Sunday, 26 May 2013

हिंदी गज़ल तब और अब

अपने सुख- दुख के स्वामी तुम्हीं हो सखे अपनी मर्ज़ी से तुमने ये सुख दुख चखे
कर्मों  का  फल  तो  मिलता  है संसार  में आज़मा  लो  यही  बात  सच  है  सखे ।

कोई   दूजा  तुम्हें  दुख  नहीं  देता है  अपनी  मर्ज़ी  से  दुख  पाते  हो  तुम  सखे
बात  इतनी  सी  है  तू  भी  यह  जान  ले  सुख  है  सत्कर्म  दुष्कर्म दुख है सखे ।

हिन्दी गज़ल सम्प्रेषण का ऐसा सशक्त माध्यम है , जिसे आम - आदमी पढ्ता है ,सुनता है , समझता है और पसंद भी करता है । तब और अब की तुलना करने  के लिये , आइये हम अतीत की ओर चलते हैं , पीछे मुड कर देखते हैं ।

'भारतेन्दु ' हरिश्चन्द्र , आधुनिक काल के जनक माने जाते हैं । उन्होंने गज़ल भी लिखी है । गज़ल  गायक के रूप में अपना उपनाम  उन्होंने ' रसा ' , रखा था । उनकी  गज़ल  के चंद शेर देखिए --
" दिल   मेरा  ले  गया   दगा   करके
बेवफा    हो    गया   वफा    करके ।
क्यूं    न   दावा   करे   मसीहा   का
मुर्दे  ठोकर  से  वो   जिला   करके ।
क्या हुआ यार छिप गया किस तर्फ
इक  झलक  सी  मुझे दिखा करके ।
दोस्तों   कौन    मेरी   तुरबत    पर
रो  रहा   है  ' रसा '   ' रसा '  करके ।"

" भारतेन्दु " के  पश्चात्  अयोध्या सिंह उपाध्याय " हरिऔध " ने भी गज़ल का प्रयोग कुछ इस तरह किया है --

 " बीन   मे  तेरी   भरी   झंकार   है
बज  रहा  मेरी  रगों  का  तार  है ।
किस तरह वो ऑंख भर कर देखते
ऑंख जब होती  नहीं  दो चार  है  ।
लड गईं  ऑंखें  बला  से लड  गईं
दो दिलों में क्यों मची तकरार है ।"

" हरिऔध " जी समाज सुधारक हैं । समाज में जो भेद- भाव , ऊंच - नीच और जाति - पांति की दीवार है , वे उसे गिराना चाहते हैं । वे चाहते हैं कि पूरा देश एक साथ , कदम से कदम मिला कर चले । समाज में प्रेम और सौहार्द्र की भावना हो । वे कहते हैं --
"  राह पर उसको लगाना चाहिए
जाति सोती है जगाना चाहिए । "

जयशंकर  "प्रसाद " जी ने ' गज़ल '  पर  अपनी लेखनी चलाई है । उनका अंदाज़ कुछ इस प्रकार है --

" सरासर  भूल  करते हैं , उन्हें जो प्यार  करते  हैं
बुराई   कर   रहे   हैं  और   अस्वीकार   करते  हैं  ।
उन्हें अवकाश ही इतना कहॉ है मुझसे मिलने का
किसी  से  पूछ  लेते   हैं   यही  उपकार  करते  हैं ।
 प्रसाद उनको न भूलो तुम तुम्हें जो प्यार करते हैं
न सज्जन  भूलते उनको जिसे स्वीकार करते हैं ।"

देश की दुर्दशा देखकर , जयशंकर प्रसाद दुखी हैं । वे चाहते हैं कि व्यवस्था परिवर्तन हो । देश स्वतंत्र हो । वे कहते हैं --

" देश की दुर्दशा निहारोगे
डूबते को कभी उबारोगे । "

सूर्यकान्त त्रिपाठी  ' निराला ' का  अ‍ॅंदाज सबसे निराला है --

" किनारा वो हमसे किए जा रहे हैं
दिखाने को दर्शन  दिए जा रहे हैं ।
खुला  भेद  विजयी कहाए  हुए जो
लहू  दूसरों  का  पिए  जा रहे  हैं ।"



हिन्दी गज़ल भारत की स्वतंत्रता से भला अछूती कैसे रह सकती है ? जगदम्बा प्रसाद मिश्र  ' हितैषी ' की गज़ल में देशभक्ति का तेवर है--

" शहीदों  की  चिताओं  पर   जुडेंगे   हर  बरस  मेले
  वतन पर मरने वालों का यही   बाक़ी  निशां होगा ।

कभी वह दिन भी आएगा जब अपना  राज्य  देखेंगे
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा ।"

समकालीन साहित्य में स्वाभाविक रुप से ' गज़ल ' का समावेश होता रहा है । गीतकार 'गज़ल ' लिखने लगे  और  धीरे- धीरे कवियों  में भी  'गज़ल ' लिखने की रुचि  पनपती रही । गीतकार बलबीर सिंह ने रोमांटिक गज़लों की रचना की । आइए  उनकी  गज़लों का रंग देखते हैं --

