग
वैसे ही जन देह की आत्मा है जग -ज्ञाता भोक्ता का योग।
लक्षण जिसका नहीं है कोई जिसमें ब्रह्म - प्रतीति सार है
सर्व शांत - शिव अद्वितीय है पूर्ण ब्रह्म वह ही अपार है।
चेतन ही जिसका मुख है आनन्द ही जिसका भोजन है
वह आनंद-मय प्राज्ञ ब्रह्म ही पूर्ण - ब्रह्म संशय मोचन है।
परब्रह्म वह ओंकार है 'अ' ' उ ' ' म' अक्षरा - कार है
परमेश्वर के तीन पाद हैं यह तीन पाद ही ओंकार है।
' अ 'ही ब्रह्म का प्रथम पाद है 'अ 'अक्षर साक्षात् ईश्वर है
'अ ' और ब्रह्म एक ही तो हैं परमेश्वर पूजा - पथ पर है।
'उ' ही ब्रह्म का द्वितीय पाद है प्रभु का हिरण्यगर्भ रूप है
इस रहस्य को जानने वाला ईश्वर का ही द्वितीय रूप है।
'म 'ही ब्रह्म का तृतीय पाद है 'अ उ म' में विलय होता है
इस प्राज्ञ रूप का ज्ञाता ही प्रभु - चरणों में लय होता है।
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग ]
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ReplyDeleteपिछली पोस्ट का शीर्षक 'मुण्डकोपनिषद्' था और यह पोस्ट 'माण्डूक्योपनिषद्'?
ReplyDeleteअद्वैत, द्वैत या द्वैताद्वैत.
१२ श्लोकों में व्यक्त सृष्टि का अद्भुत सत्य। सुन्दर अनुवाद, स्पष्ट करता हुआ।
ReplyDeleteपरब्रह्म वह ओंकार है 'अ' ' उ ' ' म' अक्षरा - कार है
ReplyDeleteपरमेश्वर के तीन पाद हैं यह तीन पाद ही ओंकार है।
satya ko sundar shabdon me utara hai aapne .badhai .