Thursday 31 October 2013

सूक्त - 142

[ऋषि-शार्ङ्गा-जरिता-द्रोण-सारिसृक्व-स्तम्बमित्र। देवता-अग्नि।त्रिष्टुप-जगती-अनुष्टुप्।]

10327
अयमग्ने जरिता त्वे अभूदपि सहसः सूनो नह्य1न्यदस्त्याप्यम् ।
भद्रं  हि शर्म त्रिवरूथमस्ति त आरे हिंसानामप दिद्युमा कृधि ॥1॥

तुम्हीं   हमारे  ध्येय - श्रेय   हो  हम  तुमसे  विनती  करते   हैं ।
नहीं  तुम्हारे  सिवा  है  कोई   प्रभु  रक्षा  करो  यही  कहते  हैं ॥1॥

10328
प्रवत्ते  अग्ने  जनिमा  पितूयतः  साचीव  विश्वा भुवना न्यृञ्जसे ।
प्र सप्तयः प्र सनिषन्त नो धियः पुरश्चरन्ति  पशुपाइव त्मना ॥2॥

हे  ज्योति - पुञ्ज  हे  अग्नि- देव  तुम्हीं  बन्धु  हो  सखा  हमारे ।
तुम  जब  हविष्यान्न  लेते  हो  परिपोषित  होते  प्राण हमारे ॥2॥

10329
उत   वा  उ  परि  वृक्षणि   बप्सद् बहोरग्न   उलपस्य  स्वधावः ।
उत  खिल्या  उर्वराणां  भवन्ति  मा  ते हेतिं तविषीं चुक्रुधाम ॥3॥

क्रोध   कभी   न  करना   भगवन   तुम  अतुलित  बलशाली  हो ।
भूमि  सदा  ही  उर्वर  रखना  हर  खेत  में  धान  की बाली हो ॥3॥

10330
यदुद्वतो    निवतो    यासि    बप्सत्पृथगेषि    प्रगर्धिनीव   सेना ।
यदा   ते  वातो  अनुवाति  शोचिर्वप्तेव  श्मश्रु  वपसि  प्र  भूम ॥4॥

हे  अग्नि - देव  तुम  इस  पृथ्वी  की  सदा - सदा  रक्षा  करना ।
जग  में  कहीं  जले  न  जंगल  सब के सुख का ध्यान रखना ॥4॥

10331
प्रत्यस्य    श्रेणयो    ददृश्र    एकं    नियानं    बहवो    रथासः ।
बाहू    यदग्न    अनुमर्मृजानो   न्यङ्ङुत्तानामन्वेषि   भूमिम् ॥5॥

हे  अग्नि- देव  धधके  न  धरती  मातृभूमि  की  करो  सुरक्षा ।
हे  प्रभु  प्राञ्जल  पावन  पावक  करना  जीव जगत की रक्षा ॥5॥

10332
उत्ते  शुष्मा  जिहतामुत्ते  अर्चिरुत्ते   अग्ने  शशमानस्य  वाजा: ।
उच्छ्व्ञ्चस्व नि नम वर्धमान आ त्वाद्य विश्वे वसवः सदन्तु ॥6॥

हे  अग्नि - देव  बस  यह  विनती  है  कृपा-दृष्टि  हरदम  रखना ।
क्रोध   तुम्हारा   सह्य   नहीं   है   शान्त - भाव   में  ही  रहना ॥6॥

10333
अपामिदं           न्ययनं               समुद्रस्य            निवेशनम्  ।
अन्यं    कृणुष्वेतः     पन्थां     तेन     याहि      वशॉं      अनु ॥7॥

हे  प्रभु  जल - थल  दोनों  में  ही  उग्र - रूप  नहीं  धारण  करना ।
जल- थल- नभ-जड-जीव सभी को सदा सुरक्षित तुम रखना ॥7॥

10334
आयने        ते         परायणे       दूर्वा         रोहन्तु       पुष्पिणीः ।
ह्रदाश्च         पुण्डरीकाणि          समुद्रस्य         गृहा         मे  ॥8॥

हे   अग्नि - देव   है   यही  प्रार्थना  वनस्पतियों  की  रक्षा  करना ।
सरोवरों  में  कमल  खिला  हो  अपनी-ऑंच से बचा के रखना ॥8॥  


     

Wednesday 30 October 2013

सूक्त - 143

[ऋषि- अत्रि सांख्य । देवता- अश्विनी कुमार । छन्द- अनुष्टुप ।]

10335
त्यं    चिदत्रिमृतजुरमर्थमश्वं    न    यातवे ।
कक्षीवन्तं यदी पुना रथं न कृणुथो नवम् ॥1॥

हे  अश्विनीकुमार  तुम्हीं  ने  काया  का  जीर्णोध्दार  किया ।
कक्षीवान अत्रि ऋषि द्वय को पुनः यौवन प्रदान कर दिया ॥1॥

10336
त्यं    चिदश्वं    न    वाजिनमरेणवो   यमत्नत।
दृळहं ग्रन्थिं न वि ष्यतमत्रिं यविष्ठमा रजः ॥2॥

असुरों  ने  गति को बॉध लिया था तुमने पुनः गॉंठ खोली है ।
स्वतंत्र हुईं फिर देव शक्तियॉं मुक्त-मधुर-स्वर की बोली है ॥2॥

10337
नरा    दंसिष्ठावत्रये   शुभ्रा    सिषासतं   धियः ।
अथा हि वां दिवो नरा पुनः स्तोमो न विशसे ॥3॥

हे प्रभु कर्म-कुशल बन जायें तुमसे यह विनती करते हैं ।
हे शुभ्र-वर्ण हे सुंदर नायक गति दो मति दो यह कहते हैं ॥3॥ 

10338
चिते  तद्वां  सुराधसा रातिः सुमतिरश्विना ।
आ यन्नः सदने पृथौ समने पर्षथो नरा ॥4॥

तुम्हीं  अन्नदाता  हो  भगवन  रक्षा  करना सदा हमारी ।
भाव हमारे अति निर्मल हैं स्तुति करते हैं सदा तुम्हारी ॥4॥

10339
युवं भुज्युं समुद्र आ रजसः पार ईङ्खितम् ।
यातमच्छा पतत्रिभिर्नासत्या सातये कृतम् ॥5॥

डूबते   हुए   को  सदा  बचाया  लेकर   हाथों  में  पतवार ।
धन- ऐश्वर्य  हमें  भी दो प्रभु समर्थ बनें हम भी हर बार ॥5॥

10340
आ वां सुम्नैः शंयूइव मंहिष्ठा विश्ववेदसा ।
समस्मे भूषतं नरोत्सं न पिप्युषीरिषः ॥6॥

तुम  पूजनीय  हो  सदा  हमारे  धन-धान  हमेशा  ही देना ।
कोई अभाव न हो जीवन में बस तुम हमको अपना लेना॥6॥   

सूक्त - 144

[ऋषि- ऊर्ध्वकृशन यामायन । देवता- इन्द्र । छन्द-गायत्री-बृहती-पङ्क्ति।] 

10341
अयं हि ते अमर्त्य इन्दुरत्यो न पत्यते ।
दक्षो                         विश्वायुर्वेधसे ॥1॥

हे   सृष्टि   बनाने   वाले  भगवन  मेरा  भी  कल्याण  करो ।
अमृत-स्वरूप बल-वर्धक औषधि हमें अवश्य प्रदान करो ॥1॥

10342
अयमस्मासु     काव्य      ऋभुर्वज्रो      दास्वते ।
अयं बिभर्त्यूर्ध्वकृशनं मदमृभुर्न कृत्व्यं मदम् ॥2॥

जो सज्जन सत-पथ गामी हैं वज्र तुम्हारा उनका  रक्षक हो ।
रक्षा करना प्रभु सदा हमारी हम भक्तों के तुम ही पोषक हो ॥2॥

10343
घृषुःश्येनाय कृत्वन आसु स्वासु वंसगः।अव दीधेदहीशुवः॥3॥

रहे  तुम्हारी  प्रजा  सुरक्षित  हे  इन्द्र-देव  विनती  करते  हैं ।
नित कर्म-योग में लगे हैं तुमसे संतति की याचना करते हैं॥3॥

10344
यं सुपर्णः परावतः श्येनस्य पुत्र आभरत् ।
शतचक्रं           यो3ह्यो         वर्तनिः  ॥4॥

दुष्ट - दलन  करते  रहना  प्रभु  संत-जनों  की  रक्षा  करना ।
वृत्रा-वध अति आवश्यक है सज्जन पर वरद- हस्त रखना ॥4॥

10345
यं ते श्येनश्चारुमवृकं पदाभरदरुणं मानमन्धसः ।
एना वयो वि तार्यायुर्जीवस एना जागार बन्धुता ॥5॥

अन्न- धान  के  तुम्हीं  प्रदाता  यही  प्रार्थना  हम  करते हैं ।
अन्न-आयु भर-पूर मिले  प्रभु सत्कर्म  हेतु तत्पर रहते हैं ॥5॥

10346
एवा   तदिन्द्र   इन्दुना   देवेषु   चिध्दारयाते   महि  त्यजः ।
क्रत्वा   वयो  वि  तार्यायुः  सुक्रतो  क्रत्वायमस्मदा  सुतः ॥6॥

हे  शक्ति- पुञ्ज हे अग्नि- देव  तुम  ही  समर्थ  संरक्षक  हो ।
लंबी -आयु  तुम्हीं  देना  प्रभु तुम ही तो पालक-पोषक हो ॥6॥


