Monday 10 November 2014

तृषा - तृप्ति

प्यास जीवन की सार्थकता का प्रतीक - चिह्न है ।
प्यास जीवन की जीवन्तता का पर्याय है ।
प्यास - रहित जीवन भी कोई जीवन है  ?
जीवन में प्यास का अस्तित्व
यह संकेत करता है कि जीवन में गति है ।

प्यास का उद्वेग
जीवन की गति को रेखॉकित करता है ।
मंथर प्यास - मंथर गति
प्रबलतम प्यास उत्तरोत्तर गति ।

प्यास से पीडित मनुष्य ही तो संतृप्ति की तलाश करता है ।
प्यास की व्याकुलता, संतृप्ति की समीपता का संकेत है ।
प्यास की पराकाष्ठा जीवन की निरन्तरता का प्रतीक है ।

पर प्रेम - तृषा और बोध - तृषा की
सीमा - रेखा समझ में नहीं आती
कहीं ये दोनों एक - दूसरे के पूरक तो नहीं ?
कहीं प्रेम - तृषा, बोध - तृषा की प्रथम सोपान तो नहीं ?

हे ईश्वर मुझे तो दोनों सहोदर प्रतीत होते हैं
दोनों में कोई अन्तर नहीं दिखता
पर मूल्यॉकन की सामर्थ्य किसमें है ?
मानव दोनों से अपरिचित है ।
जीवन - समर में व्यतीत दैनिक दिनचर्या को
प्रेम की संज्ञा से अभिहित नहीं किया जा सकता ।

वस्तुतः माया की अनुपलब्धि ही कदाचित
राम की उपलब्धि की राह हो
क्योंकि यह सत्य तो समझ में आता है
कि माया को भोग से नहीं जीता जा सकता
योग से ही इस पर विजय सम्भव है ।
पर इस प्रक्रिया का आरम्भ कहॉ से हो
यह प्रश्न - चिह्न है
जिसने जीवन को ही प्रश्न - चिह्न बना दिया है ।

3 comments:

  1. सही कहा है आपने प्रेम ही सत्य तक ले जाता है..शुरुआत भी प्रेम से करनी है और अंत भी इसी पर..

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  2. प्रेम ही है बोध की पहली सीढ़ी!

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  3. एक चिरंतन प्यास तो है -अकुलाहट मिलन की!

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