
पर हम ' कान्दी ' भी कह सकते हैं ।वस्तुतः छत्तीसगढी में हम लोग हरी घास को ' कान्दी ' कहते हैं । कान्दी, पहाडी क्षेत्र पर स्थित है और हिमाचल जैसा रमणीक व मनोरम है । कान्दी में हम होटल " सेनानी " में ठहरे हुए थे, हम शीघ्र ही अपने कक्ष में पहुंच गए क्योंकि संध्या सात बजे हमें भारत के अपर- सचिव श्री ए. नटराजन से मिलने जाना था । थोडी ही देर में हम श्री नटराजन के ऑफिस में पहुंच गए । हमने उन्हें कवितायें सुनाई , उन्होंने बडे मन से हमारी कविता सुनीं, कविताओं पर उन्होने टिप्पणी भी की और फिर अपना उद्बोधन दिया । अचानक जरुरी काम से उन्हें बाहर जाना था इसलिए उन्होंने हमें दूसरे दिन , रात्रि भोज पर आमंत्रित किया । हम दूसरे दिन भी वहां गए । वहां कवि - गोष्ठी हुई और धीरे से कवि- गोष्ठी अँत्याक्षरी में तब्दील हो गई । अन्त्याक्षरी में सभी ने भाग लिया श्री नटराजन को आज भी कुछ जरुरी काम था इसलिए विनोद पासी एवम् उनकी पत्नी हमारे साथ थीं । विनोद भइया स्वयम् भी कवि हैं , उन्होंने हमें सुन्दर- सुन्दर कवितायें सुनाईं । बहुत अच्छा लगा ।
कान्दी में हमने एक सिंहली कार्यक्रम भी देखा यह कार्यक्रम " रेडक्रास सोसायटी कान्दी " की ओर से आयोजित किया गया था इसका नाम था " RAGAHALA KANDYAN DANC " इस कार्यक्रम में कलाकार विविध वाद्य - यंत्रों के साथ, विभिन्न मुद्राओं के माध्यम से अपनी सुकुमार भावनाओं को प्रकट कर रहे थे, हम संगीत के उस माधुर्य में खो गए । मुझे बहुत मज़ा आया । दूसरे दिन कान्दी में हमने " बौध्द- विहार " देखा । बुध्द के संदेश को गुनगुनाया, बुध्द की शान्ति को आत्मसात् करने की चेष्टा की । हठात् हमारे मन की बात हमारे होंठों पर आ गई- " बुध्दम् शरणम् गच्छामि। संघम् शरणम् गच्छामि । धम्मम् शरणम् गच्छामि"। बौध्द- विहार के पश्चात् हम ' कान्दी ' के ' पेराडेनिया ' में वनस्पति - उद्यान देखने गए । अद्भुत् उद्यान है । वहॉ के पेड - पौधों को देखने से लगता है , जैसे वे प्रतिदिन प्राणायाम करते हैं, एकदम हरे- भरे और स्वस्थ वीर सेनानी की तरह सीना तानकर खडे हुए थे मुस्कुरा कर हमें अपनी ओर बुला रहे थे, वहॉ मैंने श्वेत कमल भी देखा. वह बडी बडी ऑखों से मुझे देख रहा था, जब मैं उसके पास पहुंची तो उसने कहा- " शकुन ! बुध्द के पावन उपदेश से मेरे अन्तर्मन का राग- द्वेष धुल गया , मेरा अंतः करण पवित्र हो गया तुम चाहो तो तुम भी बोधि को प्राप्त कर सकती हो । सुनो तो , तुम्हारे साथी आगे बढ गए हैं । " मैने देखा मेरी टीम एक इमली के पेड के पास रुकी हुई थी और दो- तीन शरारती बहनें , कच्ची इमली तोडने का उपक्रम कर रही है , भैया ने उन्हें मना किया और बाहर जा कर खरीद कर इमली देने का वादा भी किया , तब वे मानीं । वनस्पति -उद्यान से जब हम बाहर आए तो भैया ने अपना वादा निभाया , उन्होंने इमली खरीद कर , आरती के हाथ में दिया और कहा कि तुम लोग बॉंट कर खा लो , पर बॉंटने की नौबत ही नहीं आई , सब लोग छीन झपट कर आरती के हाथ से ले गए और आरती को इमली मिली ही नहीं ।
वनस्पति- उद्यान देखने के बाद हम मोती- माणिक का हाट देखने पहुंचे , जिसके लिए श्रीलंका , सम्पूर्ण विश्व में जाना जाता है । वहॉं बडे सुन्दर ढंग से मोती और बेश-कीमती पत्थरों को सजा कर , रखा गया था । हमने पसन्द की चीज़ें खरीद लीं और अपने होटल में लौट आए । दूसरे दिन 13 अक्टूबर 2012 को , हमें अपने वतन की ओर लौटना था । कान्दी से कोलम्बो बहुत दूर है और हम , सडक के रास्ते से कोलम्बो जाना चाहते थे , अतः हम सुबह , जलपान करके , कान्दी से निकल पडे । रास्ते भर कवि- गोष्ठी चलती रही , गाडी में माइक तो था ही , सब हास्य-रस में उतर आए थे हँसते हँसते लोट-पोट हो रहे थे सोने में सुहागा रास्ता इतना खूबसूरत था और ऊपर से इन्द्र-देव , बारम्बार हमारा अभिषेक कर रहे थे , मानो हमें समझा रहे हों " देखो ! अपनी धरती पर पहुँच कर , अपने पडोसी को भूलना मत । "
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग ]
रोचक यात्रा वृत्तान्त
ReplyDeleteसंघमित्रा सम्मान के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें.अगर मैं ठीक-ठीक याद कर पा रहा हूँ तो "संघमित्रा" सम्राट अशोक महान की पुत्री थीं , जो बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए लंका गई थीं.
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ReplyDeleteवाह बहुत
गजब की प्रस्तुति
आग्रह है पढें,ब्लॉग का अनुसरण करें
तपती गरमी जेठ मास में---
http://jyoti-khare.blogspot.in
सुंदर यात्रा वृत्तान्त.
ReplyDeleteश्रीलंका प्रवास के साथ संघमित्रा सम्मान की बधाई.
ReplyDeleteसुन्दर सभ्य लोगों संग खुबसूरत यात्रा और संघमित्रा सम्मान के लिए कोटिशः बधाई
ReplyDeleteयात्रा तो आनंदकारी रहनी ही थी, बुद्धिजीवियों की संगति जो थी और असली आनंद संगति का ही होता है।
ReplyDeleteलंका को देखने का सपना सच होने की और ’संघमित्रा’ सम्मान की हार्दिक बधाई।
रोचक यात्रा सुंदर विवरण..
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