Monday 31 March 2014

सूक्त - 97

[ऋषि- वसिष्ठ मैत्रावरुणि । देवता- पवमान सोम । छन्द- त्रिष्टुप् ।]

8558
अस्य  प्रेषा  हेमना  पूयमानो देवो देवेभिः समपृक्त  रसम् ।
सुतः पवित्रं  पर्येति  रेभन्मितेव सद्म  पशुमान्ति  होता॥1॥

सज्जन का मन निर्मल होता है वह सत्संगति में रहता है ।
यश-वैभव से आच्छादित वह दिव्य-भावना में बहता है॥1॥

8559
भद्रा वस्त्रा समन्या3 वसानो महान्कविर्निवचनानि शंसन् ।
आ वच्यस्व चम्वोःपूयमानो विचक्षणो जागृविर्देववीतौ॥2॥

मंगल- मति संग जागृत रहता सबका रखता है वह ध्यान ।
शुभ  भावों  में  वह  जीता है मधुर-वचन से होता भान ॥2॥

8560
समु प्रियो मृज्यते सानो अव्ये यशस्तरो यशसां क्षैतो अस्मे।
अभि स्वर धन्वा पूयमानो यूयं पात स्वस्तिभिःसदा नः॥3॥

सबके  हित  में  अपना  हित  है जो करता हो स्वीकार सदा ।
सबसे सत्कार सदा पाता है मिलता  है  ऐसा  यदा-कदा ॥3॥

8561
प्र    गायताभ्यर्चाम   देवान्त्सोमं   हिनोत   महते   धनाय ।
स्वादुः पवाते अति वारमव्यमा सीदाति कलशं देवयुर्नः ॥4॥

वैभव  में   रुचि   लेने  वाले  विद्वत् - जन  को  करें  प्रणाम ।
जिज्ञासा-शमन जहॉ हो जाए सत्संग कीजिए आठों-याम॥4॥

8562
इन्दुर्देवानामुप    सख्यमायन्त्सहत्रधारः    पवते     मदाय ।
नृभिः स्तवानो अनु धाम पूर्वमगन्निन्द्रं महते सौभगाय ॥5॥

कर्म - योग  का  राही  ही  तो  सख्य - भाव  को  भजता  है ।
विविध-शक्तियों संग जीता है प्रगति- पंथ पर चलता है ॥5॥

8563
स्तोत्रे  राये  हरिरर्षा  पुनान  इन्द्रं  मदो  गच्छतु  ते  भराय ।
देवैर्याहि सरथं राधो अच्छा यूयं पात स्वस्तिभिःसदा नः॥6॥

कर्म - योग  है  धाम  प्रभु  का  मिलता  है उनका सान्निध्य ।
स्वस्ति - भाव  से  रक्षित  होते  पाते हैं प्रभु का सामीप्य ॥6॥

8564
प्र   काव्यमुशनेव   ब्रुवाणो   देवो   देवानां  जनिमा  विवक्ति ।
महिव्रतः शुचिबन्धुः पावकः पदा वराहो अभ्येति रेभन् ॥7॥

अद्भुत -प्रतिभा  वाले  जन  ही  रचते  हैं सुख - कर साहित्य ।
वह  ही  सदुपदेश  बनता  है मानो हो आलोक- आदित्य ॥7॥

8565
प्र   हंसासस्तृपलं   मन्युमच्छामादस्तं   वृषगणा  अयासुः ।
आङ्गूष्यं1 पवमानं सखायो दुर्मर्षं साकं प्र वदन्ति वाणम्॥8॥

परमात्मा के सद्गुण को हम  इस  जीवन  में  धारण  कर  लें ।
सख्य-भाव से हम अपना लें उनको अपने मन में धर लें ॥8॥

8566
स  रंहत उरुगायस्य  जूतिं  वृथा  क्रीळन्तं  मिमते  न गावः ।
परीणसं  कृणुते  तिग्मश्रृङ्गो  दिवा  हरिर्ददृशे नक्तमृज्रः ॥9॥

परमेश्वर की गति  न्यारी  है अति  रोचक है उसकी आख्या ।
कोई कहीं विकार नहीं है नेति-नेति  है  उसकी  व्याख्या ॥9॥

8567
इन्दुर्वाजी  पवते  गोन्योघा  इन्द्रे  सोमः  सह  इन्वन्मदाय ।
हन्ति रक्षो बाधते पर्यरातीर्वरिवः कृण्वन्वृजनस्य राजा॥10॥