 

सूक्त - 145

[ऋषि- इन्द्राणी । देवता- उपनिषत् । छन्द- अनुष्टुप-पङ्क्ति ।]

10347
इमां   खनाम्योषधिं   वीरुधं  बलवत्तमाम् ।
यया सपत्नीं बाधते यया संविन्दते पतिम्॥1॥

जीवन- दायिनी  ये औषधियॉ  तन-मन का पोषण करती हैं ।
अधिकतर लता-मयी औषधियॉ रूप-राशि वर्धित करती हैं॥1॥

10348
उत्तान - पर्णे   सुभगे   देवजूते  सहस्वति ।
सपत्नीं  मे  परा  धम पतिं मे केवलं कुरु ॥2॥

हे  उत्तान - पर्ण  औषधियॉ  रूपवती  तुम  मुझे  बना  दो ।
प्रसन्न रख  सकूँ अपने पति को ऐसा रूप और गुण दे दो ॥2॥

10349
उत्तराहमुत्तर                  उत्तरेदुत्तराभ्यः ।
अथा  सपत्नी  या ममाधरा साधराभ्यः ॥3॥

हे  सञ्जीवनी औषधि  देवी  तुम मुझे श्रेष्ठ-उत्कृष्ट बनाओ ।
मेरे भीतर के षड्-रिपु को शीघ्राति-शीघ्र तुम दूर भगाओ ॥3॥

10350
नह्यस्या नाम गृभ्णानि नो अस्मिन्रमते जने ।
परामेव    परावतं    सपत्नीं    गमयामसि ॥4॥

मैं  पति  की  प्यारी  बन  जाऊँ  पाऊँ  उनका पावन प्यार ।
जनम-जनम तक साथ रहें कभी भी कम न हो यह ज्वार॥4॥

10351
अहमस्मि सहमानाथ त्वमसि सासहिः ।
उभे  सहस्वती  भूत्वी  सपत्नीं मे सहावहै ॥5॥

हे  देवी  तुम  भी  साथ  निभाना  पति-परमेश्वर  हों न दूर ।
तुम  समर्थ हो  मुझे  भी  देना  पिया-प्रीत  पाऊँ भर-पूर ॥5॥

10352
उप     तेSधां      सहमानामभि       त्वाधां         सहीयसा ।
मामनु प्र ते मनो वत्सं गौरिव धावतु पथा वारिव धावतु ॥6॥

सौन्दर्य-स्वामिनी  मैं  बन  जाऊँ  ऐसा  सुन्दर  देना रूप । 
रूप  के  संग  मधुरता  देना  अक्षय  हो  सौन्दर्य- अनूप ॥6॥  

 

Tuesday 29 October 2013

सूक्त - 146

[ऋषि- देवमुनि ऐरंमद । देवता- अरण्यानी । छन्द- अनुष्टुप ।]

10353
अरण्यान्यरण्यान्यसौ     या    प्रेव     नश्यसि ।
कथा ग्रामं न पृच्छसि न त्वा भीरिव विदन्तीं3॥1॥

अरण्य- भ्रमण में हे वन- देवी जाने  कहॉं तुम खो जाती हो ।
निर्जनवन में भय नहीं लगता क्यों गॉंव में नहीं आती हो॥1॥

10354
वृषारवाय   वदते   यदुपावति   चिच्चिकः ।
आघाटिभिरिव धावयन्नरण्यानिर्महीयते ॥2॥

कोई  बैल  समान  बोलता  कोई  चीं-चीं  सुर  धरता  है ।
मानो वीणा के सुर में वन-देवी का अभिनन्दन करता है ॥2॥

10355
उत    गावइवाद्न्त्युत    वेश्मेव     दृश्यते ।
उतो अरण्यानिः  सायं शकटीरिव सर्जति ॥3॥

इस  गोचर  में  गायें  चरतीं  लता- वितान से  बनता घर ।
शाम  को लकडी  भरी गाडियॉं  जाती  हैं जंगल से शहर ॥3॥ 

10356
गामङ्गैष आ ह्वयति दार्वङ्गैषो अपावधीत् ।
वसन्नरण्यान्यां सायमक्रुक्षदिति मन्यते ॥4॥

गो - माता  को  कोई  बुलाता  कहीं  काष्ट कटता रहता है ।
जो वन में निवास करता है भय-भीत बहुत वह रहता है ॥4॥

10357
न    वा   अरन्यानिर्हन्त्यन्यश्चेन्नाभिगच्छति ।
स्वादोः फलस्य जग्ध्वाय यथाकामं नि पद्यते ॥5॥

यदि मन में हिंसा- भाव न हो वन में शांति से रह सकते हैं ।
जंगल के  मीठे  फल खा कर सुख से जीवन जी सकते हैं॥5॥

10358
आञ्जनगन्धिं सुरभिं बह्वन्नामकृषीवलाम् ।
प्राहं मृगाणां मातरमरण्यानिमशंसिषम् ॥6॥

कस्तूरी  सुगन्धि  फैलाती  कन्द- मूल- फल से भर-पूर ।
मृग की  माता है वन- देवी हो गई भले ही किञ्चित् दूर ॥6॥

 

सूक्त - 147

[ऋषि- सुवेदस शैरीष । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती , त्रिष्टुप ।]

10359
श्रत्ते    दधामि    प्रथमाय    मन्यवेSहन्यद्वृत्रं    नर्यं   विवेरपः ।
उभे यत्त्वा भवतो रोदसी अनु रेजते शुष्मात्पृथिवी चिदद्रिवः॥1॥

भोर में जब मानव उठता है तो जो पहला चिन्तन होता है ।
उस चिन्तन पर मेरी श्रध्दा है उस पर ही भरोसा होता है ॥1॥

10360
त्वं मायाभिरनवद्य मायिनं श्रवस्यता मनसा वृत्रमर्दयः ।
त्वामिन्नरो वृणते गविष्टिषु त्वां विश्वासु हव्यास्विष्टिषु ॥2॥

हे  प्रभु तुम  ही जल  देते हो  जल से ही अन्न उपजता है ।
गोधन भी तुम ही देते हो हर मानुष तुम्हें प्यार करता है ॥2॥

10361
ऐषु चाकन्धि पुरुहूत सूरिषु वृधासो ये मघवन्नानशुर्मघम् ।
अर्चन्ति तोके तनये परिष्टिषु मेधसाता वाजिनमह्रये धने॥3॥ 

हे  इन्द्र- देव  तुम  आ  जाओ  हम  डगर  निहारते  बैठे हैं ।
हमको तुम धन- संतति दे दो हम तेरा आवाहन करते हैं ॥3॥

10362
स इन्नु रायः सुभृतस्य चाकनन्मदं यो अस्य रंह्यं चिकेतकि ।
त्वावृधो मघवन्दाश्वध्वरो मक्षू  स वाजं भरते धना नृभिः ॥4॥ 

हे  तेजस्वी  इन्द्र- देव  तुम  सोम- पान  कर  लो  प्रभु- वर ।
अपनी पूजा से खुश होकर जगती को बॉटो सुख-सुखकर ॥4॥ 

10363
त्वं  शर्धाय  महिना  गृणान  उरु  कृधि मघवञ्छग्धि रायः ।
त्वं नो मित्रो वरुणो न मायी पित्वो न दस्म दयसे विभक्ता॥5॥

हे  प्रभु हम विनती  करते  हैं हमको  बल-सम्पन्न  बनाओ ।
तुम मित्रवरुण सम पूजनीय हो यश-वैभव हमको दे जाओ॥5॥
  

Monday 28 October 2013

सूक्त - 148

[ऋषि- पृथुवैन्य । देवता- इब्द्र । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10364
सुष्वाणास इन्द्र स्तुमसि त्वा ससवांसश्च तुविनृम्ण वाजम् ।
आ नो भर सुवितं यस्य चाकन्त्मना तना सनुयाम त्वोता: ॥1॥

सोम अन्न समिधा अर्पित है स्वीकार करो विनती करते हैं ।
धन  और  धान  हमें  भी  दो  प्रभु  यही प्रार्थना हम करते हैं ॥1॥

10365
ऋष्वस्त्वमिन्द्र    शूर  जातो  दासीर्विशः  सूर्येण   सह्याः ।
गुहा  हितं  गुह्यं  गूळहमप्सु  बिभृमसि  प्रस्त्रवणे  न सोमम् ॥2॥

हे  प्रभु  रक्षा  करो  हमारी  खल  असुरों  का  संहार  करो ।
दुष्ट   जहॉ   भी   छिपे   हुए   हों   उनका   भी   उध्दार  करो ॥2॥ 

10366
अर्यो  वा  गिरो अभ्यर्च  विद्वानृषीणां  विप्रः  सुमतिं  चकानः ।
ते  स्याम  ये    रणयन्त  सोमैरेनोत  तुभ्यं  रथोळह  भक्षैः ॥3॥

हम  हैं  प्रभु आत्मीय  तुम्हारे  सुन्दर  स्तोत्र  करो  स्वीकार ।
हविष्यान्न सब ग्रहण करो प्रभु सत-गुण के हो तुम आगार॥3॥

10367
इमा  ब्रह्मेन्द्र  तुभ्यं  शंसि   दा  नृभ्यो  नृणां  शूरः  शवः ।
तेभिर्भव  सक्रतुर्येषु  चाकन्नुत  त्रायस्व  गृणत उत स्तीन् ॥4॥

