Monday 16 December 2013

सूक्त - 89

[ऋषि-रेणु वैश्वामित्र । देवता- इन्द्र-सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

9781
इन्द्रं स्तवा नृतमं यस्य मह्ना विबबाधे रोचना वि ज्मो अन्तान् ।
आ यः पप्रौ चर्षणीधृद्वरोभिः प्र सिन्धुभ्यो रिरिचानो महित्वा॥1॥

परमेश्वर की  महिमा  अद्भुत  वे  पृथ्वी - सीमा  से  परे  हैं ।
सूर्य-चन्द्र अभिभूत हैं जिनसे जो सागर से बहुत बडे हैं॥1॥

9782
स    सूर्यः     पर्युरू     वरांस्येन्द्रो     ववृत्याद्रथ्येव      चक्रा ।
अतिष्ठन्तमपस्यं1न सर्गं कृष्णा तमांसि त्विष्या जघान॥॥2॥

परमेश्वर  सबका  प्रेरक  है  सृष्टि - चक्र  उससे  चलता  है ।
ज्ञान - आलोक वही देता है अज्ञान - तमस वह ही हरता है॥2॥

9783
समानमस्मा अनपावृदर्च क्ष्मया दिवो असमं ब्रह्म नव्यम्।
वि यः पृष्ठेव जनिमान्यर्य इन्द्रश्चिकाय न सखायमीषे।॥3॥

अवनि - अम्बर  में जो अनुपम हो ऐसा रचो प्रेम का गान ।
पर-हित  का  जो  अभिलाषी  हो करे सुरक्षा का आह्वान॥3॥

9784
इन्द्राय  गिरो  अनिशितसर्गा  अपः  प्रेरयं  सगरस्य बुध्नात् ।
यो अक्षेणेव चक्रिया शचीभिर्विष्वक्तस्तम्भ पृथिवीमुत द्याम्॥4॥

वर्षा की वह जल - धारा भी है उस वरद - हस्त की महिमा ।
वह  ही सबकी रक्षा करता धरा- गगन की गाता गरिमा॥4॥

9785
आपान्तमन्युस्तृपलप्रभर्मा धुनिः शिमीवाञ्छरुमॉं ऋजीषी।
सोमो विश्वान्यतसा वनानि नार्वाग्रिन्दं प्रतिमानानि देभुः॥5॥

तेजस्वी  हैं  वे  परमेश्वर  कर्म - योग  का  पाठ - पढाते ।
संकल्प - पूर्ण वे ही करते हैं वे ही रिपु - दल से हमें बचाते॥5॥

9786
न यस्य द्यावापृथिवी न धन्व नान्तरिक्षं नाद्रयः सोमो अक्षा:।
यदस्य मन्युरधिनीयमानः शृणाति वीळु रुजति स्थिराणि॥6॥

स्थानापन्न नहीं है कोई उसका मूल्याञ्कन हो नहीं सकता ।
इसीलिए तो श्रुति-दर्शन सब उसको नेति-नेति है कहता ॥6॥

9787
जघान  वृत्रं  स्वधितिर्वनेव  रुरोज  पुरो  अरदन्न  सिन्धून् ।
बिभेद गिरिं नवमिन्न कुम्भमा गा इन्द्रो अकृणुत स्वयुग्भिः॥7॥

दुष्ट - दमन अति-आवश्यक है सज्जन का पालन करते हैं ।
परमेश्वर  सबके  रक्षक  हैं दुष्टों को दण्ड दिया करते  हैं ॥7॥

9788
त्वं  ह  त्यदृणया  इन्द्र  धीरोSसिर्न  पर्व  वृजिना  शृणासि ।
प्र ये मित्रस्य वरुणस्य धाम युजं न जना मिनन्ति मित्रम्॥8॥

परमेश्वर   प्राञ्जल   प्रकाश   हैं  सबको  रखते  दुख  से  दूर ।
सतत  सुरक्षा  सबको  देते  करते  हैं  प्रेम  सदा  भर - पूर ॥8॥

9789
प्र ये मित्रं प्रार्यमणं दुरेवा: प्र सङ्गिरः प्र वरुणं मिनन्ति ।
न्य1मित्रेषु वधमिन्द्र तुम्नं वृषन्वृषानमरुषं शिशीहि॥9॥

दुष्कर्मी जब पीडित करते सज्जन को व्याकुल करते हैं ।
सर्व-समर्थ वही परमेश्वर सज्जन का सब दुख हरते हैं ॥9॥