" सारा  जीवन  गँवाया  तुम्हारे लिए
तुमको अपना  बनाया  तुम्हारे लिए ।
भेंट    कर    गीतों    की     भागीरथी
ऑंसुओं   में   नहाया  तुम्हारे  लिए ।
धूलिकण जड दिए व्योम के भाल पर
स्वर्ग  धरती  पे  लाया  तुम्हारे  लिए ।
चाहे  मानो  न  मानो  तुम्हारी  खुशी
रंग महफिल में आया  तुम्हारे  लिए ।"

शमशेर बहादुर  सिंह की ' गज़ल' में परम्परा का पावन प्रवाह है --

" वही  उम्र  का  एक  पल कोई  लाए
 तडपती  हुई  सी  गज़ल  कोई  लाए ।
 हक़ीक़त  को लाए  तखैयुल से  बाहर
 मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाए ।"

इसके विपरीत , त्रिलोचन की गज़ल में संस्कृत - शब्दावलियों का प्रयोग प्राञ्जल प्रतीत होता है --

" प्रबल जलवात पाकर  सिन्धु  दुस्तर  होता जाता है
 कठिन  संघर्ष जीवन  का  कठिनतर  होता  जाता है ।
' त्रिलोचन ' तुम  गज़ल  में खूब आए  बात  बन आई
 नए जीवन का स्वर अब गान का स्वर होता जाता है।"

हिन्दी साहित्य में गज़ल रचना की परम्परा पुरानी है किन्तु दुष्यन्त कुमार की गज़ल ने , हिन्दी गज़ल को एक नई पहचान दी है । समकालीन कवि गज़ल की ओर इसलिए आकर्षित हुए कि गज़ल , सम्प्रेषण की बहुत ही स्वाभाविक और सशक्त माध्यम बनी और जल की तरह  तरल मन  अनायास ही गज़ल की ओर बहने लगा । दुष्यन्त ने अपनी गज़ल में , बोल- चाल के सरल-सहज शब्दावलियों का प्रयोग किया । यही कारण है कि उनकी गज़ल , आम - आदमी की ज़ुबान तक आ गई ---

" एक जंगल है तेरी ऑंखों  में  मैं जहां राह  भूल  जाता  हूं
 मैं तुझे भूलने की कोशिश में आज कितने करीब पाता हूं । "

                                      
साहित्य जन-मन तक कैसे पहॅंचे , इस विषय पर , दुष्यन्त ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है-- " मैं बराबर महसूस करता रहा हूं  कि कविता में आधुनिकता का छद्म  कविता को बराबर पाठकों से  दूर करता चला गया है । कविता और पाठकों के बीच इतना फासला कभी न था , जितना आज है । इससे ज्यादा दुखद बात यह है कि कविता शनैः - शनैः अपनी पहचान और कवि अपनी शख्सियत खोता चला गया है । ऐसा लगता है मानो दो दर्जन कवि एक ही शैली और शब्दावली में , एक ही कविता  लिख  रहे हैं  और  इस कविता के  बारे में कहा जाता है कि यह सामाजिक और राजनीतिक क्रान्ति की तैयारी कर रही है । मेरी समझ में यह दलील खोटी और वक्तव्य भ्रामक है जो कविता लोगों तक पहुंचती ही नहीं वह किसी क्रान्ति का संवाहक भला कैसे हो सकती है?"   

" ये सारा ज़िस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
  मैं  सज़दे में  नहीं था आपको  धोखा  हुआ  होगा ।"

दुष्यन्त जानते हैं कि साहित्यकार का , कवि का दायित्व बहुत बडा है । वैसे तो दुष्यन्त ने विविध विधाओं में साहित्य रचना की है किन्तु वे गज़लकार- कवि के रुप में ही चर्चित एवम् लोकप्रिय हुए हैं । दुष्यन्त ने गज़ल की दो पुस्तकें लिखी हैं, 'आवाज़ों के घेरे ' और 'साये में धूप ।'

" सिर से सीने में कभी पेट से पॉंवों में कभी
 एक जगह  हो तो कहें  दर्द  इधर  होता  है ।"

दुष्यन्त कुमार कहते हैं - " मेरे पास कविताओं के मुखौटे नहीं हैं  , अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रायें नहीं हैं ।  मैं कविता को चौंकाने या आतंकित करने के लिए इस्तेमाल नहीं करता । उसे इतनी छोटी भूमिका नहीं दी जा सकती । समाज एवम् व्यक्ति के सन्दर्भ में उसका दायित्व इससे बहुत बडा है । "

" हो  गई  है  पीर  पर्वत  सी  पिघलनी  चाहिए
  इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए ।"

दुष्यंत कुमार के शेर , जन - जागरण में निनाद की तरह प्रयुक्त हुए । लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 25 जून 1975 को , दिल्ली के रामलीला मैदान में , इन्दिरा शासन के विरोध में जन - ऑंदोलन का नेतृत्व किया था , तब उन्होंने ' दिनकर ' की कविता की पंक्ति -    " सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । "  का प्रयोग जनसूक्ति की तरह किया था , इसी प्रकार आज दुष्यन्त कई गज़ल की पंक्तियॉं जन - सूक्तियों की तरह , जन - मानस  को ऑंदोलित करती हैं । दुष्यन्त ने बिम्ब एवम् वक्रोक्ति का साथ - साथ प्रयोग किया है -

" कहॉं तो तय था चिरागॉं हरेक घर के लिए
 कहॉं चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए । "

डा. नागेन्द्र वसिष्ठ हिन्दी गज़ल के सशक्त हस्ताक्षर हैं । ये आम आदमी की बात कहते हैं एवम्  जाने - पहचाने बिम्बों का प्रयोग करते हैं -

" मेरी बस्ती  में  कोई  बहरा  न था
  शोर इतना था कोई सुनता न था । "
एक और दृश्य देखिए " किसलिए आते परिंदे घर मेरे , मेरी छत पर एक भी दाना न था ।" करुण - रस के चित्रण में वशिष्ठ का कोई जवाब नहीं । वे संस्कृत के कवि  ' भवभूति ' की याद दिला देते हैं - 
" मेरे इक ऑंसू से भर आता था जिसका दिल ' वशिष्ठ '
जाते  -  जाते  मेरी  ऑंखों  को  समंदर   कर  गया ।"

हिन्दी गज़ल में बालस्वरुप राही की गज़ल एक विशेष स्थान रखती है --
" टपकेगा रुबाई  से तेरा खून या ऑंसू
 ' राही' है तेरा नाम तू 'खैयाम' नहीं है ।"
बोल- चाल के शब्दों में अपनी बात को कह देना ' राही ' की विशेषता है -
" वक्त  का आखरी फरमान अभी  बाकी है
 मेरे  अंजाम  का  ऐलान  अभी  बाकी  है ।
 कट गई उम्र मगर कट न सकी जो ' राही '
 मेरे  सीने में  वो चट्टान अभी  बाकी है ।"
भवानीशंकर एक प्रतिष्ठित गज़लकार हैं । बिहारी की तरह कम शब्दों में बडी बात कह देना , इनकी विशेषता है -
" खून से सींचा था तुझको इसमें  कोई शक नहीं
और अब  पानी की बूंदों पर  भी  मेरा  हक नहीं ।
उसने भी करवट बदलकर एक दिन मुझसे कहा
मैं तेरे लायक  नहीं  और  तू  मेरे  लायक  नही । "

'शलभ ' श्रीराम सिंह प्रगतिशील गज़लकार हैं । वे सबकी पीडा को अपनी पीडा समझतेहैं । वे " वसुधैव कुटुम्बकम् " के पोषक हैं-
" मुश्किलें थम गईं  दर्द कम हो गया अब ज़माने का गम अपना गम हो गया
 रोशनी  अब  अंधेरे  की  हमराज  है  जो  न  होता  था  वह  एकदम  हो  गया ।
 रास्ते ने  मुसाफिर  से क्या  कह  दिया इन्किलाबे  सफर  हर कदम  हो गया
मेरे  बाद आने  वालों से कहना ' शलभ ' एक बेगाना  दुनियॉं  में कम हो गया ।"

शेरजंग गर्ग , बातचीत की शैली में अपनी गज़ल कहते हैं । नपी - तुली भाषा में हास्य -
व्यंग्य का पुट देखते ही बनता है --
" जब पूछ लिया उनसे किस बात का डर है
 कहने  लगे  ऐसे  ही  सवालात  का डर  है ।
 हर चीज़ में  बिगडे हुए  अनुपात का डर है
 फौलाद की औलाद में जज़बात का डर है ।
है खास खबर आज की हो जाओ खबरदार
कागज़  पे सुधरते  हुए  हालात  का डर है ।
हॉं न्याय का विषपान तो करना ही पडेगा
एथेंस के  हज़रात को  सुकरात का डर है ।"
सूर्यभानु गुप्त ने हिन्दी गज़ल में विशेष प्रतिष्ठा पाई है । उनकी सहज - सरस शैली क़माल की गज़ल कहती है -
" ऐसे खिलते हैं फूल फागुन में लोग करते हैं भूल फागुन में
धूप  पानी  में  यूं   उतरती  है  टूटते   हैं  उसूल  फागुन  में ।

कोई  मिलता  है और होते  हैं  सारे सपने  वसूल  फागुन  में
चोर  बाहर दिलों के  आते  हैं ज़ुर्म  करने  क़ुबूल फागुन में ।

चॉंदनी  रात भर बिछाती  है बिस्तरों  पर  बबूल फागुन  में
भूले - बिसरे हुए ज़मानों की साफ होती है धूल फागुन में । "
दानेश्वर शर्मा छत्तीसगढ के लोकप्रिय गीतकार  हैं । वे अपनी गज़ल के माध्यम से
अपनी बात कुछ इस तरह कहते हैं -
" चाहता कौन क्या व्यर्थ का प्रश्न है ज़िन्दगी खुद की है दूसरों की नहीं
 सिर  उसी का उठा जो झुका है सदा  बंदगी खुद की है दूसरों की नही । " 
संतोष झांझी ने अपनी गज़ल में इंकलाब की बात कही है -
" कुछ  कीजिए अब तो  इंकलाब चाहिए  वर्षो से दबा हुआ सैलाब चाहिए
 जलती हुई मशालें प्रश्नों के हाथ में हर प्रश्न का हमें तो अब ज़वाब चाहिए।"
मुकुन्द कौशल , हिन्दी गज़ल के सशक्त हस्ताक्षर हैं । श्रृंगार के साथ - साथ सामाजिक अव्यवस्था एवम्  आदमी की नीयत पर उनकी कलम खूब चली है -
" जितने भी अफसर होंगे सबके मकान बन जायेंगे
 नीति समायोजन की रखिए प्रावधान बन जायेंगे ।
 लोकतंत्र  की  परम्परा को  मनोनयन खा जाएगा
 लगता है अब लोग स्वयं ही संविधान बन जायेंगे।



शकुन्तला शर्मा , बेटियों की सुरक्षा के प्रति चिंतित हैं । देश में आज नारियों की जो दुर्दशा है , उस पर उनकी क़लम खूब चली है--
" कौम  से कटा  हुआ ये  जी  रहा   है  कौन
 ऑंख  में  ऑंसू  लिए ये  जी  रहा  है  कौन ?