तेज-पुञ्ज  है  वह  परमात्मा अति - अद्भुत  है  ऐश्वर्य- वान ।
दुष्ट - दमन  वह  ही करता है आत्म-भाव का है आह्वान ॥10॥

8568
अध   धारया  मध्वा  पृचानस्तिरो   रोम  पवते  अद्रिदुग्धः ।
इन्दुरिन्द्रस्य सख्यं जुषाणो देवो देवस्य मत्सरो मदाय ॥11॥

चित्त - वृत्ति  पावन  बन  जाती  ऐसी  है  उसकी  उपासना ।
रोम-रोम में तृप्ति समाती प्रभु की रहती सख्य- भावना ॥11॥

8569
अभि प्रियाणि पवते पुनानो देवो देवान्त्स्वेन रसेन पृञ्चन् ।
इन्दुर्धर्माण्यृतुथा वसानो दश क्षिपो अव्यत सानो अव्ये॥12॥

परम  तृप्ति  वह  ही  देता  है  सज्जन  मन  पाता  सन्तोष ।
सबको पावन वही बनाता  परम  प्रेम  पाता  परितोष ॥12॥

8570
वृषा शोणो अभिकनिक्रदद्गा नदयन्नेति पृथिवीमुत द्याम् ।
इन्द्रस्येव वग्नुरा श्रृण्व आजौ प्रचेतयन्नर्षति वाचमेमाम्॥13॥

वह तेजस्वी परमात्मा ही गर्जन-ध्वनि से कुछ कहता है ।
पावस से समृध्द बनाता आनन्द की वर्षा करता है ॥13॥

8571
रसाय्यः पयसा पिन्वमान  ईरयन्नेषि  मधुमन्तमंशुम् ।
पवमानः संतनिमेषि कृण्वन्निन्द्राय सोम परिषिच्यमानः॥14॥

उपासनीय  है  वह  परमात्मा  वह  है  वैभव  का  विस्तार ।
अष्ट-सिध्दि का वह दाता है उसकी लीला है अपरम्पार॥14॥

8572
एवा  पवस्व  मदिरो  मदायोदग्राभस्य  नमयन्वधस्नैः ।
परि वर्णं भरमाणो रुशन्तं गव्युर्नो अर्ष परि सोम सिक्तः॥15॥

भक्ति - भाव  से  जो  भजते  है  मिटता  है  उनका अज्ञान ।
ज्ञानालोक उन्हें मिलता है मुझको भी प्रभु दे दो ज्ञान॥15॥

8573
जुष्ट्वी न इन्दो सुपथा सुगान्युरौ पवस्व वरिवांसि कृण्वन् ।
घनेव विष्वग्दुरितानि विघ्नन्नधि ष्णुना धन्व सानो अव्ये॥16॥

प्रेम - रूप  है  वह  परमात्मा  ज्ञान - कर्म  है  उसका  घर ।
हम भी उसको पासकते हैं प्रेम के पथ पर है परमेश्वर॥16॥

8574
वृष्टिं  नो अर्ष दिव्यां जिगत्नुमिळावतीं  शंगयीं  जीरदानुम् ।
स्तुकेव वीता धन्वा विचिन्वन् बन्धूँरिमॉ अवरॉ इन्दो वायून्॥17॥

हम उस प्रभु से जुडे हुए हैं वह प्रेरित  करता  शुभ  पथ  पर ।
यद्यपि कर्मानुकूल फल पाते फिर भी अपने हैं परमेश्वर॥17॥

8575
ग्रन्थिं न वि ष्य ग्रथितं पुनान ऋजुं च गातुं  वृजिनं  च सोम ।
अत्यो न क्रदो हरिरा सृजानो मर्यो देव धन्व पस्त्यावान्॥18॥

वे  नीति - नेम  से  बँधे  हुए  हैं  सज्जन  की  रक्षा  करते  हैं ।
मन में आकर कुछ समझाते सत्पथ पर ले कर चलते हैं॥18॥

8576
जुष्टो मदाय देवतात इन्दो  परि  ष्णुना  धन्व  सानो  अव्ये ।
सहस्त्रधारः सुरभिरदब्धः परि  स्त्रव  वाजसातौ  नृषह्ये ॥19॥

जो  प्रभु  पर  निर्भर  होते  हैं  परमेश्वर उनका  रखते ध्यान ।
अनन्त शक्ति है परमात्मा मन वे हैं सबके सखा समान॥19॥

