Monday 29 April 2013

इदन्नमम

कल रात अचानक किसी ने मुझे झकझोर कर जगाया | जगाने वाला कोई पुरुष था | मैंने
अनुमान लगाया कि कोई साहित्यकार होगा | उसने बहुत दुखी होकर मुझसे कहा - " हाँ
मैं तो आउट डेटेड  हो गया हूँ , है न ? तुमने तो मुझे दरकिनार कर ही दिया है , तो अब
पहचानने का प्रश्न ही कहाँ उठता है | "

मेरी आँखे बंद थीं , किन्तु मैं उन्हें अच्छी तरह देख रही थी | उन्होंने धोती पहन रखी थी
और बदन पर गाँवनुमा कुर्ता था | गले में  स्वच्छ , सफेद अँगोछा लटक रहा था | उनकी
दृष्टि में बड़प्पन की चमक थी | मैंने हाथ जोड़ कर कहा - " मुझे क्षमा कीजिए ! मैं जानती
हूँ कि आप मेरे बेहद करीब हैं , किन्तु मैं आपको पहचान नहीं पा रही हूँ | कृपया आप
अपना परिचय दीजिए | "

उनका चेहरा उतर गया , उन्होंने कातर दृष्टि से मुझे देखा - मानों कह रहे हों कि अब
अपना परिचय भी देना पड़ेगा ? फिर मेरी ओर उपालंभ दृष्टि डालते हुए , उन्होंने धीरे
से कहा - "मुझे मम्मट कहते हैं ।"

मारे आश्चर्य के मेरी आँखे खुल गईं | घड़ी में देखा , रात के दो बज रहे थे | अब मम्मट
का दयनीय चेहरा , मेरी आँखों से ओझल ही नहीं हो रहा था | मैं आत्मग्लानि से मरी
जा रही थी | वस्तुत: हुआ यह कल शाम को ही "काव्यप्रकाश " को मैंने अल्मारी से
हटाकर , पठेरा में रख दिया था , मेरे मन के किसी कोने को , यह बात अच्छी नहीं
लगी होगी , इसीलिये मैंने उन्हें , नींद में देख लिया और उनके विचार जान लिए |

मम्मट , मुझसे कह रहे थे - "बस परीक्षा पास करने के लिए ही , तुम लोग मुझे
पढ़ते हो | मुझे कभी समझने की चेष्टा ही नहीं की | कितने गैर जिम्मेदार  हो तुम
लोग | " मुझे उनकी डांट अच्छी लग रही थी | मैं सोचने लगी - वे ठीक ही तो कहते
हैं | हम अपने स्वार्थ में इतने अंधे हो चुके हैं कि हमारे पास सत - साहित्य को पढ़ने
के लिए समय ही नहीं है | सच कहूँ तो ये हमारे पूर्वज हैं | मम्मट , कालिदास ,
प्रेमचन्द, तुलसी , सूर , कबीर ,मीरा , महादेवी , निराला यही तो हमारे पूर्वज हैं | जब
भी मैं अपनी पुस्तक , किसी को भेंट करती हूँ , तो बरबस मेरे मुँह से निकल जाता है -
 "इदन्नमम | "
   
                                              शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]

Saturday 27 April 2013

आचार्यकुलम

आचारानाम कुलम = आचारकुलम l प्राचीन काल से ही हमारा देश , अध्यात्म , विज्ञान , कला एवं शिक्षा का
केन्द्र रहा है l भारत में विद्याध्ययन हेतु , सम्पूर्ण विश्व के जिज्ञासु आया करते थे l नालन्दा , तक्षशिला , काशी
हिन्दू विश्वविद्यालय एवं शान्तिनिकेतन इसके प्रत्यक्ष गवाह हैं l महात्मा गाँधी तो स्वयं , अनेक विद्यापीठ के
समान थे l विवेकानन्द ने सम्पूर्ण विश्व को ' वसुधैव - कुटुम्बकम' के दर्शन को  अनुभूति - परक शैली में
समझाया l आज उसी परम्परा को आगे बढ़ाने का काम , योगगुरु बाबा रामदेव ने किया है l
उन्होंने 'आचार्यकुलम ' की स्थापना के माध्यम से शंखनाद करते हुए यह कहा है कि हम
अपनी  पावन  परम्परा  के प्रवाह को , अवरुद्ध नहीं होने देंगे l यह कल कल  प्रवाहिनी
परम्परा चिरकाल तक प्रवाहित होती रहेगी और अध्यात्म एवं ज्ञान - विज्ञान के क्षेत्र में
एक नया अध्याय जोड़ती रहेगी l

