Thursday 27 March 2014

सूक्त - 101

[ऋषि- अन्धीगु श्यावाश्वि । देवता- पवमान सोम । छन्द-अनुष्टुप्-गायत्री ।]

8645
पुरोजिती  वो अन्धसः  सुताय  मादयित्नवे ।
अप श्वानं श्नथिष्टन सखायो दीर्घजिह्वय्म्॥1॥

शब्द-ब्रह्म है वह परमात्मा वही  पूज्य  है वह प्रणम्य  है ।
परमात्मा को कवि कहते हैं पूजनीय वह ही वरेण्य है॥1॥

8646
यो धारया पावकया परिप्रस्यन्दते सुतः ।
इन्दुरश्वो न कृत्व्यः ॥2॥

अति समर्थ है वह परमात्मा सबको पावन  वही  बनाता ।
सर्व-व्याप्त है उसकी सत्ता घट-घट में वही नज़र आता॥2॥

8647
तं दुरोषमभी नरः सोमं विश्वाच्या धिया ।
यज्ञं हिन्वन्त्यद्रिभिः ॥3॥

उस पावन प्रभु परमात्मा  का चित्त - वृत्ति  से होता बोध ।
वेदों में वे यज्ञ - देव हैं इस पर  भी हो जाए परि- शोध॥3॥

8648
सुतासो  मधुमत्तमा: सोमा  इन्द्राय  मन्दिनः ।
पवित्रवन्तो अक्षरन्देवान्गच्छन्तु वो मदा:॥4॥

प्रभु का सौम्य भाव हम पा लें तो सार्थक  हो  जाए जीवन ।
धर्म आचरण में आ जाए तो पुलकित हो जाए तन-मन॥4॥

8649
इन्दुरिन्द्राय   पवत   इति   देवासो   अब्रुवन् ।
वाचस्पतिर्मखस्यते विश्वस्येशान ओजसा॥5॥

हे  देदीप्यमान  परमात्मा  कर्म - योग  का  पाठ - पढाओ ।
हम भी सान्निध्य तुम्हारा पायें ऐसी कोई युक्ति बताओ॥5॥

8650
सहस्त्रधारः  पवते   समुद्रो   वाचमीङ्खयः ।
सोमः पती रयीणां सखेन्द्रस्य दिवे-दिवे॥6॥

अनन्त-बलों  का  वह  स्वामी  है वह आनन्द का सागर है ।
वह  ही वाणी का वैभव है अमृत से भरा हुआ गागर  है ॥6॥

8651
अयं  पूषा  रयिर्भगः सोमः पुनानो अर्षति ।
पतिर्विश्वस्य भूमनो व्यख्यद्रोदसी उभे॥7॥

हे  परम - मित्र  हे  परमेश्वर तुम यश - वैभव का देना दान ।
पावन हमें बनाना प्रभु - वर  दीन - बन्धु  मेरे भगवान ॥7॥

8652
समु  प्रिया  अनूषत  गावो  मदाय  घृष्वयः ।
सोमासः कृण्वते पथः पवमानास इन्दवः॥8॥

जो  इन्द्रिय  प्रभु  से  प्रेरित  है  वह  ही पाती  है परमानन्द ।
परमात्मा का पद पावन है गुण-निधान हैं आनंद- कन्द॥8॥

8653
य ओजिष्ठस्तमा  भर पवमान श्रवाय्यम् ।
यः पञ्च चर्षणीरभि रयिं येन वनामहै॥9॥

वह   परमेश्वर  ओजस्वी   है   है   श्रवणीय   और   मननीय ।
पञ्च - प्राण संस्कारित करते यश - वैभव देना नमनीय ॥9॥

8654
सोमा:  पवन्त  इन्दवोSस्मभ्यं गातुवित्तमा: ।
मित्रा: सुवाना अरेपसः स्वाध्यः स्वर्विदः॥10॥

परमेश्वर गुण के निधान हैं कण - कण  में  वह  विद्यमान  हैं ।
जो भी पावन आत्मायें हैं प्रभु के निकट उदीय- मान हैं ॥10॥

8655
सुष्वाणासो  व्यद्रिभिश्चिताना  गोरधि त्वचि ।
इषमस्मभ्यमभितः समस्वरन् वसुविदः॥11॥

सुमिरन से  सुख - वैभव  बढता  योग  से  मिलता ब्रह्मानन्द ।
अपने  हाथों  में  सब कुछ  है पायें दुख या फिर आनन्द ॥11॥

8656
एते  पूता  विपश्चितः  सोमासो  दध्याशिरः ।
सूर्यासो न दर्शतासो जिगत्नवो ध्रुवा घृते॥12॥

जो  जन  अन्वेषण  करते  हैं  अपने  मन  की  जो  सुनते   हैं ।
उनके मुख की आभा अद्भुत प्रभु की झलक लिए फिरते हैं॥12॥

8657
प्र सुन्वानस्यान्धसो मर्तो  न  वृत तद्वचः ।
अप श्वानमराधसं हता मखं न भृगवः॥13॥

प्रभु  उपासना  करने  वाले  सत् - संगति  का   रखें  ध्यान ।
सोच-समझ कर चलें राह पर छू न ले उनको अभिमान॥13॥

8658
आ जामिरत्के  अव्यत  भुजे  न  पुत्र  ओण्योः ।
सरज्जारो न योषणां वरो न योनिमासदम्॥14॥

श्रुतियॉ सदाचार सिखलातीं शुभ- चिन्तन है अपना ध्येय ।
प्रभु-सान्निध्य हमें मिल जाए यही प्रेय है यही है श्रेय॥14॥

8659
स  वीरो  दक्षसाधनो  वि  यस्तस्तम्भ  रोदसी।
हरिः पवित्रे अव्यत वेधा न योनिमासदम्॥15॥

सभी  गुणों  का  वह  मालिक है सभी शक्तियों का स्वामी ।
वह अवगुण को  हर लेता  है अति अद्भुत अन्तर्यामी ॥15॥

8660
अव्यो  वारेभिः पवते  सोमो  गव्ये  अधि  त्वचि ।
कनिक्रदद्वृषा हरिरिन्द्रस्याभ्येति निष्कृतम्॥16॥

कर्म-योग का साधक प्रभु के अत्यन्त निकट ही रहता है ।
प्रभु  सबको  आनन्द  लुटाता  सबकी  रक्षा करता है ॥16॥ 
   

4 comments:

  1. प्रभु उपासना करने वाले सत् - संगति का रखें ध्यान ।
    सोच-समझ कर चलें राह पर छू न ले उनको अभिमान॥13॥

    अभिमान ही तो पर्दा है..सुंदर बोध..

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  2. सकल भाग्य का स्रोतस्थल वह।

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  3. कर्म-योग का साधक प्रभु के अत्यन्त निकट ही रहता है ।
    प्रभु सबको आनन्द लुटाता सबकी रक्षा करता है ॥16॥
    ...सच में कर्म से बड़ा कुछ नहीं जग में प्रभु को प्राप्त करने की राह में...बहुत ही बोधगम्य और अद्भुत प्रस्तुति...आभार

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  4. सुंदर भावानुवाद...

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