Saturday 1 February 2014

सूक्त - 43

[ऋषि- कृष्ण आङ्गिरस । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती- त्रिष्टुप् ।]

9238
अच्छा म इन्द्रं मतयः स्वर्विदः सध्रीचीरर्विश्वा उशतीरनूषत ।
परि ष्वजन्ते जनयो यथा पतिं मर्यं न शुन्ध्युं मघवानमूतये॥1॥

हे प्रभु तुम्हीं आत्मबल देना ध्येय मेरा मुझको समझाना ।
पत्नी का आश्रय पति बनता वैसे ही तुम मेरे बन जाना ॥1॥

9239
न  घा  त्वद्रिगप  वेति मे मनस्त्वे इत्कामं पुरुहूत शिश्रय ।
राजेव दस्म नि षदोSधि बर्हिष्यस्मिन्त्सु सोमेSवपानमस्तु ते॥2॥ 

हे   पूजनीय   हे   परमेश्वर   तुम   मेरे   मन   में   रहते  हो ।
तुम ही मेरी अभिलाशा हो अब तुम्हीं कहो क्या कहते हो॥2॥

9240
विषूवृदिन्द्रो  अमतेरुत  क्षुधः  स  इद्रायो  मघवा वस्व ईशते ।
तस्येदिमे प्रवणे सप्त सिन्धवो वयो वर्धन्ति वृषभस्य शुष्मिणः॥3॥

प्रभु  तुम  सदा  अन्न-धन  देना  मेरे  आस-पास  ही  रहना ।
तुम यश-वैभव के मालिक हो तुम सदा हमारी रक्षा करना॥3॥

9241
वयो न वृक्षं सुपलाशमासदन्त्सोमास इन्द्रं मन्दिनश्चमूषदः।
प्रैषामनीकं शवसा दविद्युतद्विदत्स्व1र्मनवे ज्योतिरार्यम्॥4॥

पंछी  पेडों  पर  पलना  पाते  आदित्य-देव आलोक  लुटाते ।
यह सब कुछ कितना सुन्दर है सूर्य-देवता तमस मिटाते॥4॥

9242
कृतं न श्वघ्नी वि चिनोति देवने संवर्ग यन्मघवा सूर्यं जयत्।
न तत्ते अन्यो अनु वीर्यं शकन्न पुराणो मघवन्नोत नूतनः॥5॥

सूर्य - देव संस्कार  सिखाते  वे  कर्म-योग  का  पाठ  पढाते ।
रिमझिम बरसात वही देते हैं आत्मीय मान वे हीअपनाते॥5॥

9243
विशंविशं मघवा पर्यशायत जनानां धेना अवचाकशद्वृषा ।
यस्याह शक्रःसवनेषु रण्यति स तीव्रैःसोमैःसहते पृतन्यतः॥6॥

प्रभु तुम जन-जन में बसते हो हम सबकी बातें सुनते हो ।
षड्-रिपु से तुम हमें बचाते सबका सुख गुनते बुनते हो॥6॥

9244
आपो न सिन्धुमभि यत्समक्षरन्त्सोमास इन्द्रं कुल्याइव हृदम्।
वर्धन्ति विप्रा महो अस्य सादने यवं न वृष्टिर्दिव्येन दानुना॥7॥

रिमझिम फुहार हरियाली लाती अन्न-फूल-फल  हम  पाते हैं ।
सरितायें  सागर  में  जाती  हैं  प्रभु  ही  सबको  अपनाते हैं ॥7॥

9245
वृषा  न  क्रुध्दः पतयद्रजः स्वा यो अर्यपत्नीरकृणोदिमा अपः ।
स सुन्वते मघवा जीरदानवेSविन्दज्ज्योतिर्मनवे हविष्मते॥8॥

कर्म-योग  की  गरिमा अद्भुत  सब  कुछ  संभव  हो जाता है ।
उद्देश्य मनुज को मिल जाता है सत्कर्मों का फल पाता है॥8॥

9246
उज्जायतां परशुरर्ज्योतिषा सह भूया ऋतस्य सुदुघा पुराणवत्।
वि रोचतामरुषो भानुना शुचिः स्व1र्ण शुक्रं शुशुचीत सत्पतिः॥9॥

कर्म - योग  के  शाश्वत - विग्रह आदित्य - देव  अति  अद्भुत  हैं ।
वह  आराम  नहीं  करते  हैं  निशि-दिन  सेवा  में  प्रस्तुत  हैं ॥9॥

9247
गोभिष्टरेमामतिं  दुरेवां  यवेन  क्षुधं  पुरुहूत  विश्राम ।
वयं राजभिः प्रथमा धनान्यस्माकेन वृजनेना जयेम ॥10॥

हे  वाक् - देवी  हमको  वर दो हम भी वाणी का वैभव पायें ।
जीवन-में सत्कर्म करें प्रभु हम भी वेद-ऋचा को गायें॥10॥

9248
बृहस्पतिर्नः  परि  पातु  पश्चादुतोत्तरस्मादधरादघायोः ।
इन्द्रः पुरस्तादुत मध्यतो नः सखा सखिभ्यो वरिवः कृणोतु॥11॥

हमें  सुरक्षा  देना  प्रभु  वर तुम्हीं  मात्र  हो  मीत  हमारे ।
धन-वैभव देते रहना प्रभु हम सेवक है सदा तुम्हारे ॥11॥      
    

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