इस अवसर पर मोरारी बापू ने कहा कि , योगगुरु बाबा रामदेव ने पहले आरोग्य दिया और
अब उनके 'आचार्यकुलम ' के माध्यम से , सम्पूर्ण विश्व को तीन तरह का अनुदान मिलेगा ,
शिक्षा , दीक्षा और भिक्षा l शिक्षा सत्य की , दीक्षा प्रेम की और भिक्षा करुणा की l आज
सम्पूर्ण विश्व उनकी ओर , आशा पूर्ण दृष्टि से निहार रहा है और बाबा , निरन्तर , चरैवेति की
शैली में , अपने कर्तव्य - धर्म का निर्वाह कर रहे हैं l उनमें बाल सुलभ सरलता है ----
' करती है फ़रियाद ये धरती कई हजारों साल तब होता है जाकर पैदा कोई माई का लाल l '
मोरारी बापू ने , नरेन्द्र मोदी की , प्रशंसा करते हुए कहा कि - हमारे गुजरात के मुख्यमंत्री
अपने राज्य को ऐसे चला रहे हैं , जैसे अनुष्ठान कर रहे हों l

गुरु शरणानंद जी ने कहा कि - वेदव्यास जी ने ' महाभारत ' में कहा है  ' यतो धर्म: ततो जय: l'
जहाँ धर्म है , वहाँ जय है किन्तु यहाँ यह समझना आवश्यक है कि धर्म की परिभाषा क्या है ?
जो समष्टि के लिए हितकर है , वही धर्म है l उन्होंने नरेन्द्र की तारीफ करते हुए कहा कि वे
चाणक्य की तरह हैं और गुणों की कद्र करना जानते हैं , वे विरोधी के गुणों की भी प्रशंसा करते
हैं , बिल्कुल उसी तरह जैसे चाणक्य ने , अपने विरोधी नंद के अमात्य 'राक्षस ' को चन्द्रगुप्त का
अमात्य बनाया l

नरेन्द्र मोदी ने कहा कि - इक्कीसवीं सदी ज्ञान की सदी है l भारत ने सदैव ज्ञान - विज्ञान का
नेतृत्त्व किया है और भविष्य में भी करेंगे , हम भारतीयों का यह संकल्प है l विवेकानन्द कहा
करते थे कि मैं अपनी आँखों से देख रहा हूँ कि मेरी भारतमाता  विश्वगुरु के रूपमें  प्रतिष्ठित हो
रही है l हमारी सरकार अपनी दमन- नीति  से हमे डराना चाहती है , अरे ! हमें अँग्रेज नहीं डरा
सके तो ये क्या चीज़ हैं ? श्रेष्ठता को नकारने से काम नहीं चलेगा , यह हजारों बरस पुरानी
सांस्कृतिक धरोहर है l यदि रामदेव बाबा किसी और देश में होते तो उनके ऊपर कई पी एच डी
हो गई होती l सात्विक शक्ति की अनदेखी नहीं होनी चाहिए l पतंजलि - पीठ ने बहुत उत्तम
कार्य किए हैं , बाबा रामदेव ने मूलभूत परंपराओं को पुनर्जागृत किया है l हमारी यह परम्परा
रही है कि राजतंत्र पर धर्मतंत्र का अंकुश हुआ करता था पर अभी उल्टा हो गया है और यही
देश की विकृति का कारण है l अब देश की जनता को निर्णय लेना है कि आखिर वह क्या
चाहती है l

आज चाहे साहित्य हो , संस्कृति हो , कला हो , कृषि हो , खेल - कूद हो , राजनीति हो या
व्यापार हो , सबका भविष्य , राजनेता और उनके प्यादे ही लिखते हैं और यही हमारे देश
का दुर्भाग्य है , अब देखिये ऐसी स्थिति में 'आचार्यकुलम ' क्या अपने दायित्व का निर्वाह
भली- भाँति कर पायेगा ?