जो सज्जन हैं ऐसे मनुष्य को धीर- वीर बलवान बनाओ ।
तुमसे जो श्रध्दा  करते हैं  उनकी रक्षा  का  वचन निभाओ ॥4॥

10368
श्रुधी   हवमिन्द्र   शूर   पृथ्या   उत   स्तवसे   वेन्यस्यार्कैः ।
आ यस्ते योनिं घृतवन्तमस्वारूर्मिर्न निम्नैर्द्रवयन्त वक्वा:॥5॥

हे  भगवन  हे  इन्द्र- देव  हम  अनुष्ठान - अर्चन   करते   हैं ।
स्तुति  के साथ इन्हें स्वीकारो जो तुमसे प्रेम-भाव रखते हैं ॥5॥ 

सूक्त - 149

[ऋषि- अर्चन हैरण्यस्तूप । देवता- सविता । छन्द- त्रिष्टुप ।]

10369
सविता यन्त्रैः पृथिवीमरम्णादस्कम्भने सविता द्यामदृंहत् ।
अश्वमिवाधुक्षध्दुनिमन्तरिक्षमतूर्ते बध्दं सविता समुद्रम् ॥1॥

सविता  अपने ही साधन से इस वसुधा को स्थिर रखते हैं ।
गगन  से  मेघ-गागर  भर-भर  पृथ्वी  पर प्रेषित करते हैं ॥1॥

10370
यत्रा समुद्रः स्कभितो व्यौनदपां नपात्सविता तस्य वेद ।
अतो भूरत आ उत्थितं रजोSतो  द्यावापृथिवी  अप्रथेताम् ॥2॥

हे अग्नि- देव  हे  जल- दायक तुमसे ही जग में जीवन है ।
बादल करते अभिषेक धरा का जिससे यह उर्वर उपवन है ॥2॥

10371
पश्चेदमन्यदभवद्यजत्रममर्त्यस्य      भुवनस्य        भूना । 
सुपर्णो अङ्ग सवितुर्गरुत्मान्पूर्वो जातःस उ अस्यानु धर्म॥3॥ 

हे  प्रकाश-पुञ्ज  हे  सविता तुम सब देवों  में अग्रगण्य हो ।
अपनी धारक क्षमता के कारण सदा-सदा से ही प्रणम्य हो॥3॥

10372
गावइव  ग्रामं यूयुधिरिवाश्वान्वाश्रेव  वत्सं  सुमना दुहाना ।
पतिरिव जायामभि नो न्येतु धर्ता दिवः सविता विश्ववारः॥4॥

बछडे के पीछे गाय  भागती  और पति पत्नी के पास जाते हैं ।
वैसे  ही सविता  हमें संभालो  हम हर पल तेरे गुण गाते हैं॥4॥

10373
हिरण्यस्तूपः सवितर्यथा  त्वाङ्गिरसो जुह्वे  वाजे अस्मिन् ।
एवा त्वार्चन्नवसे वन्दमानःसोमस्येवांशु प्रति जागराहम्॥5॥

सविता सुन लो स्तुति हमारी हम तेरा अभिनंदन करते हैं ।
प्रतिदिन  परिचर्या  में प्रस्तुत सत्कर्म सदा करते रहते हैं ॥5॥  

Sunday 27 October 2013

सूक्त- 150

[ऋषि- मृळीक वासिष्ठ । देवता- अग्नि । छन्द- बृहती, जगती ।]

10374
समिध्दश्चित्समिध्यसे           देवेभ्यो           हव्यवाहन ।
आदित्यै   रुद्रैर्वसुभिर्न  आ  गहि  मृळीकाय  न  आ  गहि ॥1॥

हे  अग्नि- देव  तुम  आ  जाओ  हम  सादर तुम्हें बुलाते हैं ।
सबका कल्याण तुम्हीं करते हो तुमसे हम यश-धन पाते हैं॥1॥

10375
इमं          यज्ञमिदं       वचो        जुजुषाण       उपागहि ।
मर्तासस्त्वा   समिधान     हवामहे     मृळीकाय    हवामहे ॥2॥

हे   भगवन   तुमसे   विनती  है   यह  अनुष्ठान  स्वीकार  करें ।
यह  श्रध्दा  से  भरा  भाव  है  सुख- साधन  हमें प्रदान करें ॥2॥

10376
त्वामु      जातवेदसं      विश्ववारं       गृणे         धिया ।
अग्ने   देवॉं  आ  वह  नः  प्रियव्रतान्मृलीकाय   प्रियव्रतान् ॥3॥

हे अग्नि-देव सुख-श्रोत तुम्हीं हो सब देवों को संग लेकर आओ।
हाथ - जोड  विनती  करते  हैं सुख- समृध्दि  हमें  दे जाओ ॥3॥

10377
अग्निर्देवो देवानामभवत्पुरोहितोSग्निं मनुष्या3ऋषयः समीधिरे।
अग्निं      महो     धनसातावहं    हुवे     मृळीकं     धनसातये ॥4॥ 

तुम   दिव्य   गुणों   के  स्वामी  हो  सब  देवों  में  अग्रगण्य  हो ।
धन  और  धान  हमें देना प्रभु तुम पूजनीय तुम ही वरेण्य हो ॥4॥

10378
अग्निरत्रिं  भरद्वाजं  गविष्ठिरं  प्रावन्नः  कण्वं  त्रसदस्युमाहवे ।
अग्निं   वसिष्ठो      हवते    पुरोहितो     मृलीकाय    पुरोहितः ॥5॥

सदा   सुरक्षा   देना   प्रभुवर  दुश्मन   से  हमारी  रक्षा  करना ।
हे  अग्नि- देव  तुम  पूज्य  सभी के हम पर वरद-हस्त रखना ॥5॥
   

सूक्त - 151

[ ऋषि- श्रध्दा कामायनी । देवता- श्रध्दा । छन्द - अनुष्टुप ।]

10379
श्रध्दयाग्निः समिध्यते श्रध्दया हूयते हविः ।
श्रध्दां  भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि ॥1॥

श्रध्दा विभूति में सर्व- श्रेष्ठ है उसकी अपनी गरिमा होती है ।
श्रध्दा  देवों  के  मस्तक  पर  सादर  विराजमान  होती  है ॥1॥

10380
प्रियं  श्रध्दे  ददतः  प्रियं  श्रध्दे दिदासतः ।
प्रियं  भोजेषु  यज्वस्विदं  म उदितं कृधि ॥2॥

जिसके मन में श्रध्दा होती है उसको सब कुछ मिल जाता है ।
वह सुख से जीवन यापन करता जग में यश-वैभव पाता है ॥2॥

10381
यथा   देवा  असुरेषु  श्रध्दामुग्रेषु  चक्रिरे ।
एवं  भोजेषु  यज्वस्वस्माकमुदितं  कृधि ॥3॥

भीतर- बाहर  के  असुरों  से  हे  श्रध्दे  अब  तुम्हीं  बचाओ ।
दुष्ट- दमन अति आवश्यक है संत-जनों को सबल बनाओ ॥3॥ 

10382
श्रध्दां  देवा  यजमाना  वायुगोपा  उपासते ।
श्रध्दां हृदय्य1याकूत्या श्रध्दया विन्दते वसु॥4॥

पवन-देव के संरक्षण में हम तेरी उपासना करते हैं ।
संकल्प विचरता है जब मन में तव सामीप्य ग्रहण करते हैं॥4॥

10383
श्रध्दां  प्रातर्हवामहे  श्रध्दां  मध्यंदिनं परि ।
श्रध्दां सूर्यस्य निम्रुचि श्रध्दे श्रध्दापयेह नः॥5॥

भोर में श्रध्दा का आवाहन दोपहर में आवाहन करते हैं ।
हे श्रध्दे हम श्रध्दा-वान बनें संध्या में भी आवाहन करते हैं ॥5॥



 

Saturday 26 October 2013

सूक्त - 152

[ ऋषि- शास भारद्वाज । देवता- इन्द्र । छन्द- अनुष्टुप ।]

10384
शास  इत्था  महॉं  अस्यमित्रखादो अद्भुतः ।
न यस्य हन्यते सखा न जीयते कदा चन ॥1॥

हे  प्रभु सौ-सौ  बार नमन है शुभ-चिन्तन का दे दो वरदान ।
तुम हो अगम अगोचर प्रभुवर सबको दे दो धन और धान ॥1॥

10385
स्वस्तिदा विशस्पतिर्वृत्रहा विमृधो वशी ।
वृषेन्द्रः पुर  एतु नः सोमपा अभयङ्करः ॥2॥

हम सबके पालन-हार तुम्हीं हो सदा करो सबका कल्याण ।
असुर-विनाशक हे जग-पालक कुछ तो दे दो हमें प्रमाण ॥2॥

10386
वि रक्षो वि मृधो जहि वि वृत्रस्य हनू रुज ।
वि मन्युमिन्द्र वृत्रहन्नमित्रस्याभिदासतः ॥3॥

दुष्टों  को  तुम्हीं  दण्ड  देते  हो सज्जन को तुम देते मान ।
दुश्मन  से  रक्षा  करो  हमारी  श्रेष्ठ  गुणों का दे दो दान ॥3॥

10387
वि न इन्द्र मृधो जहि नीचा यच्छ पृतन्यतः ।
यो  अस्मॉं  अभिदासत्यधरं  गमया तमः ॥4॥

जन्म-भूमि हमको प्यारी है गाते हैं सदा उसी का गान ।
चन्दन- सम  माटी है इसकी रहे शाश्वत इसका मान ॥4॥

