Thursday 3 April 2014

सूक्त - 94

[ऋषि- कण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

8524
अधि यदस्मिन्वाजिनीव  शुभः स्पर्धन्ते  धियः सूर्ये  न  विशः।
अपो   वृणानः  पवते  कवीयन्व्रजं  न  पशुवर्धनाय  मन्म ॥1॥

दुनियॉ  में अनगिन  प्राणी  पर तन-मन  सबका अलग-अलग है।
सबका चिन्तन अलग-अलग है सबकी रचना अलग-अलग है॥1॥

8525
द्विता   व्यूर्ण्वन्नमृतस्य    धाम    स्वर्विदे    भुवनानि    प्रथन्त ।
धियः पिन्वाना:स्वसरे न गाव ऋतायन्तीरभि वावश्र इन्दुम्॥2॥

वह  अनन्त  अति  अद्भुत  है  आनन्द - अमृत  का  सागर  है ।
अन्वेषण  का  आकर्षण  है  जिज्ञासा  का  उच्च-शिखर  है॥2॥

8526
परि यत्कविः काव्या भरते शूरो न रथो भुवनानि विश्वा ।
देवेषु यशो मर्ताय भूषन्दक्षाय रायः  पुरुभूषु  नव्यः ॥3॥ 

वह परमात्मा ही समर्थ है कवि-मन की कमनीय कामना।
वह ही विद्वानों का यश है नित-नूतन है मृदुल-भावना॥3॥ 

8527
श्रिये जातः श्रिय आ निरियाय श्रियं  वयो  जरितृभ्यो  दधाति ।
श्रियं वसाना अमृतत्वमायन्भवन्ति सत्या समिथा मितद्रौ॥4॥

अम्बर-अवनि  उसी  का  वैभव  तीव्र - वेग  से  वह  चलता  है ।
यश-वैभव  देता  साधक  को  सत्य-यज्ञ  वह  ही  करता  है॥4॥

8528
इषमूर्जमभ्य1र्षाश्वं  गामुरु  ज्योतिः  कृणुहि  मत्सि  देवान् ।
विश्वानि हि सुषहा तानि तुभ्यं पवमान बाधसे सोम शत्रून्॥5॥

अनन्त-शक्ति का वह स्वामी है साधक  को  वही  परखता  है ।
दुष्ट-दलन वह ही करता है हम सबका ध्यान वही रखता है॥5॥


2 comments:

  1. वह अनन्त अति अद्भुत है आनन्द - अमृत का सागर है ।
    अन्वेषण का आकर्षण है जिज्ञासा का उच्च-शिखर है॥2॥

    उस परमात्मा के जितने गुण गाएं वह अछूता ही रहता है..

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  2. सुन्दर भावानुवाद, वाह।

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