Sunday, 26 February 2017

कोदूराम दलित की साहित्य साधना







 मनुष्य भगवान की अद्भुत रचना है, जो कर्म की तलवार और कोशिश की ढाल से, असंभव को संभव कर सकता है । मन और मति के साथ जब उद्यम जुड जाता है तब बडे - बडे तानाशाह को झुका देता है और लंगोटी वाले बापू गाँधी की हिम्मत को देख कर, फिरंगियों को हिन्दुस्तान छोड कर भागना पडता है । मनुष्य की सबसे बडी पूञ्जी है उसकी आज़ादी,जिसे वह प्राण देकर भी पाना चाहता है, तभी तो तुलसी ने कहा है - ' पराधीन सपनेहुँ सुख नाहीं ।' तिलक ने कहा - ' स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है और हम उसे लेकर रहेंगे ।' सुभाषचन्द्र बोस ने कहा - ' तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा ।' सम्पूर्ण देश में आन्दोलन हो रहा था, तो भला छ्त्तीसगढ स्थिर कैसे रहता ? छ्त्तीसगढ के भगतसिंह वीर नारायण सिंह को फिरंगियों ने सरेआम फाँसी पर लटका दिया और छ्त्तीसगढ ' इंकलाब ज़िंदाबाद ' के निनाद से भर गया, ऐसे समय में ' वंदे मातरम् ' की अलख जगाने के लिए, कोदूराम 'दलित' जी आए और उनकी छंद - बद्ध रचना को सुनकर जनता मंत्र - मुग्ध हो गई -

" अपन - देश आज़ाद  करे -  बर, चलो  जेल - सँगवारी
 कतको झिन मन चल देइन, आइस अब - हम रो- बारी।
जिहाँ लिहिस अवतार कृष्ण हर,भगत मनन ला तारिस
दुष्ट- जनन ला मारिस अउ,   भुइयाँ के भार - उतारिस।
उही  किसम जुर - मिल के हम, गोरा - मन ला खेदारी
अपन - देश आज़ाद  करे  बरचलो - जेल - सँगवारी।"

15 अगस्त सन् 1947 को हमें आज़ादी मिल गई, तो गाँधी जी की अगुवाई में दलित जी ने जन - जागरण को संदेश दिया -
" झन सुत सँगवारी जाग - जाग, अब तोर देश के खुलिस भाग
सत अउर अहिंसा सफल रहिस, हिंसा के मुँह मा लगिस आग।
जुट - मातृ - भूमि के सेवा मा, खा - चटनी बासी - बरी - साग
झन सुत सँगवारी जाग - जाग, अब तोर देश के खुलिस भाग।
उज्जर हे तोर- भविष्य - मीत,फटकार - ददरिया सुवा - राग
झन सुत सँगवारी जाग - जाग अब तोर देश के खुलिस भाग ।"

हमारे देश की पूँजी को लूट कर, लुटेरे फिरंगी ले गए, अब देश को सबल बनाना ज़रूरी था, तब दलित ने जन -जन से, देश की रक्षा के लिए, धन इकट्ठा करने का बीडा उठाया -
" देने का समय आया, देओ दिल खोल कर, बंधुओं बनो उदार बदला ज़माना है
देने में ही भला है हमारा औ तुम्हारा अब, नहीं देना याने नई आफत बुलाना है।
देश की सुरक्षा हेतु स्वर्ण दे के आज हमें, नए- नए कई अस्त्र- शस्त्र मँगवाना है
समय को परखो औ बनो भामाशाह अब, दाम नहीं अरे सिर्फ़ नाम रह जाना है।"

छ्त्तीसगढ के ठेठ देहाती कवि कोदूराम दलित ने विविध छंदों में छ्त्तीसगढ की महिमा गाई है। भाव - भाषा और छंद का सामञ्जस्य देखिए -
                          चौपाई छंद

"बन्दौं छ्त्तीसगढ शुचिधामा, परम - मनोहर सुखद ललामा
जहाँ सिहावादिक गिरिमाला, महानदी जहँ बहति विशाला।
जहँ तीरथ राजिम अति पावन, शबरीनारायण मन भावन
अति - उर्वरा - भूमि जहँ केरी, लौहादिक जहँ खान घनेरी ।"