                                       शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]

Sunday 21 April 2013

अहिंसा परमो धर्म: [ हाइकू ]

एक ----- मन में धीर
             पर दुःख की पीर
             वो महावीर l

दो ----- त्यागमय ,
           वस्त्र तक त्यागा
           मृत्युंजय l

तीन -- चेले भी आगे ,
           व्यापार में दौड़े
           सबसे आगे l

चार -- चिंतन धारा ,
           आयाम बहुत है
           सहस्त्र  -  धारा l

पाँच -- सर्वोपरि है ,
            अहिंसा परम है
            वह हरि है l

छ:-- वो महावीर ,
        जिसने मन जीता
        वीरों का वीर l

सात- त्यागमूर्ति ,
        महावीर स्वामी
        समत्वमूर्ति l

आठ- अहिंसक है ,
         मन वचन कर्म
         सहिष्णु है l

नव -- मन गंभीर ,
         कैसे दूर करूँ मैं
         पराई - पीर l

दस -- जो बनाते हैं ,
         बिगड़ी तकदीर
         महावीर हैं l

ग्यारह- हैं धीर - वीर ,
           पर- दुःख कातर
           हैं महावीर l

            शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ] 

   

Friday 19 April 2013

शुभ - भावना

संजीव  नाम   है  सुन्दर  प्यारा  तुम  सचमुच  संजीवन   हो
जीवन  यह   वरदान  मिला  है  उसका  ही  सुन्दर  दर्पण हो l
वतन से  बहुत  प्रेम है तुमको  तुम सबको  अपना  मानते हो
सुखदा शुभदा है साथ तुम्हारे तुम भली- भाँति यह जानते हो l
रत  रहते   हो   कर्मयोग   में   पर   उपकार  सदा   करते   हो
भिन्न -भिन्न रिश्तों में बंधकर आत्मीय भाव से ही जुड़ते हो l

                                        शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ] 

Thursday 18 April 2013

भारत स्‍वाभिमान



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शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]

Wednesday 17 April 2013

हाइकू

एक

प्रेम - प्रहार,
मिलन - विरह  हो, 
दोनों  अंगार ।

दो

प्रीत  की  डोर ,
नाज़ुक  बहुत  है ,
नहीं   है  छोर ।

तीन

अपना कौन ,
पता  नहीं  चलता ,
भला  है  मौन ।

चार

सम -  अर्पण ,
सुनने   में  भला  है ,
यह  तर्पण ।

पाँच

कहाँ  है  प्रेम  ,
मृग - मरीचिका  है ,
नहीं  है नेम ।

छ:

प्रेम   की  प्यास ,
आस  है तब भी  है ,
मन  उदास ।

सात

मन है  वही ,
जो निरंकुश सा  है ,
मानता नहीं ।

आठ

मन  सारथी ,
कहाँ ले  जा रहा है ,
कैसा  है साथी ।

नव

मन   की  पीर ,
नयन   भर  आए , 
बरसे   नीर ।

दस

प्रेम  की  गली ,
बहुत  सँकरी  है ,  
तिलांजली ।

ग्यारह

मन - दर्पण ,
हर  पल  माँगे  है ,
सम - अर्पण ।

बारह

प्रेम  में मन , 
नहीं  पाता है  चैन , 
बावरा  मन ।

तेरह

सीधी सी बात,
नहीं पूछी जाती है,
साधू की जात ।

चौदह

प्रीत की रीत ,
सब कुछ अर्पित ,
मन के मीत ।

पन्द्रह

पते की बात 
प्रेम की बिसात में,
प्रेमी की मात ।

सोलह

प्रेम की पाती ,
भाव अतिरेक में,
पढ़ी  न जाती ।

सत्रह

प्रेम  में  मन  ,
निर्मल   दर्पण , 
कंपित   मन ।

अठारह

प्रेम का  रंग ,
उनका  पदचाप ,
जल - तरंग ।

उन्नीस 

प्रीत की कड़ी 
हँसी की फुलझड़ी,
लड़ी की लड़ी ।

बीस

मन  संसार , 
अपने  में  मगन ,
प्रेम   है  सार  ।

इक्कीस

प्रेम की माला,
साँस जपती है ,
यही  है  हाला ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]

