Saturday 28 December 2013

सूक्त - 78

[ऋषि- स्यूमरश्मि भार्गव । देवता- मरुद्गण । छन्द- त्रिष्टुप् -जगती ।]

9617
विप्रासो न मन्मभिः स्वाध्यो देवाव्यो3 न यज्ञैः स्वप्नसः ।
राजानो  न चित्रा: सुसन्दृशः क्षितीनां न मर्या अरेपसः ॥1॥

हे मारुत-मनन-शील-मेधावी तुम शुभ-कर्म सदा करते हो ।
हम सब तुम पर ही आश्रित हैं तुम मेरे अपने लगते हो ॥1॥

9618
अग्निर्न ये भ्राजसा रुक्मवक्षसो वातासो न स्वयुजःसद्यऊतयः।
प्रज्ञातारो न ज्येष्ठा: सुनीतयः सुशर्माणो न सोमा ऋतं यते ॥2॥

तुम  अग्नि - देव  सम  तेजस्वी  हो  चरैवेति है ध्येय तुम्हारा ।
तुम्हें कोई रोक नहीं सकता प्राञ्जल-प्रवाह है सबको प्यारा॥2॥

9619
वातासो  न  ये  धुनयो  जिगत्नवोSग्नीनां न जिह्वा विरोकिणः ।
वर्मण्वन्तो न योधा: शिमीवन्तः पितृणां न शंसा: सुरातयः॥3॥

पावन-पवन के प्रबल वेग पर प्रकम्पित होते  हैं  सब रिपु-दल ।
पूजनीय  हैं  पवन - देवता  हैं  धी र- वीर  अत्यन्त  सबल ॥3॥

9620
रथानां न ये1राह सनाभयो जिगीवांसो न शूरा अभिद्यवः ।
वरेयवो न मर्या घृतप्रुषोSभिस्वर्तारो अर्कं न  न्सुष्टुभः॥4॥

पवन - देवता  शूर - वीर  हैं  वे  ही  रथ - चक्र  थामते  हैं ।
आत्मीय  हमारे  मृदुभाषी  हैं  वे वेद-ऋचा उचारते हैं ॥4॥

9621
अश्वासो न ये ज्येष्ठास आशवो दिधिषवो न रथ्यः सुदानवः ।
आपो न निम्नैररुदभिर्जिगत्नवो विश्वरूपा अङ्गिरसो न सामभिः॥5॥

पवन--देव में अद्भुत-गति है हर ओर प्रवाहित हो सकते हैं ।
वे यश-वैभव के स्वामी हैं वे साम-ऋचा गाया करते हैं ॥5॥

9622
ग्रावाणो न सूरयः सिन्धुमातर आदर्दिरासो अद्रयो न विश्वहा ।
शिशूला न क्रीळयःसुमातरो महाग्रामो न यामन्नुत त्विषा॥6॥

जननी   सदृश   प्रेम   है  उनका  वे  दुष्टों  से  हमें  बचाते  हैं ।
जल-प्रवाह  भी  वही  बनाते  पथ-पर  चलना सिखलाते हैं ॥6॥

9623
उषसां न केतवोSध्वरश्रियः शुभंयवो नाञ्जिभिर्व्यश्वितन् ।
सिन्धवो न ययियो भ्राजदृष्ट्यः परावतो न योजनानि ममिरे॥7॥

ऊषा - किरण - सम  यज्ञ - भाव  है  वे  सबका मँगल करते हैं ।
सरिता-सदृश-सुखद-साधक हैं पथिक-समान सदा चलते हैं॥7॥

9624
सुभागान्नो देवा: कृणुता सुरत्नानस्मान्त्स्तोतृन्मरुतो वावृधाना: ।
अधि स्तोत्रस्य सख्यस्य गात सनाध्दि वो रत्नधेयानि सन्ति॥8॥

गति  से   बढते  हुए  मरुद्गण  हम  सबको  देते  हैं  धन - धान ।
वे  भाव-बोध  से  हमें  जानते  वे  हैं  सचमुच  कृपा-निधान॥8॥        

2 comments:

  1. ऊषा - किरण - सम यज्ञ - भाव है वे सबका मँगल करते हैं ।
    सरिता-सदृश-सुखद-साधक हैं पथिक-समान सदा चलते हैं॥7॥

    अति सुंदर भाव !

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