9790
इन्द्रो  दिव  इन्द्र ईशे पृथिव्या इन्द्रो अपामिन्द्र  इत्पर्वतानाम्।
इन्द्रो वृधामिन्द्र इन्मेधिराणामिन्द्रःक्षेमे योगे हव्य इन्द्रः॥10॥

सम्पूर्ण जगत का वह है स्वामी वह ज्ञानी-जन का पोषक है ।
अनुसंधान हेतु प्रेरित करता है वही क्रान्ति का उदघोषक है॥10॥

9791
प्राक्तुभ्य  इन्द्रः  प्र  वृधो  अहभ्यः  प्रान्तरिक्षात्प्र  समुद्रस्य धासेः।
प्र वातस्य प्रथसः प्र ज्मो अन्तात्प्र सिन्धुभ्यो रिरिचे प्र क्षितिभ्यः॥11॥

नदियॉं सागर उसकी महिमा पञ्चतत्व  है उसकी  देन ।
वह प्रभु तो कल्पनातीत है सुख से जीते हैं दिन रैन॥11॥

9792
प्र  शोशुचत्या  उषसो  न  केतुरसिन्वा  ते  वर्ततामिन्द्र  हेतिः।
अश्मेव विध्य दिव आ सृजानसस्तपिष्ठेन हेषसा द्रोघमित्रान्॥12॥

हे  प्रभु  रिपु  से  हमें  बचाना तुम ही सबकी रक्षा करना ।
भूल से भी कोई भूल हो जाए तो प्रभु हमें क्षमा करना॥12॥

9793
अन्वह      मासा      अन्विद्वनान्यन्वोषधीरनु     पर्वतासः ।
अन्विन्द्रं रोदसी वावशाने अन्वापो अजिहत जजायमानम्॥13॥

सूर्यदेव  सुख  के  स्वामी  हैं  वन - औषधि  देते  रहते  हैं ।
आलोक-पुञ्ज वे तमस मिटाते जल-वर्षा वे ही करते हैं॥13॥

9794
कर्हि स्वित्सा त इन्द्र चेत्यासदघस्य यद्भिनदो रक्ष एषत् ।
मित्रक्रुवो यच्छसने न गावः पृथिव्या आपृगमुया शयन्ते॥14॥

अस्त्र - शस्त्र का सञ्चय कर लो तभी सुरक्षित रह पाओगे ।
रहो अहिंसक पर बलशाली अन्यथा भीरु कहलाओगे॥14॥

9795
शत्रूयन्तो अभि ये नस्ततस्त्रे  महि व्राधन्त ओगणास इन्द्र।
अन्धेनामित्रास्तमसा सचन्तां सुज्योतिषो अक्तवस्तॉं अभि ष्युः॥15॥

सज्जन के प्रति विनय-शील और दुष्ट हेतु बन जाओ काल ।
रिपु-दल पर तुम अँकुश रखो दमके सदा शौर्य से भाल॥15॥

9796
पुरूणि हि त्वा सवना जनानां ब्रह्माणि मन्दन्गृणतामृषीणाम्।
इमामाघोषन्नवसा सहूतिं तिरो विश्वॉं अर्चतो याह्यर्वाङ् ॥16॥

संघ - शक्ति  में  अद्भुत  बल  है  रहे  सतत  हाथों  में  हाथ ।
हे  प्रभु सदा सुरक्षा देना हम सुख - दुख बॉंटें साथ-साथ ॥16॥

9797
एवा ते वयमिन्द्र भुञ्जतीनां विद्याम सुमतीनां नवानाम् ।
विद्याम व वस्तोरवसा गृणन्तो विश्वामित्रा उत त इन्द्र नूनम्॥17॥

करो अनुग्रह हम पर भगवन हम सत-पथ पर ही जायें ।
हम ऋषि-मुनियों के वंशज हैं वेद-ऋचा सस्वर गायें॥17॥

9798
शुनं   हुवेम   मघवानमिन्द्रमस्मिन्भरे   नृतमं   वाजसातौ ।
शृण्वन्तमुग्रमूतये समत्सु घ्नन्तं वृत्राणि सञ्जितं धनानाम्॥18॥

रण में भी मन-मति पावन हो हम विजय पताका फहरायें ।
सदा अन्न धन देते रहना निरन्तर निज दायित्व निभायें॥18॥         
                  

2 comments:

  1. आश्चर्य होता है हजारो साल पहले के उदात्त चिंतन देखकर

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  2. स्थानापन्न नहीं है कोई उसका मूल्याञ्कन हो नहीं सकता ।
    इसीलिए तो श्रुति-दर्शन सब उसको नेति-नेति है कहता ॥6॥
    हरि अनंत हरि कथा अनंता

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