Monday 28 July 2014

पावस प्रण

पावस अपने रुदन में भी तुम जग का कितना हित करती हो
 अपनी व्यथा नीर के द्वारा धरती को  सम्प्रेषित  करती  हो ।

कृषक तुम्हारी बाट जोहता आतुर - अँखियॉ  पथ  पर  होती
देर  हुई  यदि आने  में  तो  उसकी अँखियॉ  नींद  न  सोती ।

बचपन   तेरी   करे   प्रतीक्षा  आओ   पावस   करो   शीघ्रता
यदि  तुम  आए  नहीं  तो   मेरा  रह  जाएगा  गागर   रीता ।

कहॉ  चलाऊँगा   मैं  अपनी   छोटी   सी  क़ागज़   की   नाव
गलियों में छप्पक- छप करते किस विधि पार करूँगा गॉव ।

सावन   में   आयेंगे   साजन   यही   सोचती   हैं   ललनायें
घटा  न  छाई  मेघ  न  बरसे  गीत  मिलन  के  कैसे  गायें ?

मोर   देखते   राह  तुम्हारी   मेघ  -  थिरकते   मोर   नाचता
उसके  नर्तन  की  पोथी  को  व्याकुल -  प्रेमी  सदा  बॉचता ।

दादुर  टर्र - टर्र  की  बोली  में  क्या  कुछ मन को नहीं बताते
पावस तुमसे प्रेमी - जन जीते विरह - व्यथा भी वे सह जाते ।

निश्चित  ही  नीर  रुदन   है  तेरा   तेरी   पीडा   फूट   पडी   है
जो जग को अजस्त्र - वर देता  विपदा  उसकी  बहुत  बडी है ।

पावस पल -पल पर - सेवा पर कर दे अर्पित सब कुछ अपना
अपना आपा त्याग करे वह प्राणि - मात्र की सुख - संरचना ।

मनुज कदाचित् सीख ले किंचित् पावस चिंतन पावस गरिमा
रहे  शाश्वत  सुयश  उसी का इतिहास कहे उसकी ही महिमा ।

6 comments:

  1. जीवन देता पावस -अच्छी कविता

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  2. पावस का अति सुंदर चित्रण...

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  3. जीवन को जीवन देती है यह पावस की रुत !
    सुन्दर काव्य !

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  4. बाहर भीतर पानी...

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  5. बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति...

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  6. भावपूर्ण कविता.....................

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