                       कुण्डली

" छ्त्तीसगढ पैदा - करय अडबड चाँउर - दार
हवयँ लोग मन इहाँ के, सिधवा अऊ उदार ।
सिधवा अऊ उदार हवयँ दिन रात कमावयँ
दे - दूसर ला मान अपन मन बासी खावयँ ।
ठगथें ए बपुरा- मन ला वञ्चक मन अडबड
पिछडे हावय अतेक इही कारण छ्त्तीसगढ ।"

                         सार - छंद

" छ्न्नर छ्न्नर चूरी बाजय खन्नर खन्नर पइरी
हाँसत कुलकत मटकत रेंगय बेलबेलहिन टूरी ।
काट काट के धान - मढावय ओरी - ओरी करपा
देखब मा बड निक लागय सुंदर चरपा के चरपा ।
लकर धकर बपरी लइकोरी समधिन के घर जावै
चुकुर - चुकुर नान्हें बाबू ला दूध पिया के आवय।
दीदी - लूवय धान खबा-खब भाँटो बाँधय - भारा
अउहाँ झउहाँ बोहि - बोहि के भौजी लेगय ब्यारा।"

खेती का काम बहुत श्रम - साध्य होता है, किंतु दलित जी की कलम का क़माल है कि वे इस दृश्य का वर्णन, त्यौहार की तरह कर रहे हैं। इन आठ पंक्तियों से सुसज्जित सार छंद में बारह दृश्य हैं, मुझे ऐसा लगता है कि दलित जी की क़लम में एक तरफ निब है और दूसरी ओर तूलिका है, तभी तो उनकी क़लम से लगातार शब्द - चित्र बनते रहते है और पाठक भाव - विभोर हो जाता है, मुग्ध हो जाता है ।

निराला की तरह दलित भी प्रगतिवादी कवि हैं । वे समाज की विषमता को देखकर हैरान हैं, परेशान हैं और सोच रहें हैं कि हम सब, एक दूसरे के सुख - दुख को बाँट लें तो विषमता मिट जाए -

                             मानव की

" जल पवन अगिन जल के समान यह धरती है सब मानव की
हैं  किन्तु कई - धरनी - विहींन यह करनी है सब - मानव की ।
कर - सफल - यज्ञ  भू - दान विषमता हरनी है सब मानव की
अविलम्ब - आपदायें - निश्चित ही हरनी - है सब- मानव की ।"

                                     श्रम का सूरज

" जाग रे भगीरथ - किसान धरती के लाल आज तुझे ऋण मातृभूमि का चुकाना है
आराम - हराम वाले मंत्र को न भूल तुझे आज़ादी की - गंगा घर - घर पहुँचाना है ।
सहकारिता से काम करने का वक्त आया क़दम - मिला के अब चलना - चलाना है
मिल - जुल कर उत्पादन बढाना है औ एक - एक दाना बाँट - बाँट - कर खाना है ।"

                                     सवैया

" भूखों - मरै उत्पन्न करै जो अनाज पसीना - बहा करके
बे - घर हैं  महलों को बनावैं जो धूप में लोहू - सुखा करके ।
पा रहे कष्ट स्वराज - लिया जिनने तकलीफ उठा - करके
हैं कुछ चराट चलाक उडा रहे मौज स्वराज्य को पा करके ।"

गरीबी की आँच को क़रीब से अनुभव करने वाला एक सहृदय कवि ही इस तरह, गरीबी को अपने साथ रखने की बात कर रहा है । आशय यह है कि - " गरीबी ! तुम यहाँ से नहीं जाओगी, जो हमारा शोषण कर रहे हैं, वे तुम्हें यहाँ से जाने नहीं देंगे और जो भूखे हैं वे भूखे ही रहेंगे ।" जब कवि समझ जाता है कि हालात् सुधर नहीं सकते तो कवि चुप हो जाता है और उसकी क़लम उसके मन की बात को चिल्ला - चिल्ला कर कहती है -