8577
अरश्मानो येSरथा अयुक्ता अत्यासो  न  ससृजानास  आजौ ।
एते शुक्रासो धन्वन्ति सोमा देवासस्तॉ उप याता पिबध्यै॥20॥

जो  जीवन्मुक्त  अवस्था  में  हैं  वे  हैं  सब  बन्धन  से  दूर ।
वे विहग समान विचरते हैं मिलती है उन्हें प्रीति भरपूर॥20॥

8578
एवा  न  इन्दो  अभि  देववीतिं  परि  स्त्रव  नभो अर्णश्चमूषु ।
सोमो अस्मभ्यं काम्यं बृहन्तं रयिं ददातु वीरवन्तमुग्रम्॥21॥

हे आलोक - रूप  परमात्मा ज्ञान - यज्ञ  की  हो  बरसात ।
हे प्रभु तुम यश-वैभव देना पावन-बिहान हो यह प्रभात॥21॥

8579
तक्षद्यदी मनसो वेनतो  वाग्ज्येष्ठस्य  वा  धर्मणि  क्षोरनीके ।
आदीमायन्वरमा वावशाना जुष्टं पतिं कलशे गाव इन्दुम्॥22॥

कर्म-ज्ञान  से  प्रेरित  मन  को  वाणी  संस्कारित  करती  है ।
हे प्रभु अन्तर्मन में आओ आतुर इन्द्रिय यह कहती है ॥22॥

8580
प्र  दानुदो  दिव्यो  दानुपिन्व  ऋतमृताय  पवते  सुमेधा: ।
धर्मा भुवद्वृजन्यस्य राजा प्र रश्मिभिर्दशभिर्भारि भूम॥23॥

सज्जन को जिज्ञासा देता  संग - संग  ले  कर  चलता  है ।
यश - वैभव वह ही देता है सीमा निर्धारित करता  है ॥23॥

8581
पवित्रेभिः पवमानो नृचक्षा राजा देवानामुत  मर्त्यानाम् ।
द्विता भुवद्रयिपती रयीणामृतं भरत्सुभृतं चार्विन्दुः ॥24॥

वह परमेश्वर हमें हमेशा जगती  का  सब  सुख  देता  है ।
कर्मों का वह ही द्रष्टा है अपने-पन से अपना लेता है ॥24॥

8582
अर्वॉ  इव  श्रवसे  सातिमच्छेन्द्रस्य  वायोरभि  वीतिमर्ष ।
स नःसहस्त्रा बृहतीरिषो दा भवा सोम द्रविणोवित्पुनानः॥25॥

सज्जन को वह विविध-विधा से देता है अनुपम उपहार ।
आओ ज्ञान-योग को जानें ज्ञान-योग है अपरम्पार ॥25॥

8583
देवाव्यो नः परिषिच्यमाना: क्षयं सुवीरं धन्वन्तु सोमा: ।
आयज्यवःसुमतिं विश्ववारा होतारो न दिवियजो मन्द्रतमा:॥26॥

बडे पुण्य से ही मिलता  है  सुख  सन्मति  सुन्दर  सन्तान ।
साधक यह सब कुछ पाता है विधि-प्रदत्त है यह वितान॥26॥

8584
एवा देव देवताते पवस्व महे सोम प्सरसे देवपानः ।
महश्चिध्दि ष्मसि हिता: समर्ये कृधि सुष्ठाने रोदसी पुनानः॥27॥

हे  दिव्य- रूप  हे  परमात्मा  तुम  हम  सबकी  रक्षा  करना ।
हम चरैवेति के पथ पर हैं तुम हमको प्रेरित करते रहना॥27॥

8585
अश्वो न क्रदो वृषभिर्युजानः सिहो न भीमो मनसो जवीयान् ।
अर्वाचीनैः पथिभिर्ये रजिष्ठा आ पवस्व सौमनसं न इनदो॥28॥

हे पावन पूजनीय परमात्मा तुम अन्तर्मन में बस जाओ ।
सर्व समर्थ तुम्हीं हो प्रभु-वर मेरी नैया पार लगाओ ॥28॥

8586
शतं  धारा  देवजाता असृग्रन्त्सहस्त्रमेना: कवयो मृजन्ति ।
इन्दो सनित्रं दिव आ पवस्व पुरएतासि महतो धनस्य॥29॥

अति अद्भुत  है  वैभव  तेरा अद्भुत  है  तेरा  विस्तार ।
वैभव ही तेरा आभूषण है वसुन्धरा तेरा उपहार॥29॥  