10388
अपेन्द्र द्विषतो मनोSप जिज्यासतो वधम् ।
वि मन्योः शर्म यच्छ वरीयो यवया वधम् ॥5॥

अहित  हमारा  जो करता है वह भी सुख सम्पन्न रहे ।
कभी  भी  कोई  दुख  न  पाए  और  न कोई कष्ट सहे ॥5॥ 

सूक्त - 153

[ऋषि- मातायें । देवता- इन्द्र । छन्द- गायत्री ।]

10389
ईङ्खयन्तीरपस्युव  इन्द्रं  जातमुपासते । भेजानासः सुवीर्यम् ॥1॥

उस  सर्व - शक्ति - सम्पन्न  देव  की  मातृशक्ति  पूजा  करती  है ।
माताओं    की   मनो  -  कामना   पूरी  देव -  शक्ति   करती   है ॥1॥

10390
त्वमिन्द्र  बलादधि   सहसो  जात  ओजसः । त्वं  वृषन्वृषेदसि ॥2॥

हे   प्रभु  हमें  समर्थ  बना  दो  हम  शौर्य - धैर्य   के  बनें  प्रतीक ।
तुम   हो  अवढर  दानी  प्रभु वर  छूटे  न  ज्ञान - गली  की  लीक ॥2॥

10391
त्वमिन्द्रासि वृत्रहा व्य1न्तरिक्षमतिरः।उद् द्यामस्तभ्ना ओजसा॥3॥

हे   प्रभु   जग   है   देह   तुम्हारा   यह   अन्तरिक्ष   तेरा   विस्तार । 
चर  में  अचर  में  तुम  ही  तुम  हो  सर्जक  पोषक  पालन - हार ॥3॥

10392
त्वमिन्द्र  सजोषसमर्कं  बिभर्षि  बाह्वोः । वज्रं  शिशान  ओजसा ॥4॥

सूर्य   तुम्हारा   सखा   सहृदय   जग   को  करता   है  आलोकित ।
मित्र - वरुण  के  हाथ  प्राण -  द्वय  प्राण - उदान  हुए   स्थापित ॥4॥

10393
त्वमिन्द्राभिभूरसि विश्वा जातान्योजसा । स विश्वा भुव आभवः ॥5॥

सर्व  सामर्थ्य -  वान  हो  प्रभु  जी  नमन  तुम्हें  हम  करते  हैं ।
हम  सब  के  भीतर  सूक्ष्म  रूप  में  पवन  रूप  धर  कर रहते हैं ॥5॥
 

Friday 25 October 2013

सूक्त - 154

[ऋषि- यमी वैवस्वती । देवता- भाववृत्त । छन्द- अनुष्टुप ।]

10394
सोम   एकेभ्यः    पवते   घृतमेक   उपासते ।
येभ्यो मधु प्रधावति तॉंश्चिदेवापि गच्छतात् ॥1॥

हे मनुज गुणों को धारण कर लो जहॉं भी मिले ले लो ज्ञान ।
ज्ञान  के  भी  आयाम  बहुत  हैं  इस  पर भी देना है ध्यान ॥1॥

10395
तपसा   ये  अनाधृष्यास्तपसा   ये  स्वर्ययुः ।
तपो  ये चक्रिरे  महस्तॉंश्चिदेवापि गच्छतात् ॥2॥

तपोनिष्ठ  हो  जाए  जीवन  विपदाओं  से  हम  न  घबरायें ।
केवल अपना स्वार्थ न देखें पर-हित पर निज ध्यान लगायें॥2॥

10396
ये  युध्यन्ते   प्रधनेषु  शूरासो  ये  तनूत्यजः ।
ये वा सहस्त्रदक्षिणास्तॉंश्चिदेवापि गच्छतात् ॥3॥

जन्मभूमि  के  लिए  जो  मनुज  प्राणों  की आहुति देता है ।
यह  भी  यज्ञ  की  पूर्णाहुति  है  मातृभूमि  का  वह  बेटा है ॥3॥

10397
ये  चित्पूर्व  ऋतसाप  ऋतावान  ऋतावृधः ।
पितृन्तपस्वतो यम तॉंश्चिदेवापि गच्छतात् ॥4॥

सत्य- ज्ञान  की  पूँजी  पाकर  सत- पथ  पर  ही  चलना है ।
पितरों का यह पुण्य-प्रयोजन पीढी-पीढी  चलते  रहना  है ॥4॥ 

10398
सहस्त्रणीथा:  कवयो   ये  गोपायन्ति   सूर्यम् ।
ऋषीन् तपस्वतो यम तपोजॉं अपि गच्छतात् ॥5॥

पुरखों  से  आशीष  मिला  है  मिले  हमें अनगिन उपहार ।
तपः  पूत   वे   पितर   हमारे   पुनः  पुनः  आयें  हर   बार ॥5॥

सूक्त - 155

[ऋषि-भारद्वाज । देवता-ब्रह्मणस्पति । छन्द- अनुष्टुप ।]

10399
अरायि     काणे     विकटे      गिरिं     गच्छ     सदान्वे ।
शिरिम्बिठस्य       सत्वभिस्तेभिष्ट्वा       चातयामसि ॥1॥

हमें  विधेयात्मक  चिंतन  ही  सही  मार्ग  दिखलाता  है ।
मधुर-वचन और शुभ-विचार मानव  को सफल बनाता है॥1॥

10400
चत्तो          इतश्चत्तामुतः          सर्वा         भ्रूणान्यारुषीं ।
अराय्यं            ब्रह्मणस्पते          तीक्ष्णश्रृङ्गोदृषन्निहि ॥2॥

शुभ-चिन्तन  से ही मिलता है  इसी जन्म में इह-परलोक ।
सत्कर्मों से अशुभ मिटता है आधि-व्याधि और रोग-शोक॥2॥

10401
अदो       यद्दारु      प्लवते    सिन्धोः     पारे     अपूरुषम्  ।
तदा      रभस्व      दुर्हणो     तेन     गच्छ        परस्तरम् ॥3॥

सज्जन  ही  सब  कुछ  पाता है यश-वैभव हो या सम्मान । 
दुर्जन को अपयश मिलता है मिलता नहीं  है उसको मान ॥3॥

10402
यध्द            प्राचीरजगन्तोरो               मण्डूरधाणिकीः ।
हता        इद्रस्य        शत्रवः       सर्वे        बुद् बुदयाशवः ॥4॥ 

जीवन यह अनमोल बहुत है हम सबसे सद् व्यवहार करें ।
यदि कोई अप्रिय वचन कहता है तो भी उसे मन में न धरें॥4॥

10403
परीमे                   गामनेषत                 पर्यग्निमहृषत ।
देवेष्वक्रत     श्रवः          क       इमॉं     आ        दधर्षति ॥5॥

हर  मानव  यदि शुभ ही सोचे सदा करे यदि सद्-व्यवहार ।
तो  कोई  दुखी  नहीं  होगा फिर कर के देखो अब की बार ॥5॥  

Thursday 24 October 2013

सूक्त - 156

[ऋषि- केतु आग्नेय । देवता- अग्नि । छन्द- गायत्री । ]

10404
अग्निं हिन्वन्तु नो धियः सप्तिमाशुमिवाजिषु ।
तेन                जेष्म               धनन्धनम् ॥1॥ 

हे  अग्नि-देव  तुम  ही  प्रेरक  हो जीवन यह गति से भर दो ।
सब कारज हो सिध्द हमारा मन में शुभ-शुभ विचार भर दो ॥1॥

10405
यया  गा आकरामहे सेनयाग्ने तवोत्या ।
तां          नो       हिन्व        मधत्तये ॥2॥ 

विघ्न-विनाशक  तुम्हीं  हो  प्रभुवर सदा सुरक्षित हो जीवन ।
ज्ञान-वान  हम  बनें  साथ  में  यश-वैभव  हो  धन - यौवन ॥2॥

10406
आग्ने स्थूरं रयिं भर पृथुं गोमन्तमश्विनम् ।
अङ्धि        खं        वर्तया         पणिम् ॥3॥ 

हे अग्नि-देव पशु-धन हो घर में वैभव-लक्ष्मी का हो वरदान ।
संतुलित वेग से जल बरसे हर घर को मिले अन्न का दान॥3॥

10407
अग्ने नक्षत्रमजरमा सूर्यं रोहयो दिवि ।
दधज्ज्योतिर्जनेभ्यः                    ॥4॥

हे  प्रकाश-पुञ्ज  हे  पावक  तुम ही तो हो आलोक-वितान ।
मन से तमस हटाओ प्रभुवर दिव्य-ज्योति का दे दो दान ॥4॥

10408
अग्ने केतुर्विशामसि प्रेष्ठः श्रेष्ठ उपस्थसत् ।
बोधा         स्तोत्रे       वयो       दधत्  ॥5॥

हे अग्नि-देव तुम ज्ञान - प्रदाता अन्तः-आलोकित करते हो।
हम सब को पाथेय चाहिए आश्रय तुम्हीं  दिया करते हो ॥5॥

सूक्त - 157

[ऋषि- साधन । देवता- विश्वेदेवा । छन्द- त्रिष्टुप ।] 

10409
इमा    नु    कं    भुवना   सीषधामेन्द्रश्च    विश्वे    च   देवा: ॥1॥

जग में  जितने  भी  सुख-साधन हैं वह उपलब्ध हमें हो जाए ।
देवों की हम पर कृपा-दृष्टि हो जीवन जन-हित के काम आए॥1॥