 आज   बहू  - बेटियॉं   रोती    हैं   यहॉं  क्यों
 प्रश्न   उठ  रहा  है  रुलाता   है  मगर  कौन ?

 रोटी   बना  रही  थी  तो   आग   लग   गई
 गगन  में  गूँजता   है  जला  रहा  है   कौन ?

 बेबस को  मार के  भला  तुझे  मिलेगा क्या
 अपने  ही घर में आग ये लगा रहा  है कौन ?

 बेटी को बचा ले ' शकुन ' सिसक रही  है वह
दुनियॉं  में आने  से  उसे  है रोक  रहा  कौन ? "

सुखचैन सिंह भंडारी ने अपनी गज़ल में श्रृँगार का चित्र कुछ इस तरह खींचा है --
" वह स्वप्न सुन्दरी हो करके सपनों का महल सजाती है
 अंग- अंग  को थिरकाती  कोई  गीत प्यार  का  गाती  है ।
 तन भी इसका मन  भी इसका इसके ही सब नाम लिखा
 प्यार क़चहरी के क़ागज़ पर प्यार का नाम  लिखाती  है ।"
आलोक शर्मा , वर्तमान व्यवस्था से , संटुष्ट नहीं हैं । वे कहते हैं --
" धीमी है आग और थोडी सुलगाइए , फिर वेदना के भस्म पर धूनी रमाइए
 घायल हैं शब्द और भटके हुए अर्थ हैं अब मानेगा कौन और किसे मनाइए ।"
सुदेश मोदगिल 'नूर ' की गज़ल गुनगुना कर कुछ कह रही है --

" शामे  तनहाई ने जब भी कभी सताया  है मैनें उस शाम  को तेरी याद से  सजाया है
 तेरी दस्तक से ही बजा है मेरा साज़े दिल मैंने हर गीत तेरी खातिर ही गुनगुनाया है ।"
डा. सलपनाथ यादव ' प्रेम ' अपने छोटे- छोटे शब्दों से , बडी बात कहते हैं --
" गुरुर करना  नहीं आप  ज़िन्दगानी  में  हुज़ुर ज़िन्दगी  ये  तार-तार होती  है
 मैंने खाई है चोटआज़ तक़ ज़माने की मगर दुखदायी समय की ही मार होती है।"

नीता काम्बोज ' शीरी ' की गज़ल , मन को छू लेती है । वे कहती हैं --
" वक्त ही कब मिला कि मॉं की गोद में खेले
 गरीब का बेटा  बडा  हो गया वक्त से पहले  ।
 गम को जज़्ब करना  ताक़त मत  समझ
 रोना  होता  है  अच्छा  जी  भर  के  रो  ले । "
नरेश महाजन  ' निरगुन ' का अँदाज़ कुछ अलग है । कम शब्दों में उन्होंने बहुत कुछ कहा है --
"धरती और आकाश सभी के चॉंदी - सोना अपना- अपना
 जॉंचा परखा  फिर ये जाना  बोझ है ढोना अपना- अपना ।"

हिन्दी गज़ल की इस यात्रा के उपरान्त हम इस पडाव पर पहुंच कर , यह अनुभव कर रहे हैं कि तब अधिकतर , गज़ल, श्रृँगार के क़रीब था , जबकि आज के गज़लकार श्रृँगार के अतिरिक्त , अन्य रसों पर भी अपनी बात कह रहे हैं । हिन्दी गज़ल के हाथों में आज क्रान्ति एवम्  शान्ति की मशाल है ।यह युग मात्र श्रृँगार में डूबकर नहीं जी सकता , यह युग परिवर्तन चाहता है और यह क्रान्ति आज के गज़लों में देखी जा सकती है । एक परिवर्तन मुझे और नज़र आ रहा है , वह ये कि गज़ल के परम्परा- गत , स्वरुप में तनिक बदलाव आया है और हम यह मान कर चलते हैं कि परिवर्तन , प्रकृति की प्रकृति है एवम् प्रगति का परिचायक भी है । हिन्दी गज़ल का भविष्य उज्ज्वल है और वह भटके हुए विश्व को दिशा देने का पुनीत कार्य कर सकती है ।
" देशी  पहनो  देशी  खाओ  अपनी  माटी  के  गुन  गाओ
 पेप्सी  कोकाकोला  छोडो   देशी  शरबत  पर  आ  जाओ ।

 कोलगेट  तो  लूट  रहा  है  नीम  बबूल कान्ति अपनाओ 
 देशी  जूते  पहनो   भाई  बाटा  को  अब   तुरत   भगाओ ।

 साबुन   देशी  शैम्पू   देशी   पहले   अपना   देश   बचाओ
 देश रहेगा तभी तो हम हैं 'शकुन' सभी को यह समझाओ ।"

