रिमझिम रव लय ताल से निखर दमक दामिनी घनन-घनन स्वर
तृषा-तृप्ति के हेतु अवनि के कृषक-करुण-स्वर की पुकार पर ।
तन-मन की सुध खो कर सरिता भाग रही निज पिय के पास
बाहें पसार अनुराग को आतुर जलधर- उर में अनगिन - प्यास ।
चातक तृषा - तप्त जो था वह स्वाति - बूँद से तृप्त हुआ है
उमड - घुमड कर घन गर्जन - रव आच्छादित मंत्रवत् हुआ है ।
पावस - पारस के पदार्पण से वसुधा हरितवर्णा हुई है
पिय - प्रेम - भाव - प्रदीप्त करने नभ - तीक्ष्ण - धारा - तीर सी है ।
थिरकते - नव - मेघ - नभ - उर पावस - पावन - पूञ्जी - पाकर
दामिनी चपला भी थिरकती घनघोर के लय में मचल कर ।
प्रथम पावस - पय पृथ्वी पर मृण्मय सुवास सोंधी बिखराई
दिशा - दिशा उन्मत्त हो उठी अवनि ने अद्भुत छवि पाई ।
निज इन्द्र - धनु से हो सुसज्जित घन चला आखेट पर है
पथिक विचलित है प्रणय का प्राण व्याकुल सेज पर है ।
घन - घटा - ताल - रव - रत कलापी पंख पसार नृत्य करता है
जन - मन को ऊष्मा उमंग का पल - प्रतिपल प्रेषित करता है ।
मन की साधें सफल हुई हैं अञ्जुरी देखो भर - भर आई
सुध - बुध खो कर बेसुध हो कर बौराई बरखा घिर - घिर आई ।
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]
हर शब्द वर्षा की बूँद बनकर मन तृप्त कर गया।
ReplyDeleteवर्षा ऋतु का अनुपम और बहुत सुन्दर वर्णन ...
ReplyDeleteरचना में अर्थालंकार और शब्दालंकार का सुन्दर प्रयोग बधाई
रसमय और भावमय करते शब्द..
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