मायातीत ज्ञान के सुंदर - सम्यक उत्स उपनिषद हैं
वेदान्त कहाते यही उपनिषद यही वेदान्त अतिविशद हैं ।
पृथ्वी पर जीवन - रहस्य के शास्त्र अनूठे हैं उपनिषद
गुह्य गहनतम गरिमामंडित कठ है सबसे सार उपनिषद ।
जीवन जागृति जो जन चाहे मौत का अनुभव करना होगा
जीने की कला सीखनी हो तो मरने का उपक्रम करना होगा ।
जीवन का ज्ञान उन्हें होता है नहीं है जिनको मौत का भय
भयभीत मृत्यु से जो होता है भ्रम का जीवन है अतिशय ।
मृत्यु गुह्यतम गहन केन्द्र है जीवन का जीने की कला का
इससे परिचित वे ही होते हैं आँजे हैं जो चैतन्य - शलाका ।
मौत सभी को आती है पर कौन जान पाता जीवन को
बार - बार मरकर भी समझ न पाए इस जीवन उपवन को ।
हर मानव के जन्म की लगभग एक सी यही कहानी है
यही जन्म अन्तिम हो जाए अमरता कठ की बानी है ।
मौत से हम डरते हैं क्योंकि नहीं चाहते हम मरना
किन्तु मौत निश्चित है इससे जन्म - मृत्यु का वृत्त बना ।
इस खींचातानी में मानव कष्ट अनगिनत पा जाता है
रस्साकसी के खेल में जैसे बाहु - बली ही जय पाता है ।
परा - प्रकृति पल-पल पथ सेती दुःख से हमें बचाती है
असह्य वेदना नर को हो यदि संज्ञा - शून्य बनाती है ।
भारी दुःख का आहट पाकर मनुज मूर्छित हो जाता है
मौत के आने के पहले ही चेतना - शून्य हो जाता है ।
हम मूर्छा में ही मर जाते हैं हमें याद नहीं रहता कुछ भी
मर पाते यदि चेतनता में रहता सब याद हमें अब भी ।
जब हम रात्रि नींद में सोते हो चैतन्य कहाँ सो पाते
नींद हमारी जब खुलती है पुनः - पुनः हम सब पछताते ।
नींद मौत जीवन है जागरण पुनरावृत्ति सदा होती है
एक छोर पर मूर्छा है यदि द्वितीय छोर पर भी होती है ।
पूर्वजन्म में कहाँ थे क्या थे हमें कहाँ स्मरण है इसका
कारण मूर्छा में मौत हुई थी जन्म दूसरा छोर है उसका ।
धर्म सीख देता है हमको यदि चेतनता में मर पाये
मृत्यु पूर्व यदि रहे चेत में मृत्यु स्वत: निःशेष हो जाये ।
मैं मरता हूँ कहाँ देह है जो मुझसे छूटी जाती है
तन है मेरा गेह देह है माटी - माटी बन जाती है ।
वस्त्र जीर्ण जब हो जाता है नया वस्त्र पाता है देह
देह जीर्ण जब हो जाता है आत्मा पाती है नव - गेह ।
नहीं गरीयस देह वस्त्र से मरता है बस देह हमारा
यही सत्य यदि जान लें हम तो होगा नहीं जन्म दोबारा ।
चेतनता में जो जन्मा है होती नहीं मृत्यु फिर उसकी
कैवल्य धाम वह पा लेता है मृत्यु छूट जाती है उसकी ।
मौत को जिसने जान लिया है कभी नहीं वह देह से जुड़ता
देह से तब हम जुड़ जाते हैं मृत्यु - पूर्व जब होती जड़ता ।
देह से जुड़ना बेहोशी है मानव - मूर्छा का सेतु वही है
मैं और देह पृथक हो जाये चेतनता का हेतु यही है ।
देह जनमता देह ही मरता सदा पृथक है वह अशरीरी
नहीं जनमती और न मरती देही सतत सदा से पूरी ।
आत्मा के सान्निध्य से सदा देह सत्य सम लगता है
आत्मा से आलोकित होकर शव भी जीवित लगता है ।
देह को जीवन जानने वाले सत्य - विमुख हो जाते हैं
मृत्यु - मूल में जो जाते हैं परम - सत्य वे ही पाते हैं ।
कठ की व्याख्या बहुत कठिन है सत्य संग ले जाती है
पर कठ को कविता में कहना जिजीविषा दे जाती है ।
कठ है आनंद सरिता अनुपम आकण्ठ डूबता है जीवन
जीवन को परिभाषित करती आयाम नया पाता है मन ।
मनुज लक्ष्य को भूल गया है पथ से भटक गया है वह
कठ करती संकेत हमें है पकड़ाती पथ ध्येय है यह ।
कवि ने कठ की व्याख्या की है शैली है अत्यंत सरल
पर है कठ अति गूढ़ अनूठी जी पाता है कोई विरल ।
कठोपनिषद है एक कहानी अद्भुत है अतिशय रुचिकर
जीवन के रहस्य को जिसमें समझाया है कथा कहकर ।
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग ]
वाह, कठ के कठोर ज्ञानांश। जीना सीखना है तो मृत्यु को याद रखना होगा।
ReplyDeleteकठोपनिषद है एक कहानी अद्भुत है अतिशय रुचिकर
ReplyDeleteजीवन के रहस्य को जिसमें समझाया है कथा कहकर ।
बहुत सुंदर ! आभार शकुंतला जी इस सुंदर ज्ञानमयी पोस्ट के लिए...
जीवन और मृत्यु एक दूसरे से ही हैं, एक है तो दूसरा भी और यह चक्र चलता ही रहता है। दोनों को सहजता से लेना और उच्चतर गति के लिये प्रयासरत रहना ही शायद वह संदेश है जो हमारे ग्रंथ हमें देते हैं।
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