8587
दिवो न सर्गा अससृग्रमह्नां राजा न  मित्रं  प्र  मिनाति  धीरः ।
पितुर्न पुत्रः क्रतुभिर्यतान आ पवस्व विशे अस्या अजीतिम्॥30॥

अजय भाव दे देना भगवन तुम सज्जन की  रक्षा करना ।
विभूति-वान तुम ही वरेण्य हो यश-वैभव देते रहना ॥30॥

8588
प्र  ते  धारा  मधुमतीरसृग्रन्वारान्यत्पूतो  अत्येष्यव्यान् ।
पवमान पवसे धाम गोनां जज्ञानः सूर्यमपिन्वो अर्कैः॥31॥

सूर्य - किरण  धरती  को  छूती  करती  है  वह  अठखेली ।
अत्यंत मधुर आनंद लहर है यह है मेरी सुखद-सहेली॥31॥

8589
कनिक्रददनु पन्थामृतस्य  शुक्रो  वि  भास्यमृतस्य  धाम ।
स इन्द्राय पवसे मत्सरवान्हिन्वानो वाचं मतिभिः कवीनाम्॥32॥

सत्पथ पर चलना सिखलाओ कर्म-योग  का  पथ है पावन ।
तुम अमृत के परम-धाम हो तुम ही हो मेरे मन-भावन॥32॥

8590
दिव्यः सुपर्णोSव चक्षि सोम पिन्वन्धारा: कर्मणा देववीतौ ।
एन्दो विश कलशं सोमधानं क्रन्दन्निहि सूर्यस्योप रश्मिम्॥33॥

तुम  उपदेश  हमें  देना  प्रभु  हम  पर  दया - दृष्टि  रखना ।
अन्न-धान फल हमको देना तुम सबकी विपदा हरना॥33॥

8591
तिस्त्रो  वाच  ईरयति प्र वह्निरृतस्य धीतिं ब्रह्मणो मनीषाम् ।
गावो यन्ति गोपतिं पृच्छमाना:सोमं यन्ति मतयो वावशाना:॥34॥

सूरज को ज्यों किरण मिली है सज्जन को मिलती है वाणी ।
हम संस्कारित हो सकते हैं श्रुति कहती है यही कहानी ॥34॥

8592
सोमं गावो धेनवो वावशाना: सोमं विप्रा मतिभिः पृच्छमाना:।
सोमःसुतःपूतये अज्यमानःसोमे अर्कास्त्रिष्टुभःसं नवन्ते॥35॥

वाणी  की  महिमा  अद्भुत  है  वह  है  प्रभु  की  अभिलाषी । 
वह प्रभु से ही जुडी हुई है वह  मृदुला  है  मधु - भाषी ॥35॥

8593
एवा नः सोम परिषिच्यमान आ पवस्व पूयमानः स्वस्ति ।
इन्द्रमा विश बृहता रवेण वर्धया वाचं जनया पुरंधिम्॥36॥

परमेश्वर तुम  ही  प्रणम्य  हो करना हम सबका कल्याण ।
सत्पथ पर ही हम चलते हैं जब तक है इस तन में प्राण॥36॥

8594
आ जागृविर्विप्र ऋता मतीनां सोमः पुनानो असदच्चमूषु ।
सपन्ति यं मिथुनासो निकामा अध्वर्यवो रथिरासःसुहस्ता:॥37॥

हे प्रभु सर्व समर्थ तुम्हीं  हो  हमको  भी  चारों  बल देना ।
नेक राह पर हम चलते हैं अपने-पन से अपना लेना॥37॥

8595
स पुनान उप सूरे न धातोभे अप्रा रोदसी वि ष आवः ।
प्रिया चिद्यस्य प्रियसास ऊती स तू धनं कारिणे न प्र यंसत्॥38॥

सूर्य समान वही परमात्मा अज्ञान-तमस को दूर भगाता ।
जीवन सार्थक करता है विद्या आलोक वही दे जाता ॥38॥

8596
स वर्धिता वर्धनः पूयमानःसोमो मीढ्वॉ अभि नो ज्योतिषावीत्।
येना नः पूर्वे पितरः पदज्ञा: स्वर्विदो अभि गा अद्रिमुष्णन्॥39॥

परमात्मा  प्रेरित  करते  हैं सत्पथ पर चलना सिखलाते ।
राह में कोई भटक न जाए ज्ञानालोक उसे दिखलाते॥39॥