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग ]

सन्दर्भ - ग्रन्थ
1' गज़ल सप्तक' , सामयिक प्रकाशन, 3543 दरियागंज , नई- दिल्ली -110002
2 ' गज़ल तेरे प्यार की ' , राज पब्लिशिंग हाउस , पूर्व दिल्ली -11003
3 ' गज़ल-- दुष्यन्त के बाद . [भाग -2 ] वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली - 110002
4 ' अगर लौटे कभी मौसम ' श्री प्रकाशन , ए-14 आदर्शनगर , दुर्ग - 491001
5 ' चिराग गज़लों के '  मुकुन्द कौशल, वैभव प्रकाशन, रायपुर [छ ग ]
6 'न्यू रितम्भरा साहित्य मंच ' कुम्हारी , दुर्ग [छ ग ]
7 ' गीत - अगीत ' दानेश्वर शर्मा , वैभव प्रकाशन ,रायपुर [छ ग ]
                                                                                                                

Friday, 24 May 2013

बुध्दम् शरणम् गच्छामि

असत् त्याग सत पथ पर जायें
तम को त्याग ज्योति बिखरायें ।
हम सब मिलकर फिर यह गायें
बुध्दम्     शरणम्    गच्छामि ।

मानव  तन  सार्थक  हो अपना
हम सबका  है  एक  ही  सपना ।
परम पिता  को  हम  पा  जायें
बुध्दम्    शरणम्     गच्छामि ।

पर  - उपकार  हो  जीवन  मेरा
प्रतिदिन हो  फिर नया  सवेरा ।
पावन -  प्रेम  में  सभी  नहायें
बुध्दम्    शरणम्    गच्छामि ।
संघम्     शरणम्    गच्छामि ।
धम्म्म्   शरणम्    गच्छामि ।

             शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]
श्री लंका प्रवास में बुद्ध मंदिर में

Tuesday, 21 May 2013

वैदिक वाङ्मय में जल का महत्त्व

" इदमाप: प्र वहत यत् किं च दुरितं मयि
यद्वाहमभिदुद्रोह यद्वा शेष उतानृतम् | | "
ऋग्वेद 10 . 2 . 8 .

हे जल देवता ! मुझसे जो भी पाप हुआ हो, उसे तुम दूर बहा दो अथवा मुझसे जो भी द्रोह हुआ हो , मेरे किसी कृत्य से किसी को पीड़ा हुई हो अथवा मैंने किसी को गालियाँ दी हों, अथवा असत्य भाषण किया हो , तो वह सब भी दूर बहा दो |

जल में अखण्ड प्रवाह , दया , करुणा , उदारता , परोपकार और शीतलता , ये सभी गुण विद्यमान रहते हैं | मनुष्य कितना भी दुखी क्यों न हो , ठंडे जल से स्नान करते ही वह शान्त हो जाता है | जल ही जीवन है | जल मानव को पुण्य - कर्म करने की प्रेरणा देता है |भारतीय संस्कृति पूजा प्रधान है | यहाँ किसी भी कार्य का प्रारम्भ पूजा से होता है और प्रत्येक कार्य का विसर्जन भी पूजा से ही होता है | पूजा हेतु सर्वप्रथम , पवित्रीकरण की आवश्यकता होती है और पवित्रीकरण के लिए जल की आवश्यकता होती है | इसी प्रकार पूजा का विसर्जन , शान्ति - पाठ से होता है और शान्ति - पाठ में जब मंत्रों का उच्चारण किया जाता है , तो पवित्र जल का अभिसिंचन किया जाता है , इस प्रकार जल के बिना, किसी भी तरह की पूजा सम्भव नहीं है | वैदिक - वांग्मय में जल के महत्त्व को सर्वात्मना स्वीकार किया गया है और जल की गरिमा - महिमा का बखान , श्रुतियों में सर्वत्र किया गया है |

"रूपरसस्पर्शवत्य आपोद्रवा: स्निग्धा: | | २ | | "

वैशेषिक दर्शन , द्वितीय अध्याय, प्र.आ. जल तत्व में रूप , रस और स्पर्श , इन तीन गुणों का समावेश है | जल, स्निग्ध होने के साथ - साथ प्रवाहित भी होता है | प्रगट स्वरूप होने के कारण जल रूपवान भी है | जल को मुख में डालने पर , शीतल , गर्म , खारा एवं मधुर आदि का , रसास्वादन होने से, यह रस है | जल का स्पर्श करने पर , उसके शीत और उष्ण होने का पता चलता है इसलिए जल, स्पर्श गुण से सम्पन्न है और अग्नि तथा वायु के गुणों का सम्मिश्रण भी है | जल का उपयोग चिकित्सा के लिए भी किया जाता रहा है , जैसा कि " यजुर्वेद " में कहा गया है -

" युष्माSइन्द्रोSवृणीत वृत्रतूर्य्ये यूयमिन्द्र्मवृणीध्वं
वृत्रतूर्य्ये प्रोक्षिता स्थ | अग्नये त्वा जुष्टं
प्रोक्षाम्यग्नीषोमाभ्यां त्वा जुष्टं प्रोक्षामि |
दैव्याय कर्मणे शुन्धध्वं देवयज्यायै यद्वोSशुध्दा:
पराजघ्नुरिदं वस्तच्छु न्धामि | | १ ३ | |"