10410
यज्ञं  च  नस्तन्वं  च प्रजा चादित्यैरिन्द्रः  सह  चीक्लृपाति ॥2॥

कर्म-योग  हो  सफल  सर्वदा  स्वस्थ  रहे  सबका तन-मन ।
सीखें  संस्कार  सभी  संतानें  सज्जनता  ही हो सबका धन ॥2॥

10411
आदित्यैरिन्द्रः सगणो  मरुद्भिरस्माकं  भूत्वविता तनूनाम् ॥3॥

हे  आदित्य देव विनती करते हैं जीवन-यज्ञ सफल हो जाये ।
हे  पवन-देव  सान्निध्य  तुम्हारा सब  संकट से हमें बचाये ॥3॥

10412
हत्वाय    देवा   असुरान्यदायन्देवा   देवत्वमभिरक्षमाणा: ॥4॥

यही  सृष्टि  का  नेम-नियम  है  सदा  सत्य  की जीत हुई है ।
देव  सहायक  हैं  हम  सबके  असत  की  हरदम  हार हुई है ॥4॥

10413
प्रत्यञ्चमर्कमनयञ्छचीभिरादित्स्वधामिषिरां पर्यपश्यन् ॥5॥

शुभ-चिन्तन सब कुछ देता है जीवन में वह हँसता- गाता है ।
कृतज्ञता  में  बडी  शक्ति  है  असंभव  भी संभव हो जाता है ॥5॥  
 

Wednesday 23 October 2013

सूक्त 158

[ऋषि-चक्षु सौर्य । देवता- सूर्य । छन्द- गायत्री ।] 

10414
सूर्यो नो दिवस्पातु वातो अन्तरिक्षात् ।
अग्निर्नः                पार्थिवेभ्यः     ॥1॥ 

हे  सूर्य-देव  तुम  मनुज-मात्र  की  हर अनिष्ट  से  रक्षा करना ।
हे अग्नि-देव तुम हर संकट से इस वसुधा की चौकसी करना ॥1॥

10415
जोषा सवितर्यस्य ते हरः शतं सवॉं अर्हति।
पाहि      नो      दिद्युतः     पतन्त्याः   ॥2॥

हम  रवि  को  हविष्यान्न  देते हैं वे मन से उसे ग्रहण करते हैं ।
वे  कर्म - योग  का  पाठ - पढाते  हम  सबकी  रक्षा  करते  हैं ॥2॥

10416
चक्षुर्नो देवः सविता चक्षुर्न उत पर्वतः ।
चक्षुर्धाता          दधातु          नः    ॥3॥

दृष्टि-शक्ति  सूरज  देता  है  वह  सूरज  पिता  सदृश  लगता  है ।
भोर  में  आकर  वही  जगाता  उसके  आते  ही जग जगता है ॥3॥

10417
चक्षुर्नो धेहि चक्षुषे चक्षुर्विख्यै तनूभ्यः ।
सं       चेदं      वि       च      पश्येम ॥4॥

हे  प्रभु  मुझे  दृष्टि  वह  देना  जिससे  जीवन  सार्थक  हो जाये ।
सत-पथ  पर  हम  चलें  सर्वदा  जन-हित में यह जीवन जाये ॥4॥

10418
सुसंदृशं त्वा वयं प्रति पश्येम सूर्य ।
वि       पष्येम      नृचक्षसः     ॥5॥

हे  सूर्य - देव  सादर  प्रणाम  है  प्रतिदिन  अर्घ्य  तुम्हें  देते  हैं ।
सम-भाव सीखते हैं हम तुमसे शुभ-भाव सहित अपना लेते हैं ॥5॥

सूक्त - 159

[ऋषि- शची पौलोमी । देवता- आत्म-तुष्टि । छन्द- अनुष्टुप ।]

10419
उदसौ    सूर्यो    अगादुदयं   मामको   भगः।
अहं तद्विद्वला पतिमभ्यसाक्षि विषासहिः ॥1॥ 

हे  सूर्य-देवता  करो  अनुग्रह  सुख सौभाग्य प्रदान करो ।
पति का संग रहे जीवन भर यश-वैभव का भण्डार भरो ॥1॥

10420
अहं    केतुरहं    मूर्धाहमुग्रा    विवाचनी ।
ममेदनु  क्रतुं पतिः सेहानाया उपाचरेत् ॥2॥

सबसे  आगे  सदा  रहें  हम   सबसे   हो  उत्तम  व्यवहार ।
सम्यक चिंतन मनन सदा हो सादा जीवन उच्च विचार॥2॥

10421
मम  पुत्राः  शत्रुहणोSथो  मे  दुहिता  विराट ।
उताहमस्मि सञ्जया पत्यौ मे श्लोक उत्तमः॥3॥

दया  करो  हम  पर  हे  प्रभु  जी पायें हम उत्तम सन्तान ।
घर  में  लक्ष्मी  का  डेरा  हो  श्रेष्ठ- कर्म  से  बनें  महान ॥3॥

10422
येनेन्द्रो हविषा कृत्व्यभवद् द्युम्न्युत्तमः ।
इदं तदक्रि देवा असपत्ना किलाभुवम् ॥4॥

स्वामित्व रहे अविचल जिससे प्रभु हम वैसा ही कर्म करें । 
यज्ञ भाव मय यह जीवन हो त्याग-सहित उपभोग करें ॥4॥

10423
असपत्ना   सपत्नघ्नी      जयन्त्यभिभूवरी ।
आवृक्षमन्यासां वर्चो राधो अस्थेयसामिव॥5॥

षड्-रिपुओं से बचे रहें हम सद्-गुण का पहनें आभूषण ।
अनुष्ठान बन जाए जीवन सन्तुष्ट रहे यह मन हर क्षण ॥5॥

10424
समजैषमिमा       अहं      सपत्नीरभिभूवरी ।
यथाहमस्य वीरस्य विराजानि जनस्य च ॥6॥

प्रेम से जीत लें हम सबका मन कभी किसी से वैर न हो ।
विनती  करते  हैं हम प्रभु जी मेरे लिए कोई गैर न हो ॥6॥   

Tuesday 22 October 2013

सूक्त - 160

[ऋषि- पूरण वैश्वामित्र । देवता- इन्द्र । छन्द - त्रिष्टुप । ]

10425
तीव्रस्याभिवयसो  अस्य  पाहि  सर्वरथा  वि  हरी  इह मुञ्च ।
इन्द्र मा त्वा यजमानासो अन्ये नि रीरमन्तुभ्यमिमे सुतासः॥1॥

हे  सेनापति तुम करो चौकसी यह धन-धान्य से पूर्ण भूमि है ।
दुश्मन  कहीं  तुम्हें  न  ठग  ले  रक्षा  कर  यह  मातृभूमि  है ॥1॥

10426
तुभ्यं  सुतास्तुभ्यमु  सोत्वासस्त्वां गिरः श्वात्र्या आ ह्वयन्ति ।
इन्द्रेदमद्य  सवनं  जुषाणो  विश्वस्य  विद्वॉं  इह  पाहि सोमम् ॥2॥

यश- वैभव  हैं  सभी  तुम्हारे  आज  भी  हैं  और  हैं ये कल भी ।
निज कर्म-योग की कर लो चिंता रहे सुरक्षित कल भी अब भी॥2॥

10427
य   उशता   मनसा   सोममस्मै   सर्वह्रदा  देवकामः  सुनोति ।
न गा इन्द्रस्तस्य परा ददाति प्रशस्तमिच्चारुमस्मै कृणोति ॥3॥

जो यज्ञ-भाव से पूर्ण-ह्रदय से प्रभु को भोग अर्पित करता है ।
उसका  संकल्प  पूर्ण  होता  है  उसका  राष्ट्र  प्रगति  करता है ॥3॥

10428
अनुस्पष्टो भवत्येषो अस्य यो अस्मै रेवान्न सुनोति सोमम् ।
निररत्नौ    मघवा   तं    दधाति   ब्रह्मद्विषो    हन्त्यनानुदिष्टः ॥4॥

जो  प्रभु  का  चिन्तन  करता  है  वह  सदा सुरक्षित रहता है ।
ज्ञान-वान वह बन जाता है दिनों-दिन वह  उन्नति करता है ॥4॥

10429
अश्वायन्तो  गव्यन्तो  वाजयन्तो  हवामहे  त्वोपगन्तवा  उ ।
आभूषन्तस्ते   सुमतौ   नवायां   वयमिन्द्र  त्वा  शुनं  हुवेम ॥5॥

हे  सेनापति  संकल्प  करो  तुम  अस्त्र - शस्त्र की करो सुरक्षा ।
बल - शाली  सेना  हो  अपनी  राष्ट्र - यज्ञ  की  सदा  हो  रक्षा ॥5॥

    

सूक्त- 161

[ऋषि-यक्ष्मनाशन प्राजापत्य ।देवता-इन्द्र । छन्द-त्रिटुप, अनुष्टुप ।]

10430
मुञ्चामि त्वा हविषा जीवनाय कमज्ञातयक्ष्मादुत राजयक्ष्मात्।
ग्राहिर्जग्राह  यदि  वैतदेनं  तस्या इन्द्राग्नी प्र मुमुक्तमेनम्  ॥1॥

हे मनुज रोग-मुक्त हो जाओ पाओ सदा स्वस्थ तन - मन ।
रोग-शोक से दूर ही रहना सदा - सदा हो शुभ चिन्तन ॥1॥