बताओ मैं कहाँ हूँ ? [ लघु - कथा ]

छत्तीसगढ़ की सुन्दरता अद्वितीय है , और उसमें हमारा बस्तर तो , छत्तीसगढ़ रूपी मुंदरी में जड़ा हुआ पन्ना है । मैं कुछ दिनों के लिए कोंडागांव गई थी । मेरे घर के सामने डोंगरी के पास , बच्चे खेलने आ जाते थे । मैं उन्हें टुकुर - टुकुर देखा करती थी , मुझे ऐसा लगता था , जैसे मैं भी उनमें से एक हूँ मनुष्य का देह तो बड़ा हो जाता है , पर उसका बचपन अपना मुँह बिचका - बिचका कर , उम्र भर अज़ीब सी शरारतें करता रहता है । वे बच्चे सबसे पहले ग्राम -- देवता की आराधना किया करते थे -

कला के नगरी कोंडागांव कतका सुघ्घर कोंडागांव मार्कन्डेय कोरा म बइठे सब ले सुघ्घर कोंडागांव दुनियाँ भर म   जस बगरे हे शिल्प - गाँव ए कोंडागांव खेती होथे संजीवनी के ओखदपुर ए कोंडागांव ।

रुख राई के बीच म बइठे ध्यान करत हे कोंडागांव दुनियाँ . भर ल बांहटत हावय कला नमूना कोंडागाँव निखरय कला गाँव के कीर्ति सदा रहय संतोष के छाँव प्रभु से हावय एही प्रार्थना बनय कल्परुख कोंडागांव ।

प्रार्थना करने के बाद वे बच्चे , सलफी के आम के और पीपल के रुख के पीछे छिप जाते थे और जोर से चिल्ला कर पूछते थे - ' बताओ मैं कहाँ हूँ ? ' देखते - देखते वे बच्चे मेरे अन्तर्मन के बच्चे से घुल - मिल गए । प्यास लगने पर मुझसे पानी माँगना और कई तरह के बहाने बनाकर , मेरे करीब आना और मेरे द्वारा घंटों उनका इंतज़ार करना , एक तरह से हमारी आदत में शुमार हो गया । जिस दिन उन्हें आने में देर हो जाती , मैं बिस्किट का पैकेट और लोटा - गिलास में पानी लेकर , उनके सामने बैठ जाती और फिर वे मुझे अपनी व्यस्तता बताते हुए कहते -'आंटी थोड़ा धीरज रखिये , हम लोग थोड़ी देर में आयेंगे । हमें अभी प्यास नहीं लगी है । ' उनका मना करना भी मुझे उतना ही अच्छा लगता , जितना उनका मुस्कुराते हुए दौड़कर आना । बिस्किट का पैकेट खोलने पर फूलो जोर से कहती - आंटी बस सबको एक - एक दे दीजिये , इससे ज्यादा हम लोगों से नहीं खाया जाएगा , है न लालू ? और फिर मज़ाल है कि कोई बच्चा , और बिस्किट ले ले । फूलो का फतवा सुनकर , मेरी आँखों में पानी आ जाता था , पर मैं उन बच्चों को एक से ज्यादा बिस्किट कभी नहीं खिला पाई । मैं तरसकर रह गई । मैं इतनी दीन हीन कभी नहीं हुई थी , जितना इन बच्चों ने मुझे बना दिया था ।

अचानक एक दिन वे बच्चे खेलने नही आये । मैं रुआँसी होकर उनकी खोज - खबर लेने पहुँची । मुझे पता चला कि फूलोदई और राजोदई को नक्सली, उठा कर ले गए हैं । फूलो तेरह बरस की और राजो ग्यारह बरस की थी ।

मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई । मैंने इन दोनों बच्चों के लिए साधना, अनुष्ठान, मंत्र - जप सब कुछ किया साथ साथ रोना - गाना भी चलता ही रहा । अचानक तीन महीने बाद , वे दोनोँ आईं पर वे अब घर से बाहर नहीं निकलतीं । मैं उनके घर गई । उनकी माँ से मिली तो पता चला कि वे दोनों बच्चियाँ , नक्सलियों की हवस की शिकार हो चुकी हैं । बुझी - बुझी सी उनकी आँखें और सूखा हुआ उनका चेहरा , वह सब कुछ बयान कर रहा था , जो बच्चियों ने अपने मुँह से नहीं कहा ।

दोनोँ बच्चियों से मिलकर जब मैं वापस लौट रही थी , तो उनकी माँ वेदवती , मुझे मिली । उसने जोर जोर से रोते हुए , मुझसे कहा - ' दीदी ! इससे तो अच्छा होता कि नक्सली इन्हें मार डालते । मैं किस - किस के सवालों का जवाब दूँ ? इनका बाप तो घर - बार छोड़ कर कहीं चला गया है , पर इन दोनों का मुँह देख कर मैं कहीं जा भी नहीं पा रही हूँ । ' मैंने समझाया कि - ' इन्हें पढाओ - लिखाओ । जब ये दोनों अपने पैरों पर खड़ी हो जायेंगी , तब तुम इन पर गर्व करोगी । हिम्मत रखो , मैं तुम्हारे साथ हूँ । '

दस - पन्द्रह दिन बाद , नक्सली फिर , इन्हीं बच्चियों को उठा कर ले गए और आज तक , उनकी कोई खबर नहीं है । उनकी माँ भी आज कल दिखाई नहीं देती । उनके घर का कपाट खुला हुआ है , पर घर में कोई नहीं है ।

मुझे रात - रात भर नींद नहीं आती । मैं फफक - फफक कर रोती हूँ और डोंगरी के बीच से , सलफी और पीपर - पेड़ के पीछे से मुझे फूलो और राजो की आवाज़ सुनाई देती है । वे मुझसे पूछतीं हैं -' आंटी ! बताओ मैं कहाँ हूँ '।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]

Saturday 13 April 2013

हाइकू


एक


मोदी बनता
प्रधानमंत्री फिर
देश बढ़ता ।


दो


मोरार भाई
गॉंधी, शास्‍त्री भी है
नरेन्‍द्र भाई ।

तीन


नरेन्‍द्र भाई
ज्‍यों लौट आए
वल्‍लभ भाई ।


चार


मोदी के नैन
इतिहास लिखते
अनूठे बैन ।


पांच


मोदी सा शेर
दिल्‍ली में हो तो रिपु
हो जाऍं ढेर ।


छ:


नरेन्‍द्र मोदी
देश का भविष्‍य

आशायें बो दी ।


सात


मोदी का यश
उन्‍हें न भाए पर
है परवश ।


आठ


सुरक्षित है
देश मोदी के साथ
अभीप्सित है l 


शकुन्तला शर्मा
भिलाई [छ ग ]

Friday 12 April 2013

मैं हूँ नारी

                 मैं हूँ  नारी  मैं मां हूँ  बेटी  हूँ प्रेम - शावक को मैं  ही सेती  हूँ
                 मेरी आँखों में  प्रेम पलता  है पीर  लेती हूँ सुख  मैं  देती  हूँ l
                  मैं हूँ नारी

                  प्रेयसी  बन मैं  थामती नर को हर पुरुष  बिन मेरे  अधूरा है
                  मैं  ही अर्धांगिनी हूँ प्रियतम की घर मुझसे ही  होता पूरा हैl
                   मैं हूँ नारी

                  मैं  ही परिवार की  प्रतिष्ठा हूँ घर - आँगन  को  मैं  सजाती  हूँ
                  मैं ही बचपन सँवारती  सबका गीत  शैशव के लिए गाती हूँ l
                  मैं हूँ नारी