8597
अक्रान्त्समुद्रः प्रथमे विधर्मञ्जनयन्प्रजा भुवनस्य राजा ।
वृषा पवित्रे अधि सानो अव्ये बृहत्सोमो वावृधे सुवान इन्दुः॥40॥

प्रभु सबका हित-चिन्तन करते सबसे है उनका अनुराग ।
मनो-कामना पूरी  करते और  भगाते  हैं  खट-राग ॥40॥

8598
महत्तत्सोमो   महिषश्चकारापां   यद्गर्भोSवृणीत   देवान् ।
अदधादिन्द्रे पवमान ओजोSजनयत्सूर्ये ज्योतिरिन्दुः॥41॥

उद्यम  की  महिमा   भारी  है  सार्थक  हो  जाता  है  जीवन ।
साधक ओजस्वी हो जाता हरिया जाता जीवन उपवन॥41॥

8599
मत्सि वायुमिष्टये राधसे च मत्सि मित्रावरुणा पूयमानः ।
मत्सि शर्धो मारुतं मत्सि देवान्मत्सि द्यावापृथिवी देव सोम॥42॥

उपदेशक अध्यापक दोनों अपना  दायित्व  निभाते  हैं ।
विद्वत्-जन अन्वेषण करते दूर-दृष्टि दे कर जाते हैं॥42॥

8600
ऋजुः पवस्व वृजिनस्य हन्तापामीवां बाधमानो मृधश्च ।
अभिश्रीणन्पयःपयसाभि गोनामिन्द्रस्य त्वं वयं सखायः॥43॥
  
हे प्रभु सबकी विपदा हरना अज्ञान  तमस  को  दूर  भगाना ।
कर्म मार्ग तुम हमें दिखाना सख्य-भाव से ही अपनाना॥43॥

8601
मध्वः सूदं पवस्व वस्व उत्सं वीरं च न आ पवस्वा भगं च ।
स्वदस्वेन्द्राय पवमान इन्दो रयिं च न आ पवस्वा समुद्रात्॥44॥

उद्योगी  ही  वैभव  पाता  है  कर्म - योग   देता  ऐश्वर्य । 
आओ हम उद्योगी बन-कर प्रभु से पायें शौर्य-धैर्य॥44॥

8602
सोमः सुतो धारयात्यो न हित्वा सिन्धुर्न निम्रमभि वाज्यक्षा: ।
आ योनिं वन्यमसदत्पुनानः समिन्दुर्गोभिरसरत्समद्भिः॥45॥

फल-दार  वृक्ष  ही  झुकते  हैं  वे  ही  मिठास  सबको  देते  हैं ।
प्रभु का प्यार इन्हीं को मिलता प्रभु इनको अपना लेते हैं॥45॥

8603
एष स्य ते पवत  इन्द्र  सोमश्चमूषु  धीर  उशते  तवस्वान् ।
स्वर्चक्षा रथिरः सत्यशुष्मःकामो न यो देवयतामसर्जि॥46॥

कर्म -योग से सब कुछ मिलता यश - वैभव  हो  चाहे सुख ।
आओ इसी राह पर चल कर बिसरा दें हम अपना दुख॥46॥ 

8604
एष   प्रत्नेन   वयसा  पुनानस्तिरो  वर्पांसि  दुहितुर्दधानः ।
वसानः शर्म त्रिवरूथमप्सु होतेव याति समनेषु रेभन्॥47॥

अति अद्भुत  है  प्रकृति  हमारी  लगती  है  सहचरी  हमारी ।
सद्गति-द्वार यही दिखलाती मॉ समान लगती है प्यारी॥47॥

8605
नू नस्त्वं रथिरो देव सोम परि स्त्रव चम्वोः पूयमानः ।
अप्सु स्वादिष्ठो मधुमॉ ऋतावा देवो न यः सविता सत्यमन्मा॥48॥

हे  पावन  पूजनीय  परमेश्वर  तुम्हीं  प्रेय हो तुम ही श्रेय ।
कैसी  पूजा  करें  तुम्हारी  सब  कुछ  है  तेरा  प्रदेय ॥48॥

8606
अभि वायुं वीत्यर्षा गृणानो3Sभि मित्रावरुणा पूयमानः ।
अभी नरं धीजवनं रथेष्ठामभीन्द्रं वृषणं वज्रबाहुम् ॥49॥

जिसको तेरा सान्निध्य चाहिए कर्म-राह में बढ-कर आए ।
शूर-वीर बन-कर उभरे वह अन्वेषण की प्रतिभा पाए ॥49॥

