संलग्न हो गए तपाचरण में एक वर्ष तक संयम- पूर्वक ।
कत्य - प्रपौत्र कबन्धी ने फिर पिप्पलाद से पूछा प्रश्न
"कैसे हुई जगत की रचना यही है मेरा पहला प्रश्न ?"
पिप्पलाद बोले - "कात्यायन ! वेदों ने भी यह गाया है
सभी जीव के स्वामी को जग रचने का विचार आया है ।
ईश्वर ने संकल्प तप किया अग्नि-सोम तब प्रगट हुए
अग्नि-सोम दोनों मिलकर भाँति-भाँति की सृष्टि किए । "
विदर्भ देश के भार्गव ऋषि ने पिप्पलाद से यह पूछा था
" देवों की संख्या कितनी है श्रेष्ठ कौन है द्वितीय प्रश्न था। "
" पंच इन्द्रियाँ वाक् आदि हैं नेत्र श्रवणादि ज्ञान इंद्रिय हैं
मनादि चार अंत:-करण हैं पञ्च - प्राण ही सर्व - श्रेष्ठ है ।
अग्नि - रूप में ऊष्मा देता यही प्राण है यही सूर्य है
यही मेघ है इन्द्र - वायु है यही देव भू - भूत - पुञ्ज है ।
सत है यही असत भी यही है इससे भी श्रेष्ठ परम है वह
यही प्राण है यही प्राण है अमृत - स्वरूप ब्रह्म है यह । "
आश्वलायन मुनि ने पूछा पिप्पलाद ऋषि से छ: प्रश्न
"किससे पैदा होता है प्राण यही है उनका पहला प्रश्न ।
स्वत:विभाजित होकर कैसे मनुज देह में वह रहता है
जग को कैसे धारण करता किस प्रकार तन तजता है । "
" प्रभु से ही उपजा है प्राण वह भी आश्रित है उन पर
वैसे ही जैसे नर की छाया आश्रित होती है खुद नर पर ।
मरणासन्न मनुज के मन में होता है जैसा भी संकल्प
वैसा ही तन वह पाता है मन वांछित मिलता विकल्प ।"
"गहरी नींद में मानव तन में कौन देवता-गण सोते हैं
स्वप्न देखता कौन देव फिर जागृत कौन-देव रहते हैं ?"
पिप्पलाद ने कहा गार्ग्य से-" इंद्रिय कर्म मुक्त होती हैं
गाढ़ी नींद में सभी इंद्रियाँ मन में ही विलीन होती हैं ।
श्वासोच्छ्वास ही आहुतियाँ हैं समान-वायु रस लाता है
उदानवायु ही अभीष्ट फल मन हृदयगुहा में ले जाता है ।
नींद में नर तन रूप नगर में जागृत रहते हैं पंच -प्राण
अपानवायु ही गार्हपत्य है दक्षिणाग्नि है वायु व्यान ।"
सत्यकाम के प्रश्नों का फिर समाधान ऋषि करते हैं
ॐ की उपासना विषयक उत्सुकता पर वे कहते हैं ।
"सत्यकाम जो ॐ शब्द है परमात्मा तक जाता है
परब्रह्म यह अपरब्रह्म यह ॐ साधक प्रभु को पाता है ।
ऋग्वेद स्वरूपा प्रथम भाग है इससे नरतन पाता है
यजुर्वेद फिर ॐ साधक को चंद्र -लोक पहुँचाता है ।
सामवेद के मंत्र मनुज को ब्रह्मलोक पहुँचा देते हैं
ओम उपासना द्वारा साधक परब्रह्म को पा लेते हैं । "
पिप्पलाद कह रहे "सुकेशा! ब्रह्मांड सदृश ही है नरतन
मनुजदेह में वे स्थित हैं यह है सोलह कला का नर्तन ।
भिन्न नाम वाली सरितायें जाके सागर में समाती हैं
नाम नहीं बच पाता उनका वे सब सागर कहलाती हैं ।
इसी तरह से षोडश कला भी प्रभु में होती है तदाकार
अस्तित्व के विलय होने पर हरि से होता है एकाकार ।
इस अद्भुत पथ के ज्ञाता ही परमेश्वर को जब पाते हैं
अमृत स्वरूप को पाकर फिर अजर अमर हो जाते हैं।"
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग ]
मन, मन की अवस्थायें और जीवन के मूल प्रश्न हैं इसमें, सुन्दर प्रश्न...
ReplyDeleteउपनिषदों पर यह श्रृंखला स्वागतयोग्य है, सरल शब्दों में आमजन के लिये प्रस्तुत करने का आभार।
ReplyDeleteभिन्न नाम वाली सरितायें जाके सागर में समाती हैं
ReplyDeleteनाम नहीं बच पाता उनका वे सब सागर कहलाती हैं
प्रश्न उत्तर लिए सुन्दर् बेहतरीन
शकुंतला जी, बहुत सुंदर ज्ञान श्रंखला..
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