                  मैं  सुनाती  हूँ  पंचतंत्र  कथा  मैं  ही आल्हा  उसे  सुनाती  हूँ
                  वेद - शास्त्रों  का ज्ञान  देती हूँ मैं  ही मानव उसे बनाती  हूँ l 
                   मैं हूँ नारी

                 धन  पराया   हूँ फिर  भी  मैं  ही  तो वल्लरी  वंश की  बढ़ाती हूँ
                 जन्म लेने दो मुझको मत मारो कल के वैभव की नई थाती हूँ l
                  मैं   हूँ नारी

                                               शकुन्तला शर्मा
                                                भिलाई [छ ग ]

Thursday 11 April 2013

गज़ल

                                         
अपने सुख - दुःख के स्वामी तुम्हीं हो सखे अपनी मर्ज़ी से तुमने ये सुख - दुःख चखे
कर्म   का   फल  तो   मिलता  है  संसार  में   आजमा   लो   यही  बात  सच  है  सखे l

कोई  दूजा  तुम्हें  दुःख   नहीं  देता  है  अपनी  मर्ज़ी  से  दुःख  पाते   हो   तुम   सखे
बात  इतनी सी है तुम  भी  यह  जान  लो  सुख  है  सत्कर्म , दुष्कर्म  दुःख  है  सखे l

                   मैंने भोगा  है तू भी  'शकुन ' जान  ले
                   मुश्किलें हैं बहुत सच के पथ पर सखे l

                                                शकुन्तला शर्मा
                                                भिलाई [छ ग ]

नव संवत्सर फिर आया है

                               
                 चरैवेति से कर्म  करो तुम संदेश यही फिर लाया है
                 देशी खाओ देशी  पहनो इस दर्शन को दोहराया है l

                 देश का  हित  है सबसे  पहले यही बताने  आया  है
                 जागो जागो सब नर नारी आह्वान यही वह लाया है l 

                 पृथ्वी है परिवार  हमारा यही  गान उसने  गाया  है
                 हम सब आपस में प्रेम करें यह मंत्र बताने आया है l

                 शुभ  चिंतक है सखा हमारा देस राग इसने गाया है
                 हर मन में हो उत्साह हर्ष वह यही सिखाने आया है l

                 मेहनत का फल सबसे मीठाहै पुन:पुन:समझाया है
                 ईश्वर का वरदान है यह फिर हमें  जगाने  आया है l

                                                       शकुन्तला शर्मा
                                                        भिलाई [छ ग ]

Tuesday 9 April 2013

मेरे सहचर

                             
जब - जब मैं चलते - चलते  लड़खड़ाई  मेरे  गीतों  ने मुझे  थाम लिया
जब - जब  मैं   निराश  हुई  मेरी   कविताओं   ने  मुझे   सहारा   दिया l

जब - जब   मैं  रोई   मेरी   कहानियों   ने  मुझे  गले  से  लगा   लिया
जब - जब   मैं   अकेली   हुई   मेरे  निबंधों  ने  मेरा   साथ   निभाया l

जब - जब मैं जीवन समर में हारी मेरी गजलों ने  मुझे  हौसला दिया
जब - जब  मैं  टूट  कर  बिखरी  मेरे  हाइकू  ने  मुझे  संभाल  लिया l

जब  मैं दीन - हीन हुई मेरे नाटकों ने मुझे आत्मविश्वास से भर दिया
मेरी  बेवकूफी  को   मेरे   सहचरों  ने  अपने  दामन  में  छिपा लिया l

जब - जब मुझे अहंकार ने  छुआ  मेरे सहचरों  ने  मुझे  उबार  लिया
मेरी कमियों को उजागर करके कसौटी पर कसने का उपक्रम किया l

                                           शकुन्तला शर्मा
                                            भिलाई [छ ग ]

