सामवेद में उपासना है समन्वयन ही है उपासना
ज्ञान कर्म का योग इसी से द्रष्टा- दृश्य का युग्म बना ।
ज्ञान का दाता वही ब्रम्ह है कर्म फलों का वही प्रदाता
कण- कण में वह ही स्थित है उपासना के फल का दाता।
अग्नि हमारा है हित साधक पारस पावन है यह पावक
गति में हरदम वह रहता है रथ सम है वह मारुत वाहक ।
कर्मफलों का साधक पावक शुचिता को धारण करता है
दोष मलिनता दूर भगाता सबको दोषमुक्त करता है ।
कहीं कभी भी अग्नि जलायें भस्म शेष केवल रहता है
पावक है गतिशील इसी से आच्छादित नभ में रहता है ।
सूर्य रूप में अग्नि वृष्टि से अन्न दान दे कर जाता है
निज प्रकाश से तिमिर मिटाता सतगुण तब बढ़ जाता है ।
आठ वसुओं में अग्नि एक है वह नर का आश्रय रक्षक है
उसके गुण को जानें परखें मनुज हितों का वह साधक है ।
हमसे कहते हैं परमात्मा यज्ञ हवन जो तुम करते हो
मेघ समाहित हो जल देता उसी अन्न से तुम पलते हो ।
दुष्टों से निज रक्षा निमित्त हम यज्ञ करें हों हृष्ट पुष्ट
सज्जन सुख साधन को पायें हों देव कृपा से दुष्ट - नष्ट ।
प्रवाह पवन प्रभु से प्रेरित है जिससे भू-पर रहने वाले
परस्पर शब्द श्रवण करते हैं प्रभु उपासना करने वाले ।
सूर्य प्रकाशित होता है ज्यों शशि प्रकाश ग्रहण करता है
वैसे ही गुरु से उत्तम-विद्या शिष्य सविनय ग्रहण करता है।
परमात्मा की कृपा-दृष्टि हो जलदायी-विद्युत सोम-तृप्त हो
पूर्ण-तृप्त हो जल बरसाए धान्य-प्रचुर फिर हमें प्राप्त हो ।
नम्र नीति-नत नृप हो निर्मल अनर्थ अन्यथा हो जाता है
आपस में ही लड़ पड़ता नर स्वत; नष्ट वह हो जाता है ।
सदुपदेश के नित्य श्रवण से मन आत्मा पोषित होती है
दुर्गुण दूर इसी से होता दुर्वचनों से रक्षा भी होती है ।
ऊषाकाल में नर यदि जागें तो उद्योगी- कर्मठ वे होते हैं
ऊषा-सदृश स्त्री को घर में लक्ष्मी के नित दर्शन होते हैं ।
यदि सूरज न हो तो तम में दुष्ट- जन करें जग में राज
भू पर यदि परमात्मा न हो अस्त व्यस्त हो जाए समाज।
सूर्य-अग्नि वसुधा पर न हो लोक सभी जड़वत हो जायें
सूर्य-रश्मियाँ रोग नष्ट कर भय मेटें जिजीविषा जगायें ।
परमेश्वर ने रवि को नभ में ऋतुओं का आधार बनाया
वनस्पतियाँ धान्यादि पकें महत धर्म का पाठ पढ़ाया ।
उत्तम-वर्षा से ही इस जग को श्रेष्ठ उपज मिल पाता है
अन्नादि प्रचुर मात्रा में होता धान्य गगन बरसाता है ।
सर्व-जगत उत्पादक है जो सूर्य-देव है ज्योति-स्वरूप
धर्म-बुध्दि को प्रेरित करता भक्ति योग्य है ज्ञान-स्वरूप ।
पैदा होता अग्नि अऱणि से नभ-पवन-तन में अवस्थित
अनल के अनुग्रह से ही गरिमा-गिरा होती व्यवस्थित ।
ब्रह्म का अनुग्रह हो और फिर वर्षा से सोम मिले जब
सोम-मधु सम्पृक्त करके सोम पियें सौभाग्य समझ तब ।
जो जन प्रभु उपासना करते उनका बल बढ़ता जाता है
अनिष्ट-निवारण होता उनका रिपु भी निर्बल हो जाता है ।
यज्ञ समाकर रवि-किरणों में विविध-व्याधि से लड़ता है
रूप विलक्षण पाकर कहता वह सूर्य-रश्मियों में रहता है ।
दुर्जन भी जिनके सम्मुख कर्मों का सार्थक फल पा जायें
उसी देव की अनुकम्पा से ही परिजन प्रबल पुरुषार्थ पायें।
मेघ-दामिनी जल बरसाते हैं वे ही तो हमें अन्न देते हैं
यज्ञ-हवन प्रतिदिन करके हम इनको ही भोजन देते हैं ।
शकुन्तला शर्मा, भिलाई [ छ. ग ]
हिन्दी में अनुवाद कर और सामवेद को सरल रूप में पढ़वाने का शत शत आभार।
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