10431
यदि क्षितायुर्यदि वा परेतो यदि मृत्योरन्तिकं नीत एव ।
तमा हरामि निऋते रुपस्थादस्पार्षमेनं शतशारदाय ॥2॥

कोई  कितना  भी  बीमार  हो  हो  चाहे  वह  मरणासन्न ।
तो भी निरोग वह हो सकता है पा सकता है पुष्ट तन-मन॥2॥

10432
सहस्त्राक्षेण    शतशारदेन  शतायुषा    हविषाहार्षमेनम् ।
शतं  यथेमं  शरदो  नयातीन्द्रो विश्वस्य दुरितस्य पारम् ॥3॥

अग्नि -देव  को  हविष्यान्न दें यह भी है उत्तम उपचार ।
दीर्घ-आयु फिर मिल जाता है शुध्द भाव हो शुभ व्यवहार॥3॥ 

10433
शतं जीव शरदो वर्धमानः शतं हेमन्ताञ्छतमु वसन्तान् ।
शतमिन्द्राग्नी सविता बृहस्पतिःशतायुषा हविषेमं पुनर्दुः॥4॥

हे मनुज रोग-मुक्त हो कर सौ बरस जियो अब खुश होकर।
शुभ-चिन्तन शुभ मनन सदा हो जो चाहो बॉंटो खुश होकर॥4॥

10434
आहार्षं   त्वाविदं   त्वा   पुनरागा:  पुनर्नव ।
सर्वांङ्ग सर्वं ते चक्षुः सर्वमायुश्च तेSविदम्॥5॥

हर दिन को नया जन्म समझो तुम सोच समझ कर कर्म करो ।
दुनियॉं देखो और उससे सीखो निज-निष्ठा का अनुकरण करो॥5॥ 

 

सूक्त - 162

[ऋषि- रक्षोहा ब्राह्य । देवता - गर्भसंस्त्राव प्रायश्चित । छन्द - अनुष्टुप ।]

10435
ब्रह्मणाग्निः संविदानो रक्षोहा बाधतामितः ।
अमीवा यस्ते गर्भं दुर्णामा योनिमाशये ॥1॥

अग्नि- देव  हम  पर  प्रसन्न हों तन-मन से वे हरें विकार ।
गर्भ सुरक्षित रहे मातृ का शुभ चिन्तन हो शुभ व्यवहार ॥1॥

10436
यस्ते गर्भममीवा दुर्णामा योनिमाशये ।
अग्निष्टं ब्रह्मणा सह निष्क्रव्यादमनीनशत्॥2॥
 
मातृ-शक्ति आकुल-व्याकुल है हे अग्निदेव तुम उन्हें बचाओ।
असुर-शक्ति  बढ रही निरंतर उन्हें सजा दो मार भगाओ ॥2॥

10437
यस्ते हन्ति पतयन्तं निषत्स्नुं यः सरीसृपम् ।
जातं यस्ते जिघांसति तमितो नाशयामसि ॥3॥

निर्भय  होकर  रहें  नारियॉं  तभी  वीर  होगी   संतान ।
सृजन- शक्ति  की  विग्रह  नारी सभी काल में रहे महान ॥3॥

10438
यस्त ऊरु विहरत्यन्तरा दम्पती शये ।
योनिं यो अन्तरारेळिह तमितो नाशयामसि ॥4॥

कोख  रहे  परिपक्व  मात  का  नारी- जीवन  है अनुदान ।
भीतर यदि कोई विकार हो उसका भी हो त्वरित निदान॥4॥

10439
यस्त्वा भ्राता पतिर्भूत्वा जारो भूत्वा निपद्यते ।
प्रजां यस्ते जिघांसति तमितो नाशयामसि ॥5॥

नारी  का  कोई  नहीं है जग में छली जा रही वह  हरदम ।
गर्भ -पात  करवा  देते  हैं  वह रोक सके यह नहीं है दम ॥5॥

10440
यस्त्वा स्वप्नेन तमसा मोहयित्वा निपद्यते ।
प्रजां यस्ते जिघांसति तमितो नाशयामसि ॥6॥

नारी  की  इच्छा  के  विरुध्द  कभी  भी  गर्भपात  न हो ।
सृजन  हेतु  वह  संकल्पित  है उसके साथ धूर्तता न हो ॥6॥  

 

Monday 21 October 2013

सूक्त - 163

[ऋषि-विवृहा काश्यप । देवता- यक्ष्मनाशन । छन्द- अनुष्टुप । ]

10441
अक्षीभ्यां  ते नासिकाभ्यां  कर्णाभ्यां  छुबुकादधि ।
यक्ष्मं  शीर्षण्यं  मस्तिष्काज्जिह्वाया  वि  वृहामि ॥1॥

हे मनुज तुम्हारे नेत्र-कर्ण को रोग-मुक्त मैं करता हूँ ।
मस्तक-नाक और जिव्हा को पुनर्नवा मैं करता हूँ ॥1॥

10442
ग्रीवाभ्यस्त  उष्णिहाभ्यः  कीकसाभ्यो अनूक्यात् ।
यक्ष्मं  दोषण्य1मंसाभ्यां  बाहुभ्यां  वि  वृहामि ते ॥2॥

ग्रीवा-नाडी ऊर्ध्व-धमनियों को निरोग मैं कर देता हूँ ।
कंधे- भुजा  और हाथों का सभी रोग मैं हर लेता हूँ ॥2॥

10443
आन्त्रेभ्यस्ते         गुदाभ्यो        वनिष्ठोर्हृदयादधि ।
यक्ष्मं मतस्नाभ्यां यक्नःप्लाशिभ्यो वि वृहामि ते ॥3॥ 

छोटी-बडी ऑंत और दिल से क्षय-रोग दूर भगा देता हूँ ।
गुर्दों-यकृत और तिल्ली का यक्ष्मा-रोग मिटा देता हूँ॥3॥

10444
उरुभ्यां   ते  अष्ठीवभ्द्यां   पाषिर्णभ्यां   प्रपदाभ्याम् ।
यक्ष्मं   श्रोणिभ्यां   भासदाभ्दंससो  वि   वृहामि   ते ॥4॥

कंधा- घुटना- एडी- पंजों  का  रोग  दूर  कर  देता  हूँ ।
नितम्ब- कटि व गुदा -द्वार का रोग सभी हर लेता हूँ ॥4॥

10445
मेहनाद्वनंकरणाल्लोमभ्यस्ते                 नखेभ्यः ।
यक्ष्मं    सर्वस्मादात्मनस्तमिदं    वि   वृहामि   ते ॥5॥

नख को रोम को सभी अँग को रोग- मुक्त मैं करता हूँ ।
समस्त देह नूतन बन जाए मैं ऐसा चिंतन करता हूँ ॥5॥

10446
अङ्गाद्ङ्गाल्लोम्नो       जातं         पर्वणिपर्वणि ।
यक्ष्मं     सर्वस्मादात्मनस्तमिदं    वि    वृहामि   ते ॥6॥

अँग- अँग में रोम- रोम में पोर- पोर में बल भरता हूँ ।
कर्म -योग में जुटे रहो तुम मैं ऐसा उपक्रम करता हूँ ॥6॥
 

सूक्त - 164

[ऋषि-प्रचेता आङ्गिरस ।देवता-दुःस्वप्ननाशन।छंद-अनुष्टुप,त्रिष्टुप,पंक्ति।]

10447 
अपेहि     मनसस्पतेSप     क्राम       परश्चर ।
परो निऋर्त्या आ चक्ष्व बहुधा जीवतो मनः॥1॥ 

मनोबल ऊँचा रहे हमारा शुभ हो ध्येय शुभ ही चिन्तन हो ।
धर्म अर्थ और काम मोक्ष से परिपूरित अपना जीवन हो ॥1॥

10448
भद्रं  वै  वरं  वृणते भद्रं युञ्जन्ति दक्षिणम् ।
भद्रं   वैवस्वते  चक्षुर्बहुत्रा  जीवतो  मनः॥2॥

हे  यम  हम  विनती  करते हैं सदा श्रेष्ठ  पथ पर ही जायें ।
मन के हों आयाम अनेकों विविध क्षेत्र में यश हम पायें ॥2॥

10449
यदाशसा निःशसाभिशसोपारिम जाग्रतो यत्स्वपन्तः ।
अग्निर्विश्वान्यप   दुष्कृतान्यजुष्टान्यारे   अस्मद्दधातु ॥3॥

बने रहें हम आशा- वादी निराशा अपने  निकट न आए ।
हम  सुषुप्त हों या हों जागृत त्रुटि से भी त्रुटि हो न जाए ॥3॥

10450
यदिन्द्र   ब्रह्मणस्पतेSभिद्रोहं   चरामसि ।
प्रचेता न आङ्गिरसो द्विषतां पात्वंहसः ॥4॥

अनजान  में  कोई  भूल  हुई हो हे प्रभु हमें क्षमा कर देना । 
हम भी तो सामान्य मनुज हैं त्रुटि बिसरा के अपना लेना॥4॥

10451
अजैष्माद्यासनाम चाभूमानागसो वयम् ।
जाग्रतत्स्वप्नःसङ्कल्पः पापो यं द्विष्मस्तं स ऋच्छतु यो नो द्वेष्टि तमृच्छतु ॥5॥

हम विजयी हैं सदा रहेंगे हे प्रभु देना ऐसा ज्ञान ।
यश वैभव उपलब्ध हमें हो नित निज संस्कृति का हो भान॥5॥  