Monday 8 April 2013

आमचो बस्तर

बहुत दिनों बाद मै कांकेर जा रही थी । कांकेर की ब्यूटी एकदम अलग है । यह दूध नदी के तट पर , गड़िया पहाड़ की तलहटी में बसा हुआ है । वहाँ पर छोटे बड़े विभिन्न आकार प्रकार के बहुत ही खूबसूरत पत्थर , रास्तों के दोनों ओर , चुलबुले बच्चों की तरह दिखाई देते हैं । साथ चलने के लिए मचलते हैं । मेरी इनसे दोस्ती हो गई है । ये मुझसे बातें करते हैं । कहते हैं - 'शकुन ! तुम बहुत मतलबी हो । भिलाई पहुँचकर हमें भूल जाती हो ! हमें तुम्हारी बहुत याद आती है । तुम्हें याद है न ! जब तुम पिछली बार हमसे मिलने आई थी तो हम लोग कितनी मस्ती किए थे , है न ? तुमने हमें ' निराला ' की वह कविता सुनाई थी , जिसमे हमारा भी जिक्र हुआ है ।

वह कविता हमें याद है - 'वह तोड़ती पत्थर , देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर । '

पिछली बार तुमने हमसे कहा था कि पन्ना , पुखराज , माणिक और नीलम भी हमारे ही वंशज हैं , मेरे मस्तक पर हाथ रखकर तुमने बड़े प्यार से कहा था कि - ' हे शिलाखण्ड ! तुम पर मुझे गर्व है । तुम मुझे गोवर्धन की तरह लगते हो , क्योंकि तुम भी तो गो - वर्धन में सहयोग करते हो । तुम्हारे आस - पास गोचर होता है , जिससे गायों को भोजन मिलता है । गाय हमें गो - रस देती है । हमें स्वस्थ ,सुन्दर एवं समृद्ध बनाती है, तुम लोग बहुत अच्छे हो , मेरे दोस्त !'

सुनो न शकुन ! जैसे तुम लोग , बाघ , हाथी ,वन - भैसा आदि के लिए अभ्यारण्य बनाते हो वैसे ही हम पत्थरों के लिए क्यों नही बनाते ? हम भी तो तुम्हारी धरोहर हैं ,फिर तुम लोग हमें ,जंगलों में ऐसे ही अदियावन क्यों छोड़ देते हो ? हम अलग - अलग चेहरे से तुम्हारा शहर , जंगल , पर्वत ,पठार सब कुछ तो सजाते हैं और पशु- पक्षियों की तरह तुमसे , कुछ खाने को भी नही मांगते , फिर भी तुम लोग हमें प्यार क्यों नहीं करते ?

शकुन ! तुम लोग पाखण्ड क्यों करते हो ? एक ओर तो गाय की पूजा करते हो , गो - माता कहते हो , दूसरी ओर जब वह बूढ़ी हो जाती है , तो उसे , थोड़े से पैसों में बेच देते हो , ताकि तुम्हारी सरकार उसे कत्ल - खाने भेज कर , उसकी निर्मम हत्या कर सके l अपने दोहरे चरित्र से क्या तुम लोग तनिक भी शर्मिन्दा नही होते ? वैसे मैं तुम्हें बता दूँ कि आज - कल , जैविक खेती करने वाले लोग गो - मूत्र को 15 रू लिटर में खरीद रहे हैं और गोबर भी अच्छी कीमत में बिक रहा है । शकुन !भारत में गायों की निर्मम हत्या होगी , ऐसा हमने कभी सोचा भी नहीं था l तुम गो - रक्षा के लिए कुछ करती क्यों नहीं ? ' अचानक वह चुप हो गया ।

गोवर्धन जिन परिस्थितियों में अचानक जिस ढंग से चुप हुआ , उसने मुझे अंदर से हिला दिया वह जब गो - हत्या के बारे में बता रहा था , तो मुझे ऐसा लगा , जैसे वह सिसक रहा है और उसे साँस लेने में तकलीफ हो रही है । वह हांफते - हांफते बोल रहा था और अचानक रुक गया था , फिर उसके सहोदर कैलाश ने मुझसे कहा - ' शकुन ! तुम जल्दी आओ l पता नहीं गो - वर्धन को क्या हो गया है , हम सबकी जान खतरे में है शकुन! तुम आ जाओ । कुछ मत पूछो । यहाँ आकर हमारी दुर्गति तुम खुद ही देख लो । तुम खुद ही समझजाओगी । '

