Wednesday 23 April 2014

सूक्त - 73

[ऋषि- पवित्र आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- जगती ।]

8349
स्त्रक्वे द्रप्सस्य धमतः समस्वरन्नृतस्य योना  समरन्त  नाभयः ।
त्रीन्त्स मूर्घ्नो असुरश्चक्र आरभे सत्यस्य नावः सुकृतमपीपरन्॥1॥

सच्चाई  की  नाव  सुशोभित  कर्म  -  योग  पथ   में   मिलती   है ।
खट् - रागों  से  वही  बचाती  कर्तव्य - कर्म  को  वह चुनती है  ॥1॥

8350
सम्यक सम्यञ्चो महिषा अहेषत सिन्धोरूर्मावधि वेना अवीविपन्।
मधोर्धाराभिर्जनयन्तो अर्कमित्प्रियामिन्द्रस्य तन्वमवीवृधन् ॥2॥

नदी  -  बीच   सुमिरन  करते  हैं  चाहे   जितनी   हो  तेज  -  धार ।
अद्भुत - आस  लिए  अनुरागी  करते  हैं  भव - सागर  को पार ॥2॥

8351
पवित्रवन्तः परि  वाचमासते  पितैषां  प्रत्नो अभि  रक्षति  व्रतम्  ।
महः  समुद्रं  वरुणस्तिरो  दधे  धीरा  इच्छेकुर्धरुणेष्वारभम्  ॥3॥

वेद  -  ऋचायें  आश्रय  देतीं  प्रभु  साधक  की  रक्षा  करते  हैं  । 
कोई  विरला  ही  पार  उतरता  महा - पुरुष  ऐसा  कहते  हैं  ॥3॥

8352
सहस्त्रधारेSव  ते  समस्वरन्दिवो  नाके  मधुजिह्वा  असश्चतः ।
अस्य स्पशो न नि मिषन्ति भूर्णयःपदेपदे पाशिनःसन्ति सेतवः॥4॥

प्रभु - प्रसाद आनन्द- लहर यह इधर-उधर बहती  रहती  है । 
जो परमात्म- परायण होते उस  तक  ऊर्मि  पहुँचती  है ॥4॥

8353
पितुर्मातुरध्या ये समस्वरन्नृचा शोचन्तः संदहन्तो अव्रतान् ।
इन्द्रद्विष्टामप धमन्ति मायया त्वचमसिक्नीं भूमनो दिवस्परि॥5॥

वेद - ऋचायें  राह  दिखातीं  यात्रा  पर  ले - कर  जातीं  हैं । 
जो शिक्षित- दीक्षित हैं उनको स्वयं ध्येय तक पहुँचाती हैं ॥5॥

8354
प्रत्नान्मानादध्या  ये समस्वरञ्छ्लोकयन्त्रासो  रभसस्य  मन्तवः।
अपानक्षासो बधिरा अहासत ऋतस्य पन्थां न तरन्ति दुष्कृतः॥6॥

जो  सत्पथ  पर  ही  चलते  हैं  वे  ही  करते  भव - सागर  पार ।
प्रभु - पूजा   करने   वालों  की  होती   नहीं  कभी  भी  हार  ॥6॥

8355
सहत्रधारे वितते पवित्र आ वाचं  पुनन्ति  कवयो  मनीषिणः ।
रुद्रास एषामिषिरासो अद्रुहःस्पशःस्वञ्चःसुदृशो नृचक्षसः॥7॥

अति  पावन  है  वह  परमेश्वर  जो  करते  हैं  उनका  ध्यान ।
वे ही ज्ञानी  बन  सकते  हैं  बन  सकते  हैं मनुज महान ॥7॥ 

8356
ऋतस्य गोपा न दभाय सुक्रतुस्त्री ष पवित्रा  हृद्य1न्तरा  दधे ।
विद्वान्त्स विश्वा भुवनानि पश्यत्यवाजुष्टान्विध्यति कर्ते अव्रतान्॥8॥ 

परमेश्वर  पर  करो  भरोसा  जो  करते  हैं  उन  पर  विश्वास ।
वे  निर्भय  हो- कर जीते  हैं  प्रभु स्वयं यहीं हैं आस- पास ॥8॥

8357
ऋतस्य तन्तुर्विततः पवित्र आ जिह्वाया अग्रे वरुणस्य मायया ।
धीराश्चित्तत्समिनक्षन्त  आशत्राता  कर्तमव   पदात्यप्रभुः  ॥9॥

कर्म - मार्ग  का  पथिक  सदा  ही अपनी  मञ्जिल को पाता है ।
प्रभु  बैठे  हैं अन्तर्मन  में  चहुँ ओर  सफल  वह हो जाता है ॥9॥    

2 comments:

  1. सत्य ही ईश्वर है...

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  2. श्रद्धा जीवन का फूल है..

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