यजुर्वेद प्रथम अध्याय जैसे यह सूर्यलोक , मेघ के वध के लिए , जल को स्वीकार करता है , जैसे जल , वायु को स्वीकार करते हैं , वैसे ही हे मनुष्यों ! तुम लोग उन जल औषधि - रसों को शुद्ध करने के लिए , मेघ के शीघ्र - वेग में , लौकिक पदार्थों का अभिसिंचन करने वाले , जल को स्वीकार करो और जैसे वे जल शुद्ध होते हैं , वैसे ही तुम भी शुद्ध हो जाओ |

परमेश्वर ने सूर्य एवं अग्नि की रचना इसलिए की, कि वे सभी पदार्थों में प्रवेश कर उनके रस एवं जल को तितर - बितर कर दें ताकि वह पुन: वायुमंडल में जाकर और वर्षा के रूप में फिर धरती पर आ कर सबको शुचिता और सुख प्रदान कर सके |

"आपोSअस्मान् मातरः शुन्धयन्तु घृतेन नो घृतप्व: पुनन्तु ।
विश्व हि रिप्रं प्रवहन्ति देवीरुदिदाभ्य: शुचिरा पूतSएमि |
दीक्षातपसोस्तनूरसि तां त्वा शिवा शग्मां परिदधे भद्रं वर्णम पुष्यन् ।"
।। यजुर्वेद, ४ , २ ।।

मनुष्य को चाहिए कि जो सब सुखों को देने वाला , प्राणों को धारण करने वाला तथा माता के समान , पालन - पोषण करने वाला जो जल है , उससे शुचिता को प्राप्त कर , जल का शोधन करने के पश्चात ही , उसका उपयोग करना चाहिए , जिससे देह को सुंदर वर्ण , रोग - मुक्त देह प्राप्त कर , अनवरत उपक्रम सहित , धार्मिक अनुष्ठान करते हुए , अपने पुरुषार्थ से आनंद की प्राप्ति हो सके ।

वैदिक ऋषियों ने वैज्ञानिकों की तरह जल एवं वायु को प्रदूषण - मुक्त करने की बात कही है । यजुर्वेद में उन्होंने यह परामर्श भी दिया है कि हम वर्षा - जल को भी , किस प्रकार औषधीय गुणों से परिपूर्ण कर सकते हैं ।

" अपो देवीरुपसृज मधुमतीरयक्ष्मार्य प्रजाभ्य: ।
तासामास्थानादुज्जिहतामोषधय: सुपिप्पला: । । "
यजुर्वेद / ११ / ३८ /

राजा के पास दो तरह के वैद्य होना चाहिए । एक वैद्य , सुगन्धित पदार्थों के होम से , वायु , वर्षा - जल एवं औषधियों को शुद्ध करे । दूसरा श्रेष्ठ विद्वान् , वैद्य बनकर , प्राणियों को रोग -रहित रखे , " सर्वे भवन्तु सुखिन:" हमारा आदर्श है और इस आदर्श के निर्वाह के लिए इन दोनों दायित्वों का निर्वाह अनिवार्य है ।

वेद में मानव जीवन को ' कृषि - जीवन ' कहा गया है और इसीलिए , जलश्रोतों से हमारा रागात्मक सम्बन्ध रहा है । नदियों को हमने , देवी - स्वरूपा , माता की संज्ञा से अभिहित किया है ।' ऋग्वेद ' की इस ऋचा में ' सरस्वती ' नदी की महिमा गाई गई है -

" अम्बितमे नदीतमे देवितमे सरस्वति ।
अप्रशस्ता इव स्मसि प्रशस्तिमंब नस्कृधि ।। "
ऋग्वेद / २ / ८ / १४ /

हे सर्वोत्तम माते सरस्वती ! तू सर्वोत्तम नदी के समान है । जिन नदियों का प्रवाह प्रकट है , वे गंगा - यमुना जैसी , श्रेष्ठ नदियाँ हैं , परन्तु तेरा प्रवाह गुप्त है , इसलिए तू श्रेष्ठ्तम है । तू सभी देवताओं में श्रेष्ठ , आलोक प्रदाता है । हमारा जीवन अप्रशस्त जैसा बन गया है । हे माता ! तू उसे प्रशस्त कर । हम उपेक्षित हैं , निन्दित हैं । हे माता ! तू हमारा पथ प्रशस्त कर ।

" यस्यां समुद्र उत सिन्धुरापो यस्यामन्नं कृष्टय: संबभूवु:।
यस्यामिदं जिन्वति प्राणदेजत् सा नो भूमि: पूर्व पेये दधातु ।। "
अथर्ववेद / द्वादश - काण्डम् / ३ /

सागर ,नदी , कुआँ और वर्षा का जल तथा कृषि कार्य आदि से , जो मनुष्य , नाव , जहाज कला - यंत्र आदि का , विधेयात्मक प्रयोग करता है , वह सबको आनन्द प्रदान करता है । ऐसा व्यक्ति स्वत: भी श्रेष्ठ पद को प्राप्त करता है ।

"शं त आपो हैमवती: शमु ते सन्तूत्स्या: ।
शं ते सनिष्पदा आप: शमु ते सन्तु वर्ष्या:।। "
अथर्ववेद/ एकोनविंश काण्डम् / १ /