मैं तुरन्त अपनी गाड़ी से कांकेर के लिए रवाना हो गई l रास्ते भर मैं बेचैन रही कि मेरे दोस्तों के साथ कुछ गलत न हो गया हो l जब मैं वहाँ पहुँची तो गो - वर्धन के प्राण - पखेरू उड़ गए थे, वह जगह - जगह से क्रेक हो चुका था , मेरे सभी दोस्त भी मरनासन्न हो चुके थे l मैंने कैलाश से पूछा तो उसने मुझे गुस्से से देखा और कहा - ' हमे देखकर भी क्या तुम्हें समझ में नहीं आता कि हमें हुआ क्या है ? हमें ध्यान से देखो और खुद

हमारी पीड़ा को महसूस करो । '

जब मैंने उन्हें ध्यान से देखा , तो मुझे पता चला कि किसी ने उन सबके शरीर पर 'x' बना दिया है । उनकी बुझी - बुझी आँखें मुझे टकटकी लगाए देख रही थीं और मैं उनके सामने बेबस बनकर , फूट - फूट कर रो रही थी ।

शकुन्तला शर्मा
भिलाई [छ ग ]

Sunday 7 April 2013

गज़ल

                                                           
               छत्तीसगढ़ही गरु गुरतुर है हिंदी जितनी ही प्यारी है
               हिंदी जैसी  ही  सुन्दर  है  हिंदी जितनी ही प्यारी है l

               सरल सरस समरस भी है इसका अपना आकर्षण है
               अपरा परा गुनगुनाती है हिंदी जितनी ही प्यारी है l

               वेद शास्त्र सब गा सकती है सबकी व्याख्या करती है
               ओजस्वी आभा मण्डल है हिदी जितनी ही प्यारी है l

               रूप है गुण है सम्मोहन है महतारी जैसी महिमा  है l
               प्राणी अनायास खिंचता है हिंदी जितनी ही प्यारी है l

               स्पर्श राम का यह पाई है यह तो  महानदी  जैसी  है
               शबरी गाथा यह गाती  है हिंदी जितनी ही प्यारी है l

               अति उदार संस्कृति वाली है भेद भाव से यह ऊपर है
              ' शकुन 'यह बानी बहुत मधुर है हिंदी जितनी प्यारी है l

                                                                   शकुन्तला शर्मा
                                                                   भिलाई [छ ग ]           

Saturday 6 April 2013

मेरे सब कुछ

                                     
इतने दिनों के बाद तुम्हारा घर लौटना ,मन को उद्वेलित कर रहा है
तुम्हारा नित नूतन स्पर्श देह  में सिहरन भर रहा है .

असंख्य महाकाव्यों से भरी तुम्हारी ऑंखें ,मुझे भावशून्य बना देती हैं
मेरे होठों में दबे शब्द , तुम्हारे पास जाने से कतराते हैं .
दुबक कर छिप जाते हैं , रात में सरगोशी के लिए .

तुम सचमुच वात्स्यायन हो , तुम्हारी हर चेष्टा मोहक है
तुम्हारा चुप रहना भी उतना ही मुखर है जितना तुम्हारा बोलना .

तुम्हारी शरारतें , तुम्हारे निश्छल मन की बयानबाजी है
मैं तुम्हारी सरलता  पर मुग्ध  हूँ , तुम्हारे होंठों के स्पर्श से ,
जो शब्द थिरकते हुए लहराते हैं ,वे मुझे मन्त्र जैसे लगते हैं .

तुम्हारे व्यक्तित्व में सम्मोहन है , मैं जान चुकी हूँ कि
मैं चाहे जितनी तुम्हारी शिकायतें करूं पर
तुम्हारे बिना जी नही सकती .

तुम मेरी धडकन हो , मेरा चिन्तन मनन निदिध्यासन हो.
एक शब्द में कहूँ , तो तुम्हीं मेरे जीवन का फागुन हो ,
होली का रंग हो , सुखद तरंग हो ,
तुम्हीं अनँग हो , तुम्हीं अनंग हो .

                                                 शकुन्तला शर्मा
                                                 भिलाई [छ ग ]