8607
अभि   वस्त्रा   सुवसनान्यर्षाभि   धेनूः  सुदुघा:  पूयमानः ।
अभि चन्द्रा भर्तवे नो हिरण्याभ्यश्वान्रथिनो देव सोम ॥50॥

कर्म-योग की महिमा अद्भुत जीवन  सार्थक  हो  जाता  है ।
वाणी का वैभव मिलता है मानव यश-वैभव पाता  है ॥50॥

8608
अभी  नो  अर्ष दिव्या वसून्यभि विश्वा पार्थिवा पूयमानः ।
अभि  येन  द्रविणमश्नवामाभ्यार्षेयं जमदग्निवन्नः ॥51॥

पृथ्वी पर सब सुख है लेकिन वीर ही करते  इसका  भोग ।
ऐश्वर्य उसे ही मिलता है  जो  कर  पाता   है उपभोग ॥51॥

8609
अया पवा पवस्वैना वसूनि मॉश्चत्व इन्दो सरसि प्र धन्व ।
ब्रध्नश्चिदत्र वातो न जूतः पुरुमेधश्चित्तकवे नरं दात् ॥52॥

उद्योगी  ही  पा  सकता  है  मालिक  का  उत्तम  उपहार ।
प्रभु की प्रीति वही पाते हैं जो करता उत्तम व्यवहार॥52॥

8610
उत  न  एना  पवया  पवस्वाधि  श्रुते  श्रवाय्यस्य  तीर्थे ।
षष्टिं सहस्त्रा नैगुतो वसूनि वृक्षं न पक्वं धूनवद्रणाय॥53॥

कर्म  -  मार्ग   के   अनुयायी  ही  विद्या  का  पाते  वरदान ।
रिपु-दल से छुटकारा पाते अविरल चलता है अभियान॥53॥

8611
महीमे अस्य वृषनाम  शूषे  मॉश्चत्वे  वा  पृशने   वा   वधत्रे ।
अस्वापयन्निगुतःस्त्रेहयच्चापामित्रॉ अपाचितो अचेतः॥54॥

पृथ्वी   है  परिवार  हमारा  जन्म -  भूमि   का   गाओ  गान ।
माता मातृ-भूमि प्यारी है उसकी महिमा का करें बखान॥54॥

8612
सं त्री पवित्रा विततान्येष्यन्वेकं धावसि पूयमानः ।
असि भगो असि दात्रस्य दातासि मघवा मघवद्भ्य इन्दो॥55॥

हे   प्रभु  यश - वैभव  के  स्वामी  अन्न - धान  का  देना  दान । 
वरद-हस्त हम पर भी रखना कृपा-सिन्धु  हे  श्री भगवान॥55॥

8613
एष विश्ववित्पवते मनीषी सोमो  विश्वस्य  भुवनस्य राजा ।
द्रप्सॉ ईरयन्विदथेष्विन्दुर्वि वारमव्यं समयाति याति॥56॥

पात्रानुकूल  ही  वैभव मिलता  इसीलिए  योग्यता  बढा  लो ।
प्रभु अनुरूप बनो फिर देखो सुख-सागर में यहॉ नहा लो॥56॥

8614
इन्दुं रिहन्ति महिषा अदब्धा: पदे  रेभन्ति  कवयो  न  गृध्रा: ।
हिन्वन्ति धीरा दशभिःक्षिपाभिःसमञ्जते रूपमपां रसेन॥57॥

निष्काम - कर्म अति उत्तम  है  इस  राज-मार्ग  पर  चलना है ।
प्रति-दिन प्राणायाम करें हम अविरल आगे ही बढना है ॥57॥

8615
त्वया  वयं  पवमानेनसोम  भरे  कृतं  वि  चिनुयाम  शश्वत् ।
तन्नो मित्रो वरुणो मामहन्तामदितिः सिन्धुः पृथिवी उत द्यौः॥58॥

जीवन-रण में हम  विजयी  हों अपना  ध्येय  समझ  में आए ।
अज्ञान तमस यह मिट जाए आलोक ज्ञान का मिल जाए॥58॥           
        


 
 





1 comment:

  1. परमेश्वर की गति न्यारी है अति रोचक है उसकी आख्या ।
    कोई कहीं विकार नहीं है नेति-नेति है उसकी व्याख्या ॥9॥

    परम को नमन और आपकी पावन लेखनी को भी

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