Wednesday 28 August 2013

प्रश्नोपनिषद्


पिप्पलाद की आज्ञा पाकर षड्र- ऋषियों ने श्रध्दा पूर्वक 
संलग्न हो गए तपाचरण में एक वर्ष तक संयम- पूर्वक । 

कत्य - प्रपौत्र कबन्धी ने फिर पिप्पलाद से पूछा प्रश्न
"कैसे  हुई  जगत  की  रचना  यही  है मेरा  पहला प्रश्न ?"

पिप्पलाद बोले - "कात्यायन !  वेदों ने भी यह गाया है
सभी जीव के स्वामी को जग रचने का विचार आया है । 

ईश्वर ने संकल्प तप किया अग्नि-सोम तब प्रगट हुए 
अग्नि-सोम दोनों मिलकर भाँति-भाँति की सृष्टि किए । "

विदर्भ देश के भार्गव ऋषि ने पिप्पलाद से यह पूछा था 
" देवों की संख्या कितनी है श्रेष्ठ कौन है द्वितीय प्रश्न था। "

" पंच इन्द्रियाँ वाक् आदि हैं नेत्र श्रवणादि ज्ञान इंद्रिय हैं
मनादि चार अंत:-करण हैं पञ्च - प्राण ही सर्व - श्रेष्ठ है । 

अग्नि - रूप में  ऊष्मा  देता यही  प्राण  है  यही सूर्य  है 
यही  मेघ है  इन्द्र - वायु है यही देव भू - भूत - पुञ्ज है । 

सत है यही असत भी यही है इससे भी श्रेष्ठ परम है वह 
यही प्राण है यही प्राण है अमृत - स्वरूप ब्रह्म है यह । "

आश्वलायन मुनि ने  पूछा पिप्पलाद ऋषि से छ: प्रश्न 
"किससे पैदा होता  है प्राण यही है उनका पहला प्रश्न । 

स्वत:विभाजित होकर कैसे मनुज देह में वह रहता है 
जग को कैसे धारण करता किस प्रकार तन तजता है । "

" प्रभु से  ही उपजा है प्राण वह भी आश्रित  है उन पर 
वैसे ही जैसे नर की छाया आश्रित होती है खुद नर पर । 

मरणासन्न मनुज के मन में होता है जैसा भी संकल्प 
वैसा ही तन वह पाता है मन वांछित मिलता विकल्प ।"

"गहरी नींद में मानव तन में कौन देवता-गण सोते हैं 
स्वप्न देखता कौन देव फिर जागृत कौन-देव रहते हैं ?"

पिप्पलाद ने कहा गार्ग्य से-" इंद्रिय कर्म मुक्त होती हैं 
गाढ़ी नींद में सभी इंद्रियाँ मन में ही विलीन होती हैं । 

श्वासोच्छ्वास ही आहुतियाँ हैं समान-वायु रस लाता है
उदानवायु ही अभीष्ट फल मन हृदयगुहा में ले जाता है । 

नींद में नर तन रूप नगर में जागृत रहते हैं पंच -प्राण 
अपानवायु ही गार्हपत्य है दक्षिणाग्नि है वायु व्यान ।"

सत्यकाम के प्रश्नों का फिर समाधान ऋषि करते  हैं 
ॐ की उपासना विषयक उत्सुकता  पर वे कहते  हैं ।

"सत्यकाम जो ॐ शब्द है  परमात्मा तक जाता है 
परब्रह्म यह अपरब्रह्म यह ॐ साधक प्रभु को पाता है । 

ऋग्वेद स्वरूपा प्रथम भाग है इससे नरतन पाता है 
यजुर्वेद फिर ॐ साधक को चंद्र -लोक पहुँचाता है । 

सामवेद के मंत्र  मनुज को ब्रह्मलोक पहुँचा देते  हैं  
ओम  उपासना  द्वारा साधक परब्रह्म को पा लेते  हैं । "

पिप्पलाद कह रहे "सुकेशा! ब्रह्मांड सदृश ही है नरतन 
मनुजदेह में वे स्थित हैं यह है सोलह कला का नर्तन ।

भिन्न नाम वाली सरितायें जाके सागर में समाती हैं
नाम नहीं बच पाता उनका वे सब सागर कहलाती हैं । 

इसी तरह से षोडश कला  भी प्रभु में होती है तदाकार 
अस्तित्व के विलय होने पर हरि से होता है एकाकार । 

इस अद्भुत पथ के ज्ञाता ही परमेश्वर को जब पाते  हैं 
अमृत स्वरूप को पाकर फिर अजर अमर हो जाते हैं।" 

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ  ग  ]   
  

  

 



  

4 comments:

  1. मन, मन की अवस्थायें और जीवन के मूल प्रश्न हैं इसमें, सुन्दर प्रश्न...

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  2. उपनिषदों पर यह श्रृंखला स्वागतयोग्य है, सरल शब्दों में आमजन के लिये प्रस्तुत करने का आभार।

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  3. भिन्न नाम वाली सरितायें जाके सागर में समाती हैं
    नाम नहीं बच पाता उनका वे सब सागर कहलाती हैं

    प्रश्न उत्तर लिए सुन्दर् बेहतरीन

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  4. शकुंतला जी, बहुत सुंदर ज्ञान श्रंखला..

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