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Sunday, 7 June 2015

जन्म - जयन्ती के पावन - पर्व पर - देख कबीरा रोया

कबीर , एक ऐसा सहज - सरल व्यक्तित्व है , जो सबके मन में आसानी से जगह बना लेता है । उसकी सादगी पर मर - मिटने को जी चाहता है , वस्तुतः सरलता ही तो साधुता है । कबीर साक्षात् कर्म - योग का ही अवतार है । कहते हैं कि उसने चादर बुनते - बुनते , परमात्मा को पा लिया था -
" पोथी पढि - पढि जग मुआ पण्डित भया न कोय ।
ढाई - आखर प्रेम का पढे सो पण्डित होय  ॥"
आपको यह जान कर सुखद - आश्चर्य होगा कि कबीर ने अपने छोटे - छोटे दोहे के माध्यम से दर्शन की बडी - बडी बातों को कह दिया है -
" ऑखिन की करि कोठरी पुतरी - पलंग बिछाइ ।
पलकन के चिक डारि के पिउ को लेऊँ रिझाइ ॥"
पहली नज़र में यह श्रृँगार दिखता है पर यह भक्त और भगवान के बीच की बात है ।

कबीर ने कर्म - योग को अपना गुरु बनाया और जीवन - भर कर्म - मार्ग पर , न केवल स्वयं चलता रहा अपितु सभी को कर्म - मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित - प्रोत्साहित करता रहा । वह एक ऐसा संत है जिसे सभी ने मन से अपनाया । कबीर का एक - एक दोहा अमर हो गया । उसके दोहे शास्त्रों की बडी - बडी बातों को बडी सहजता से हमें समझा देते हैं -
" बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय ।
जो दिल खोजौं आपना मुझ सा बुरा न कोय ॥"
मानव के मन का अहंकार आध्यात्मिक सुख से वञ्चित कर देता है , परमात्मा से दूर कर देता है , इस बात को समझाने के लिए कबीर ने हमसे कहा -
" जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहिं ।
प्रेम - गली अति सॉकुरी जा में दो न समाहिं ॥"

"मसि कागद छुयो नहीं " कहने वाले उस कबीर ने अपने " बीजक" में ज्ञान - आलोक के एक नए आयाम को छुआ है जिसे देख - कर  बडे - बडे पण्डित भी आश्चर्य - चकित हो जाते हैं । हम दूसरी - कक्षा से कबीर को पढते हुए आ रहे हैं पर यह मन है कि उन्हें पढ - कर यह कभी नहीं अघाता -
" दुख में सुमिरन सब करे सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करय तो दुख काहे - होय ?"
अकेले खाने से क्या नुकसान हो सकता है और बॉट - कर खाने से क्या लाभ हो सकता है , इसे कबीर ने बखूबी समझाया है -
" पानी - बाढय नाव में घर में बाढय - दाम ।
दोनों हाथ उलीचिए यह सज्जन को काम ।"
क्या स्टाइल है उनकी ! यदि सज्जन हो तो प्रमाणित करो अन्यथा समझ लो कि तुम क्या हो !

संतरा , रंगीन होता है पर हम उसे ' ना - रंगी ' कहते हैं , दूध को औंटा - कर जो सार बचता है , उसे हम ' खोया ' कहते हैं । ' गाडी ' अरबी का एक शब्द है , जिसका अर्थ होता है 'स्थिर ' पर हम जो चलती है , उसे गाडी कहते हैं , इन्हीं सब विसंगतियों को देख - कर कबीर रोता है -
" रंगी को नारंगी कहे असल चीज़ को खोया ।
चलती को गाडी कहय  देख - कबीरा रोया ॥"

वैसे तो छत्तीसगढी के प्रथम - कवि , कबीर - दास जी के शिष्य , धरम - दास माने जाते हैं , पर मेरे विचार से , छत्तीसगढी के पहले कवि कबीर ही हैं । अब आप ही बताइए और निर्णय कीजिए , इस दोहे को देखिए -
" मरने से यह जग डरा मेरो - मन आनन्द ।
कब मरिहौं कब भेंटिहौं पूरन - परमानन्द ॥"
कबीर ने परम्परा की तुलना में विवेक को महत्व दिया , इसलिए निश्चित रूप से वे बहुतों की ऑख की किरकिरी रहे होंगे पर वे किसी से डरे नहीं । उनके बारे में कहने का मन करता है - " न भूतो न भविष्यति ।" वे 'काशी' में रहते थे पर अपने अन्तिम - पडाव में वे काशी छोड - कर ,' मगहर' चले गए । ऐसी मान्यता है कि जो काशी में देह त्यागता है , वह सीधे , स्वर्ग - लोक जाता है और जो मगहर में मरता है वह नर्क में जाता है । कबीर ने 'मगहर' में देह त्याग - कर यह सिद्ध कर दिया कि - " मन चंगा तो कठौती में गंगा ।"   

3 comments:

  1. कबीर एक ऐसे कवि थे जिन्हें सभी भाषाएँ अपना समझती हैं. उनके दोहे व्यवहारिक जीवन की विसंगतियों से लेकर गहन आध्यात्म को बहुत सरलता से अभिव्यक्त करते हैं. वे वास्तव में एक जनसाधारण के कवि थे. बहुत सारगर्भित और प्रभावी आलेख ...आभार

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  2. सामान्य से दोहों में गहन अद्यात्म.
    अनपढ कहे जाने वालों में यह प्रतिभा अलौकिक ही काह्लाती है.

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  3. कबीर को समर्पित सुंदर और सार्थक पोस्ट...बधाई !

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