मनुष्य को चाहिए कि वह वर्षा , कुऑ ,नदी और सागर के जल को , अपने खान-पान , खेती और शिल्प- कला आदि के लिए उपयोग करे एवम् अपने जीवन को सम्पूर्ण बनाए और चारों पुरुषार्थों को प्राप्त करे ।

"अनभ्रय: खनमाना विप्रा गम्भीरे अंपस: ।"
भिषग्भ्यो भिषक्तरा आपो अच्छा वदामसि ।।"
अथर्ववेद / एकोनविंश काण्डम् / 3 /
विद्वान् ,जिज्ञासु , वैद आदि तपस्वी साधक , अनेक तरह के रोगों में , जल के प्रयोग के द्वारा , जल के अनन्त गुणों की आपस में व्याख्या करें और समाज के हित में उसका भरपूर उपयोग करें ।

वैदिक ऋषियों का जीवन एक प्रयोग- शाला थी । उन्होंने चिन्तन, मनन और निदिध्यासन से जो उपलब्धि हासिल की , उसे जन- कल्याण हेतु समर्पित कर दिया।

"अपामह दिव्यानामपां स्त्रोतस्यानाम् ।
अपामह प्रणेजनेSश्वा भवथ वाजिन: ॥"
अथर्ववेद / एकोनविंश / काण्डम् / 4 /

जल - चिकित्सा बहुत ही प्रभावी चिकित्सा पद्धति है , समस्त रोगों का निदान इससे सम्भव है। मनुष्य को चाहिये कि वह सागर , वर्षा , नदी , सरोवर आदि के जल को आवश्यकतानुसार चिकित्सा मे उपयोग कर के खेती के संसाधन की तरह , जल का प्रयोग करके , निरोग. वेगवान , प्रखर , एवम् बलशाली बने और समाज के हित में अपनी प्रतिभा एवम् अपने बल का समुचित उपयोग कर सके ।

"ता अप: शिवा अपोSय मं करणीरप: ।
यथैव तप्यते मयस्तास्त आ दत्त भेषजी:।।"
अथर्ववेद / एकोनविंश / काण्डम् / 5 /

जल की महत्ता के विषय में , मैं इतना ही कहना चाहती हूँ कि " जल है तो कल है " इस बात को हमारे पूर्वज , भली - भांति जानते थे और यही कारण है कि उन्होने, जल की महिमा का बखान , वेद- वांग्मय एवम् सभी धर्म- ग्रंथों में किया है । हमें जल बचाने का उपक्रम करना चाहिये । जल के महत्व को समझ कर , सावधानी - पूर्वक उसका उपयोग करना चाहिये ताकि हम अपनी भावी पीढी के लिए जल बचा कर रखें , जैसे हमारे पूर्वज हमारे लिए , जल का विशाल भंडार छोड कर गए हैं।

अपनी कविता की कुछ पंक्तियों के साथ मैं इस आलेख का समापन करती हूँ ।

जल  है  जीवन, जीवन  है  जल रे मानव मुझको पहचान
कर  मेरा उपयोग  न  अपव्यय जिससे  हो मेरा अपमान।
रख  मेरे   प्रति   देवभाव   मैं   देता  हूँ  सुखमय   जीवन
रस  बन बहता नर तन में सुख-दुख  में बनता नीर नयन ।
मैं  सबको  निर्मल करता  पर दूषित करता है  मुझे मनुज
मुझसे  ही  उसका  जीवन  है नहीं  समझता बात सहज।
यदि  मेरे शुचि  शीतल जल  का मोल न मानव समझेगा
बिजली  होगी  बंद  धरा  पर हाथ  को हाथ  न सूझेगा ।

सन्दर्भ ग्रंथ

1 वेदामृत - विनोवा
2 यजुर्वेद - दयानंद सरस्वती
3 अथर्ववेद -क्षेमकरण दास त्रिवेदी
4 वैशेषिक दर्शन - आचार्य श्रीराम शर्मा

Monday, 20 May 2013

सबकी यात्रा अपनी - अपनी

               
सबकी यात्रा अपनी - अपनी सबकी मन्जिल अपनी- अपनी
जैसी  कथनी  जैसी करनी  किस्मत सबकी  अपनी- अपनी ।

खेती  किसान करता  है जैसे सबकी  बोनी  अपनी - अपनी
पूजा की थाली  एक भले हो  भाव- भंगिमा अपनी - अपनी ।

गंगा- जल तो एक है  मगर  ग्रहण- प्रक्रिया अपनी - अपनी
'शकुन'  हंसी बट  जाती लेकिन पीडा सबकी अपनी अपनी ।

                                        शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]

Thursday, 9 May 2013

मोबाइल

'हलो ... हलो ... हलो ... हलो ...' हमारे पड़ोसी जैन साहब ज़ोर - ज़ोर से चिल्ला रहे थे | पूरा
मुहल्ला सुन रहा था | आखिर में खिसिया - खिसिया कर , तार - सप्तक में कह रहे थे ' हलो
हल्लो ...  हल्लो ... हल्लो ... ' और फिर  मोबाइल को , ज़ोर से जमीन पर पटक कर बोले -
'चैन हराम कर रखा है इसने | जब देखो तब ट्रिंग - ट्रिंग बजने लगता है | समय का ध्यान
ही नहीं है | इंसान क्या नहाएगा - खाएगा नहीं ? मौका देख - देख कर बजता है | मोबाइल
नाम रखा है अपना , पर मोबाइल दूसरों को बना कर रखा है | '