                                      गरीबी

" सारे गरीब नंगे - रह कर दुख पाते हों तो पाने दे
दाने दाने के लिए तरस मर जाते हों मर जाने दे ।
यदि मरे - जिए कोई तो इसमें तेरी गलती - क्या
गरीबी तू न यहाँ से जा ।"

कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी कि गाय जो हमारे जीवन की सेतु है, जो ' अवध्या' है, उसी की हत्या होगी और सम्पूर्ण गो - वंश का अस्तित्व ही खतरे में पड जाएगा । दलित जी ने गो - माता की महिमा गाई है । बैलों की वज़ह से हमें अन्न - धान मिल जाता है और गो -रस की मिठास तो अमृत -तुल्य होती है। दलित जी ने समाज को यह बात बताई है कि-"गो-वर को केवल खाद ही बनाओ,उसे छेना बना कर अप-व्यय मत करो" -

                                    गो - वध बंद करो

" गो - वध बंद करो जल्दी अब, गो - वध बंद करो
भाई इस - स्वतंत्र - भारत में, गो - वध बंद करो ।
महा - पुरुष उस बाल कृष्ण का याद करो तुम गोचारण
नाम पडा गोपाल कृष्ण का याद करो तुम किस कारण ?
माखन- चोर उसे कहते हो याद करो तुम किस कारण
जग सिरमौर उसे कहते हो, याद करो तुम किस कारण ?
मान रहे हो देव - तुल्य उससे तो तनिक-- डरो ॥

समझाया ऋषि - दयानंद ने, गो - वध भारी पातक है
समझाया बापू ने गो - वध राम राज्य का घातक है ।
सब  - जीवों को स्वतंत्रता से जीने - का पूरा - हक़ है
नर पिशाच अब उनकी निर्मम हत्या करते नाहक हैं।
सत्य अहिंसा का अब तो जन - जन में भाव - भरो ॥

जिस - माता के बैलों- द्वारा अन्न - वस्त्र तुम पाते हो
जिसके दही- दूध मक्खन से बलशाली बन जाते हो ।
जिसके बल पर रंगरलियाँ करते हो मौज - उडाते हो
अरे उसी - माता के गर्दन- पर तुम छुरी - चलाते हो।
गो - हत्यारों चुल्लू - भर - पानी में  डूब - मरो
गो -रक्षा गो - सेवा कर भारत का कष्ट - हरो ॥"

शिक्षक की नज़र पैनी होती है । वह समाज के हर वर्ग के लिए सञ्जीवनी दे - कर जाता है । दलित ने बाल - साहित्य की रचना की है, बच्चे ही तो भारत के भविष्य हैं -

                    वीर बालक

"उठ जाग हिन्द के बाल - वीर तेरा भविष्य उज्ज्वल है रे ।
मत हो अधीर बन कर्मवीर उठ जाग हिन्द के बाल - वीर।"

अच्छा बालक पढ - लिख कर बन जाता है विद्वान
अच्छा बालक सदा - बडों का करता  है सम्मान ।
अच्छा बालक रोज़ - अखाडा जा - कर बनता शेर
अच्छा बालक मचने - देता कभी नहीं - अन्धेर ।
अच्छा बालक ही बनता है राम लखन या श्याम
अच्छा बालक रख जाता है अमर विश्व में नाम ।"

अब मैं अपनी रचना की इति की ओर जा रही हूँ, पर दलित जी की रचनायें मुझे नेति - नेति कहकर रोक रही हैं । दलित जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं । समरस साहित्यकार, प्रखर पत्रकार, सजग प्रहरी, विवेकी वक्ता, गंभीर गुरु, वरेण्य विज्ञानी, चतुर चित्रकार और कुशल किसान ये सभी उनके व्यक्तित्व में विद्यमान हैं, जिसे काल का प्रवाह कभी धूमिल नहीं कर सकता । हरि ठाकुर के शब्दों में -
" दलित जी ने सन् -1926 से लिखना आरम्भ किया उन्होंने लगभग 800 कवितायें लिखीं,जिनमें कुछ कवितायें तत्कालीन पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुई और कुछ कविताओं का  प्रसारण आकाशवाणी से हुआ । आज छ्त्तीसगढी में लिखने वाले निष्ठावान साहित्यकारों की पूरी पीढी सामने आ चुकी है किंतु इस वट - वृक्ष को अपने लहू - पसीने से सींचने वाले, खाद बन कर, उनकी जडों में मिल जाने वाले साहित्यकारों को हम न भूलें।"

