Monday 24 February 2014

सूक्त - 20

[ऋषि- विमद ऐन्द्र । देवता- अग्नि । छन्द- गायत्री-एकपदा विराट्-अनुष्टुप्-विराट्--त्रिष्टुप्।] 

8983
भद्रं नो अपि वातय मनः ॥1॥

अग्नि - देव  अति  तेजस्वी  हैं  करते  हैं  सबका  कल्याण ।
सत्पथ पर हम चलें निरंतर जब तक है इस तन में प्राण॥1॥

8984
अग्निमीळे भुजां यवविष्ठं शासा मित्रं दुर्धरीतुम् ।
यस्य धर्मन्त्स्व1 रेनीः सपर्यन्ति मातुरूधः॥2॥

हे  अग्निदेव  तुम  आ  जाओ  ग्रहण  करो  लो  हविष्यान्न ।
तुम  हम  सबकी  रक्षा  करना  हमको भी देना धन-धान॥2॥

8985
यमासा कृपनीळं भासाकेतुं वर्धयन्ति । भ्राजते श्रेणिदन्॥3॥

दुष्ट - दमन अति आवश्यक है सज्जन को प्रभु आश्रय देना ।
तुम ही हम सबके रक्षक हो अपने-पन से अपना लेना ॥॥3॥

8986
अर्यो विशां गातुरेति प्र यदानड् दिवो अन्तान्।कविरभ्रं दीद्यानः॥4॥

हे अग्नि-देव तुम ही प्रणम्य हो आओ ग्रहण करो हवि भोग ।
जग का कल्याण तुम्हीं करते हो यही कर्म है यही है योग॥4॥

8987
जुषध्दव्या मानुषस्योर्ध्वस्तस्थावृभ्वा यज्ञे।मिन्वन्त्सद्म पुर एति॥5॥

अग्नि - देव  हवि - भोग बॉटते  जग  को  देते  हैं  अनुदान ।
यह हवि-भोग महा-औषधि है यह है अद्भुत सुधा-समान॥5॥

8988
स हि क्षेमो हविर्यज्ञः श्रुष्टीदस्य गातुरेति।अग्निं देवा वाशीमन्तम्॥6॥

हे  अग्नि - देव  आवाहन  है   तुम  सब   देवों   के   सँग   आओ ।
सबको हवि-भोग खिलाओ भगवन फिर प्रसाद तुम भी पाओ॥6॥

8989
यज्ञासाहं दुव इषेSग्निं पूर्वस्य शेवस्य। अद्रेः सूनुमायुमाहुः॥7॥

पावन - पावक  पूजनीय  हो  रोग - शोक  सबका  हर  लेना ।
तुम हवि-भाग वहन करते हो सबको सुख-मय जीवन देना॥7॥

8990
नरो ये के चास्मदा वविश्वेत्ते वाम आ स्युः।अग्निं हविषा वर्धन्तः॥8॥

हे अग्नि - देव  यश - वैभव देना सुख-सन्तति देना भर-पूर ।
हे  प्रभु  तुम  ही  रक्षा करना  कभी  न  हमसे  होना  दूर ॥8॥

8991
कृष्णः श्वेतोSरुसषो यामो अस्य ब्रध्न ऋज्र उत शोणो यशस्वान्।
हिरण्यरूपं जनिता जजान॥9॥

हे  प्रभु  पावक  पूज्य  हमारे  जल  थल  नभ  है  तेरा  धाम ।
सागर  में  तुम  ही  बडवानल  जंगल  में  दावानल  नाम॥9॥

8992
एवा  ते  अग्ने  विमदो  मनीषामूर्जो  नपादमृतेभिः सजोषा: ।
गिर आ वक्षत्सुमतीरियान इषमूर्जं सुक्षितिं विश्वमाभा:॥10॥

पावन-पावक तुम प्रणम्य हो तुम हो सुधा-सदृश सुख - धाम ।
अन्न - धान  तुम देना प्रभु-वर तुमको बारम्बार प्रणाम ॥10॥          

2 comments:

  1. हे प्रभु पावक पूज्य हमारे जल थल नभ है तेरा धाम ।
    सागर में तुम ही बडवानल जंगल में दावानल नाम॥9॥

    हमारे भीतर जठराग्नि के रूप में भी तुम्हीं हो...नमन तुम्हें !

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