मैं अपने घर के बालकनी पर खड़ी थी , उनकी बातें सुन रही थी और मुझे हँसी भी बहुत आ
रही थी | मेरे मोबाइल को मेरा हँसना बिल्कुल अच्छा नहीं लगा | वह बजने लगा , मानो कह
रहा हो - 'इधर आ , मैं तुझे बताता हूँ | ' मैंने डरते - डरते  मोबाइल उठाया | मेरे मोबाइल ने
मुझे निर्देश दिया - ' दुनियाँ भर को पढ़ाती फ़िरती  है | क्या जानती है तू ? चल मोबाइल में
प्रवचन सुन | ' उसने कुछ नंबर बताया , जिसे मैं तुरंत भूल गई | मैं अपने मोबाइल को लैंड-
लाइन  की  तरह  यूज  करती  हूँ , कुछ  नहीं जानती | आपको सच बताऊँ ? मैं मोबाइल से
 डरती हूँ | मोबाइल बॉस जैसा  लगता है | पता नहीं किस समय बज जाए और  क्या निर्देश
 मिल जाए | मोबाइल की महिमा  अपरम्पार है | ये जो न करे कम है | मेरा  मोबाइल फ़िर
बज रहा है -' हाँ , हैलो ! सुनिए बहन जी ! आपके यहाँ लाइट है क्या ? '

'हाँ जी , है | '
'और पानी ?'
'हाँ जी ! पानी भी है | '
'हाय कितना अच्छा है न ! हमारे शिमले में तो पानी जम गया है , आप कहाँ पर रहती हैं ?'
'जी ! मैं पद्मनाभपुर , दुर्ग में रहती हूँ | '
'बहन जी ! ये कौन सा स्टेट है जी ?'
'जी ये छत्तीसगढ़ है | '
'अच्छा - अच्छा वही छत्तीसगढ़ जहाँ आदिवासी रहते हैं ?'
'जी हाँ आपने ठीक पहचाना , वही छत्तीसगढ़ है | '
'क्या आप भी आदिवासी हो ?'
'जी नहीं ! मेरे ऐसे भाग्य कहाँ ?'
'बहन जी ! आप तो मज़ाक करते हो | '

मेरा मोबाइल गर्म हो चुका था और मेरा कान जल रहा था | लगता है कान और माथा का
कोई भीतरी सम्बन्ध है क्योंकि मेरा माथा भी गरम हो गया था | मोबाइल थककर लस्त
पड़ गया था , भूखा था , चुप हो गया | मैंने उसे भोजन करने के लिए छोड़ दिया , चार्जिंग
में डाल दिया | जैसे ही पेट में कुछ गया , वह छाती पर मूँग द्लने के लिए फिर  तैयार हो
गया | मोबाइल  बजने लगा | मैं दौड़कर , उसकी सेवा में पहुँची |  ईश्वर का  लाख - लाख
शुक्र कि इस बार फ़ोन मेरी फ्रेंड  सरला शर्मा  का था | सरला  ने कहा  - 'का करत  हस रे
शकुन ! सुन न ! मुनगा - बरी के साग  रांधे हौं अऊ  चीला  बनाय  हौं , झट के आ , दुनों 
झन खाबो | '

बात  करके  अभी  मोबाइल रखने ही  वाली  थी कि वह  फ़िर बजने लगा | मैंने  उठाया -
'हैलो ।' दूसरी ओर से मुझे किसी ने चमकाया - 'क्या समझते हो अपने आपको ? सुनील
से बात कराओ | रांग नंबर बोलकर फ़ोन काटना नहीं , समझे न !' मैं काटो तो खून नहीं
अब कहाँ से सुनील लाऊँ ? मैं रुआँसी होकर बोली - 'देखो भैया! यह सुनील का मोबाइल
नहीं है , यहाँ कोई सुनील नहीं रहता | '

पता  नहीं  क्या बोलेगा , इस  डर से मैंने  मोबाइल  को टेबल  पर रख  दिया | अब  मैंने
निश्चय  कर लिया  कि  मैं अपने  पास  मोबाइल  नहीं  रखूँगी | मैं  परेशान हो चुकी थी |
मोबाइल फ़िर बजने लगा | मैं आपे से बाहर हो चुकी थी | मैं मोबाइल  उठाई  और  मैंने
चिल्ला - चिल्ला कर कहा - 'देखिए भाई साहब ! आप जो भी हों , मैं  आपसे कोई  बात
नहीं करना चाहती और यदि फ़िर आपने मुझसे बात करने की कोशिश की तो मैं पुलिस
में कम्प्लेन कर दूँगी , समझे आप ? '

'क्या हो गया बेटा ! किस पर बिफर रही हो ?' मैं चौंकी , यह तो मेरे चाचा जी की आवाज
है | ' चाचा जी कह रहे थे - 'हमने सोचा कि शकुन को सरप्राइज दिया जाए | देख बेटा! तू
नीचे तो देख | ' मैंने बालकनी से देखा , चाचा - चाची मुस्कुराते हुए  गाड़ी से नीचे  उतर
रहे थे और मैं शर्म से पानी - पानी हो रही थी |

                                               शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]