Sunday 20 October 2013

सूक्त- 165

 [ऋषि- कपोत नैऋर्त ।देवता-विश्वेदेवा ।छन्द -त्रिष्टुप ।]

10452
देवा:   कपोत  इषितो  यदिच्छन्दूतो  नि ऋर्त्या    इदमाजगाम ।
तस्मा अर्चाम कृणवाम निष्कृतिं शं नो अस्तु द्विपदे शं चतुष्पदे ॥1॥

विघ्न   हरो   हरि   सुख   बरसाओ   बाधाओं   को   दूर  भगाओ ।
हविष्यान्न  दें  अग्नि -  देव  को  वेद - मंत्र  सब मिल कर गाओ ॥1॥

10453
शिवः   कपोत   इषितो   नो   अस्त्वनागा   देवा:   शकुनो  गृहेषु ।
अग्निर्हि  विप्रो  जुषतां  हविर्न:  परि  हेतिः  पक्षिणी   नो  वृणक्तु ॥2॥

हर  घर  फूले  फले  प्रेम  से  अग्नि - देव  की  कृपा - दृष्टि  हो ।
शुभ - कपोत - ध्वनि  घर  में  गूँजे  यज्ञ - धूम  से  भरी  सृष्टि हो ॥2॥

10454
हेतिः  पक्षिणी  न  दभात्यस्मानाष्ट्रयां  पदं  कृणुते  अग्निधाने ।
शं  नो  गोभ्यश्च  पुरुषेभ्यश्चास्तु  मा  नो  हिंसीदिह देवा: कपोतः ॥3॥

हे अग्नि- देव  सब  विघ्न  हरो  तुम  गौ - मॉं की सदा सुरक्षा हो ।
गो- माता  हरी  वनस्पति  खाए  गौ- माता  से जीवन की रक्षा हो ॥3॥

10455
यदुलूको     वदति    मोघमेतद्यत्कपोतः   पदमग्नौ   कृणोति ।
यस्य  दूतः  प्रहित  एष   एतत्तस्मै  यमाय  नमो  अस्तु   मृत्यवे ॥4॥

उलूक - ध्वनि  मंगल - कारी  है  वह  लक्ष्मी  जी  का  वाहन है ।
कपोत   शान्ति - दूत   कहलाता  श्वेत - शान्ति  का  आवाहन  है ॥4॥

10456
ऋचा   कपोतं   नुदत   प्रणोदमिषं   मदन्तः  परि   गां  नयध्वम् ।
संयोपयन्तो  दुरितानि   विश्वा  हित्वा  न  ऊर्जं  प्र  पतात्पतिष्ठः ॥5॥

मंत्र - पूत  हो  घर  हम  सबका  गो - माता  की मंगल - ध्वनि हो ।
कपोत - शान्ति - दूत हो घर में घर अपना  शान्ति -निकेतन हो ॥5॥    


 

सूक्त - 166

[ऋषि-ऋषभ देवता । सपत्न-हन्ता । छन्द- अनुष्टुप । ]

10457
ऋषभं मा समानानां सपत्नानानां विषासहिम्  ।
हन्तारं शत्रूणां कृधि विराजं गोपतिं गवाम् ॥1॥

हे  प्रभु  जीवन  श्रेष्ठ  बनाना षड्-रिपु हो जायें पल में ढेर ।
गो - माता  की  सेवा  कर  लें  जन - सेवा  में  हो  न  देर ॥1॥ 

10458
अहमस्मि    सपत्नहेन्द्र    इवारिष्टो   अक्षतः ।
अधः  सपत्ना  मे पदोरिमे सर्वे अभिष्ठिता: ॥2॥

जो  अन्यायी  हैं  विध्वंसक  हैं  हे  प्रभु उनकी गले न दाल ।
परमपिता इतना बल देना हम सज्जन की बन जायें ढाल ॥2॥

10459
अत्रैव  वोSपि  नह्याम्युभे आत् र्नी इव ज्यया ।
वाचस्पते  नि षेधेमान्यथा  मदधरं वदान् ॥3॥

हे प्रभु  मन  निर्मल  हो  जाये  चिन्तन  हो जाए उज्ज्वल ।
सत- पथ ही हो ध्येय  हमारा तन मन आत्म ब्रह्म हो बल ॥3॥

10460
अभिभूरहमागमं     विश्वकर्मेण     धाम्ना ।
आ वश्चित्तमा वो व्रतमा वोSहं समितिं ददे ॥4॥

मेरे  ही  मन  में  जो दुश्मन  हैं  वही  हैं  सबसे बडी चुनौती ।
जो  इस पर अँकुश रखते हैं  उन्हें ही मंज़िल हासिल होती ॥4॥

10461
योगक्षेमं व आदायाहं  भूयासमुत्तम  आ वो मूर्धानमक्रमीम् ।
अधस्पदान्म उद्वदत माण्डूका इवोदकान्मण्डूका उदकादिव॥5॥

हो  अप्राप्य  भी  प्राप्य  हमें  प्रभु कल्पवृक्ष हो जाए चिन्तन ।
सबका  हित  हो लक्ष्य  हमारा  सार्थक  हो जाए यह जीवन ॥5॥   

Saturday 19 October 2013

सूक्त - 167

[ऋषि - विश्वामित्र,जमदग्नि । देवता- इन्द्र । छन्द- जगती । ]

10462
तुभ्येदमिन्द्र परि षिच्यते मधु त्वं सुतस्य कलशस्य राजसि।
त्वं रयिं पुरुवीरामु नस्कृधि त्वं तपः परितप्याजयः स्वः ॥1॥

हे सूर्य - देव  आलोक - प्रदाता हविष्यान्न प्रेषित करते हैं ।
तुम्हीं  हमें  धन  संतति  देते कृतज्ञता - ज्ञापित करते हैं ॥1॥

10463
स्वर्जितं महि मन्दानमन्धसो हवामहे परि शक्रं सुतॉं उप ।
इमं नो यज्ञमिह बोध्या गहि स्पृधो जयन्तं मघवानमीमहे ॥2॥

हे इन्द्र यज्ञ में तुम भी आओ आवश्यक अन्न-धान ले आओ ।
ईर्ष्या- द्वेष  से  हमें  बचाओ जीवन सत -पथ- पर ले जाओ ॥2॥

10464
सोमस्य राज्ञो वरुणस्य धर्मणि बृहस्पतेरनुमत्या उ शर्मणि ।
तवाहमद्य मघवन्नुपस्तुतौ धातविर्धातः कलशॉं अभक्षयम्॥3॥ 

सानिध्य पा सकें सोमदेव का बृहस्पति से मिल जाए ज्ञान ।
वरुण- देव  की  मिले  तरलता  सूरज  से  सीखें  श्रेष्ठ- दान ॥3॥ 

10465
प्रसूतो  भक्षमकरं चरावपि स्तोमं चेमं  प्रथमः सूरिरुन्मृजे ।
सुते  सातेन  यद्यागमं  वॉं  प्रति  विश्वामित्रजमदग्नी  जमे ॥4॥

हे देव ज्ञान से करें परिष्कृत मन में नित उभरे शुभ -विचार ।
सबके  हित  में  अपना  हित  है  यह  है वेद- ज्ञान का सार ॥4॥    

Friday 18 October 2013

सूक्त - 168

[ऋषि - अनिल वातायन । देवता - वायु । छन्द त्रिष्टुप । ]

10466
वातस्य  नु  महिमानं  रथस्य  रुजन्नेति स्तनयन्न्स्य घोषः ।
दिविस्पृग्यात्यरुणानि कृन्वन्नुतो एति पृथिव्या रेणुमस्यन् ॥1॥

पवन - देव  की  महिमा  न्यारी  वे  हैं  तीव्र - वेग  के  स्वामी ।
अनन्त आयाम हैं अनिल अँग में विविध राग के वे अनुगामी ॥1॥

10467
सम्प्रेरते अनु वातस्य विष्ठा ऐनं गच्छन्ति समनं न योषा: ।
ताभिः सयुक्सरथं देव ईयतेSस्य विश्वस्य भुवनस्य राजा ॥2॥

पवन- देव के तीव्र - वेग से सब कुछ अस्त- व्यस्त हो जाता ।
तरु  है  उनका  राज - सिंहासन जग का राजा शोभा पाता ॥2॥

10468
अन्तरिक्षे पथिभिरीयमानो न नि विशते कतमच्चनाहः ।
अपां सखा प्रथमजा ऋतावा क्व स्विज्जातः कुत आ बभूव॥3॥ 

अन्तरिक्ष  शुभ  मार्ग  है  उनका  वायु  नहीं  करते  विश्राम ।
हे पवन-देव तुम ही जग-जीवन जगत तुम्हारा है अभिराम ॥3॥

10469
आत्मा  देवानां  भुवनस्य  गर्भो  यथावशं  चरति  देव  एषः ।
घोषा  इदस्य  श्रृण्विरे  न  रूपं  तस्मै वाताय हविषा विधेम ॥4॥

पवन प्रति-पल पावन पग धरता अविरल उसकी चाल निराली ।
स्वर - समीर है मधुर- भयानक यह शब्दों की  पूजा- थाली  ॥4॥

 

सूक्त - 169

[ऋषि - शबर काक्षीवत । देवता - गौ । छन्द - त्रिष्टुप । ]

10470
मयोभूर्वातो अभि  वातूस्त्रा ऊर्जस्वतीरोषधीरा  रिशन्ताम् ।
पीवस्वतीर्जीवधन्या:  पिबन्त्ववसाय   पद्वते   रुद्र   मृळ ॥1॥

