Friday 8 November 2013

सूक्त - 129

[ऋषि- प्रजापति परमेष्ठी । देवता- भाववृत्त । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10240
नासदासीन्नो  सदासीत्तदानीं  नासीद्रजो  नो व्योमा परो यत् ।
किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नम्भः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥1॥

प्रलय  काल  में  सृष्टि  नहीं  थी  न  ही  जग था  न अभाव था ।
भू- नभ के सिवा कुछ भी न था पञ्च-भूत का भी अभाव था॥1॥

10241
न   मृत्युरासीदमृतं  न   तर्हि  न  रात्र्या   अह्न  आसीत्प्रकेतः ।
आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माध्दान्यत्र  परः किं चनास ॥2॥

न  अमरत्व  और  न  मृत्यु  दिवा - रात्रि  का  ज्ञान  नहीं  था ।
अपर  कोई  अस्तित्व  नहीं  था  एक-मात्र  परमेश्वर ही था ॥2॥

10242
तम   आसीत्तमसा   गूळहमग्रेSप्रकेतं  सलिलं  सर्वमा  इदम् ।
तुच्छ्येनाभ्वपिहितं    यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम् ॥3॥

अज्ञान  तमस  से भरा हुआ था दसों-दिशा अव्यक्त सदृश था ।
स्वधा  प्रकृति  से तब प्रभु प्रकटे विशेषण नेति-नेति ही था॥3॥

10243
कामस्तदग्रे   समवर्तताधि   मनसो   रेतः  प्रथमं   यदासीत्।
सतो बन्धुमसति निरविन्दन्ह्रदि प्रतीष्या  कवयो मनीषा ॥4॥

जग -रचना का विचार आया मन में ही बीज का हुआ वपन ।
निज-प्रज्ञा से ज्ञानी- जन ने प्रकट-तत्व का किया निरुपण॥4॥

10244
तिरश्चीनो  विततो  रश्मिरेषामधः  स्विदासी3दुपरि  स्विदासी3त् ।
रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयति: परस्तात्॥5॥

प्रश्न - रश्मि  फिर  हुई  तरंगित  कर्मों  के  फल  सम्मुख  आए ।
बध्द- जीव  भी  लगे  दीखने  और मुक्त - जीव  भी  सामने आए॥5॥

10245
को  श्रध्दा वेद  क  इह  प्र  वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।
अर्वाग्देवा   अस्य   विसर्जनेनाथा   को   वेद  यत  आबभूव ॥6॥

अनादि- सृष्टि है जब से प्रभु हैं अनादि -सृष्टि सचमुच अपार है ।
जग - रचना का झंझट छोडें आत्म - शुध्दि  ही यहॉ सार है ॥6॥

10246
इयं   विसृष्टिर्यत   आबभूव   यदि   वा   दधे   यदि   वा   न ।
यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥7॥

सृष्टि  बनी  कैसे  वह  जाने  किसने  रचना  की  क्या  जानें ।
मन- हेतु अगोचर है रचना अनुमान वृथा यदि मन की मानें॥7॥   
    

2 comments:

  1. 129 से लेकर 135 तक की सुक्ति जीवन का संदेश देती

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  2. अर्थबोध बहुत ही सहज हो गया है अनुवाद में

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