साहित्य का सृजन, उस परम की प्राप्ति के पूर्व का सोपान है । जब वह अपने गंतव्य तक पहुँच जाता है तो अपना परिचय कुछ इस तरह देता है, और यहीं पर उसकी साधना सम्पन्न होती है -

                              आत्म परिचय

" मुझमें - तुझमें सब ही में रमा वह राम हूँ- मैं जगदात्मा हूँ
सबको उपजाता हूँ पालता- हूँ करता सबका फिर खात्मा हूँ।
कोई मुझको दलित भले ही कहे पर वास्तव में परमात्मा हूँ
तुम ढूँढो मुझे मन मंदिर में मैं मिलूँगा तुम्हारी ही आत्मा हूँ।"

शकुन्तला शर्मा, भिलाई                                                   
मो. 93028 30030                                                          
                                           
सन्दर्भ ग्रंथ
1- बहुजन हिताय बहुजन सुखाय - कवि - कोदूराम दलित
2- छ्त्तीसगढ के कुछ महत्वपूर्ण कवि - डा. बल्देव
3- सियानी गोठ - कवि -  कोदूराम दलित .  

  

6 comments:

  1. मनमोहक मनमोहन ब्लाग बुलेटिन को बहुत - बहुत धन्यवाद । आभार !

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  2. छत्तीसगढ़ के लोकप्रिय कवि कोदूराम दलित की रचनाओं व जीवन से परिचय करवाने के लिए आपका बहुत बहुत आभार..भारत के हर कोने में ऐसे जनप्रिय कवि हैं, जिनसे भारत भूमि धन्य है.

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  3. Ĺeķh achha hai lekin ling-dosh anek bar dikhai deta hai. kripaya sudharen. Kaushik Ganesh.Lekh men viram chihnhon par bhi dhyan den.

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  4. Lekh achha hai lekiñ aneķ jagah ling-dosh hai.Viŕam chihnon ka bhi dhyan rakhen.Ķaushik Ganesh

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  5. Ĺeķh achha hai lekin ling-dosh anek bar dikhai deta hai. kripaya sudharen. Kaushik Ganesh.Lekh men viram chihnhon par bhi dhyan den.

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  6. आदरणीय देश भक्त जन कवि स्व.कोदूराम जी ला सादर नमन

    " अपन - देश आज़ाद करे - बर, चलो जेल - सँगवारी
    कतको झिन मन चल देइन, आइस अब - हम रो- बारी।
    जिहाँ लिहिस अवतार कृष्ण हर,भगत मनन ला तारिस
    दुष्ट- जनन ला मारिस अउ, भुइयाँ के भार - उतारिस।
    उही किसम जुर - मिल के हम, गोरा - मन ला खेदारी
    अपन - देश आज़ाद करे बर, चलो - जेल - सँगवारी।"

    दलित जी की हर कविता में माटी की मनमोहक सुगन्ध है।
    शकुन्तला शर्मा दीदी को दलित जी से परिचय कराने के लिए सादर धन्यवाद।।

    मेरा भी एक कुण्डलिया दलित जी के नाम

    कहिथे जनकवि जेन ला, धरै शब्द भंडार।
    गाँधी वादी ओ रहै, कलम रहिस तलवार।।
    कलम रहिस तलवार, छन्द बिद्या के ज्ञानी।
    हास्य व्यंग्य मा पोठ, करै गा गोठ सियानी।।
    छत्तीसगढ़ी ठेठ, गाँव के बोली लिखथे।
    नावे कोदूराम, जेन ला जनकवि कहिथे।।


    -हेमलाल साहू
    ग्राम-गिधवा, पोस्ट-नगधा,
    तहसील -नवागढ़, जिला-बेमेतरा
    छत्तीसगढ़, मो. 9977831273

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