गो - माता है पूज्य हमारी वह बल- वर्धक औषधियॉं खाये ।
शुध्द- जल मिले गो-माता को वह हमसे अपना- पन पाये ॥1॥

10471
या: सरूपा विरूपा एकरूपा यासामग्निरिष्ट्या नामानि वेद ।
या अङ्गिरसस्तपसेह चक्रुस्ताभ्यःपर्जन्य महि शर्म यच्छ॥2॥

विविध रंग आकृति  है उनकी गो - माता की बडी है महिमा ।
हे पर्जन्य - देव विनती है गो - माता  की  बढ जाए गरिमा ॥2॥

10472
या  देवेषु  तन्व1मैरयन्त  यासां  सोमो  विश्वा  रूपाणि  वेद ।
ता असमभ्यं पयसा पिन्वमाना:प्रजावतीरिन्द्र गोष्ठे रिरीह ॥3॥

गो - माता  के  दधि  औ घृत बिन  यज्ञ  नहीं  हो सकता है ।
सुख-पूर्वक गो मॉं पोषित हों ऋग्वेद हमारा यह कहता है ॥3॥

10473
प्रजापतिर्मह्यमेता  रराणो   विश्वैर्देवैः  पितृभिः  संविदानः ।
शिवा: सतीरुप नो गोष्ठमाकस्तासां वयं  प्रजया सं सदेम ॥4॥

ब्रह्मा जी ने सम्पूर्ण जगत को दिया है यह उज्ज्वल उपहार ।
गो - माता को मिले सुरक्षा गो- माता बिन जग निस्सार ॥4॥ 

Thursday 17 October 2013

सूक्त - 170

[ ऋषि - विभ्राट्  सौर्य । देवता-सूर्य । छन्द -जगती ,आस्तारपंक्ति ।]

10474
विभ्राड् बृहत्पिबतु सोम्यं मध्वायुर्दधद्यज्ञपतावविह्रुतम् ।
वातजूतो यो अभिरक्षति त्मना प्रजा:पुपोष पुरुधा वि राजति॥1॥

भानु - भाव  के  ही  भूखे  है  हमें  दीर्घ  - जीवन  देते  है ।
पवन -  देव  के माध्यम से वे हम सबकी रक्षा करते हैं ॥1॥

10475
विभ्राड् बृहत्सुभृतं वाजसातमं धर्मन्दिवो धरुणे सत्यमर्पितम् ।
अमित्रहा  वृत्रहा  दस्युहतमं  ज्योतिर्जज्ञे असुरहा  सपत्नहा ॥2॥

हे  आदित्य अन्न - जल  देना  जिससे  बलशाली बन जायें ।
मन  से  तमस  दूर  कर  देना  हम प्रकाश - पुञ्ज कहलायें ॥2॥

10476
इदं श्रेष्ठं ज्योतिषां ज्योतिरुत्तमं विश्वजिध्दनजिदुच्यते बृहत् ।
विश्वभ्राड् भ्राजो महि सूर्यो दृश उरु पप्रथे सह ओजो अच्युतम्॥3॥

तुम्हीं प्रतिष्ठित दुनियॉं भर में धन - वैभव के तुम्हीं प्रदाता ।
तुम्हीं ओज को धारण करते तुम अविनाशी भाग्य-विधाता ॥3॥

10477
विभ्राजञ्ज्योतिषा         स्व1रगच्छो     रोचनं         दिवः ।
येनेमा  विश्वा  भुवनान्याभृता  विश्वकर्मणा  विश्वदेव्यावता ॥4॥

प्रभु तुम दिव्य - लोक गामी हो विश्व तुम्हीं से आलोकित है ।
तुम संरक्षक  हो दुनियॉं  के जग तुमसे  पोषित  पुलकित है ॥4॥  

सूक्त- 171

[ऋषि - इट भार्गव । देवता-इन्द्र । छन्द- गायत्री ।]

10478
त्वं त्यमिटतो रथमिन्द्र प्रावः सुतावतः ।
अशृणोः         सोमिनो        हवम्     ॥1॥

ज्ञानी  गृहस्थ और सज्जन के हे इन्द्र देव तुम रक्षक हो ।
सोम - युक्त  स्तोत्रों  को तुम सुनने के अति  इच्छुक हो ॥1॥

10479
त्वं मखस्य दोधतः शिरोSव त्वचो भरः ।
अगच्छः        सोमिनो           गृहम्  ॥2॥

शुभ-कर्म विरोध तुम्हें नहीं भाता ऐसे जन से रहते हो दूर ।
पर जो कल्याण कार्य करता है सहयोग उसे करते भरपूर ॥2॥

10480
त्वं त्यमिन्द्र मर्त्यमास्त्रबुध्नाय वेन्यम्  ।
मुहुः             श्रथ्ना           मनस्यवे  ॥3॥ 

विद्वानों के तुम शुभ-चिन्तक हो आडम्बर के घोर विरोधी हो ।
आपस  में  द्वेष  जो  करते  हैं  तुम  उनके   प्रतिरोधी  हो  ॥3॥

10481
त्वं त्यमिन्द्र सूर्यं पश्चा सन्तं पुरस्कृधि ।
देवानां           चित्तिरो          वशम्   ॥4॥ 

जब  सन्ध्या - देवी आती  हैं और अन्धकार  हो जाता है ।
फिर पुनः सुबह  सूर्योदय होता पुनर्नवा जग हो जाता है ॥4॥     

Wednesday 16 October 2013

सूक्त- 172

[ऋषि -संवर्त आङ्गिरस । देवता - उषा । छन्द- गायत्री ।]

10482
आ  याहि  वनसा   सह  गावः  सचन्त  वर्तनिं   यदूधभिः ॥1॥

हे उषा-किरण गो-रथ पर आओ नूतन ऊष्मा ऊर्जा लाओ ।
रथ-चक्र नहाए ओस-बिन्दु से तुम हँसती मुस्काती आओ ॥1॥ 

10483
आ  याहि  वस्व्या  धिया  मंहिष्ठो  जारयन्मखः  सुदानुभिः ॥2॥

हे  उषा - काल  धन- वैभव लाओ श्लोक-श्रवण करने आओ ।
कर्म- योग  का  पाठ- पढाओ पूर्णाहुति का दर्शन समझाओ ॥2॥

10484
पितुभृतो   न   तन्तुमित्सुदानवः   प्रति   दध्मो  यजामसि ॥3॥

अन्न-दान की महिमा गाओ दान-यज्ञ - माहात्म्य बताओ ।
यज्ञ- भाव हमको समझाओ तुम अपनी स्तुति सुनने आओ ॥3॥

10485
उषा     अप   स्वसुस्तमः   सं    वर्तयति   वर्तनिं   सुजातता ॥4॥

तमस   मिटाती  उषा  हमारी  जीवन  को  आलोक  दिखाती ।
कोई  न  भटके  अँधकार  में  यही  सोचकर  प्रतिदिन आती ॥4॥

 

सूक्त - 173

[ऋषि-ध्रुव आङ्गिरस । देवता- राजा । छन्द -अनुष्टुप ।]

10486
आ   त्वाहार्षमन्तरेधि       ध्रुवस्तिष्ठाविचाचलिः ।
विशस्त्वा सर्वा वाञ्छन्तु मा त्वद्राष्ट्रमधि भ्रशत् ॥1॥

प्रजातंत्र  में  जन - राजा  है  उसे सब पर अंकुश रखना है ।
देश का अहित न होने पाए उसे इस चिंतन पर चलना है ॥1॥ 

10487
इहैवैधि माप च्योष्ठा: पर्वत इवाविचाचलिः ।
इन्द्र  इवेह  ध्रुवस्तिष्ठेह   राष्ट्रमु   धारय ॥2॥

हे  प्रजा  तुम्हीं  तो  राजा  हो  कर्तव्य - परायण बन जाओ ।
सूर्य समान अटल रहकर तुम राष्ट्र -प्रगति में जुट जाओ ॥2॥

10488
इममिन्द्रो    अदीधरद्    ध्रुवं  ध्रुवेण   हविषा ।
तस्मै सोमो अधि ब्रवत्तस्मा उ ब्रह्मणस्पतिः ॥3॥

जनता  जागरूक  हो  यदि  तो  देश  में  स्थिरता आती है ।
जग में उसका जस बढता है जनता जनप्रिय बन जाती है ॥3॥

10489
ध्रुवा   द्यौर्ध्रुवा  पृथिवी  ध्रुवासः  पर्वता   इमे ।
ध्रुवं  विश्वमिदं जगद् ध्रुवो राजा विशामयम् ॥4॥

ध्रुव- सम अटल रहे यह धरती प्रजा के हाथ में ही सत्ता हो ।
सबका हो अधिकार बराबर वाशिंगटन हो या कलकत्ता हो ॥4॥

10490
ध्रुवं  ते  राजा  वरुणो   ध्रुवं  देवो बृहस्पतिः ।
ध्रुवं  त  इन्द्रश्चाग्निश्च  राष्टं धारयतां ध्रुवम् ॥5॥ 

कृपा  रहे  नित  वरुण- देव  की  बृहस्पति दें उत्तम ज्ञान ।
अग्नि - देव से यह विनती है स्थिर हो मेरा राष्ट्र - महान ॥5॥

10491
ध्रुवं    ध्रुवेण   हविषाभि   सोमं    मृशामसि ।
अथो  त इन्द्रः केवलीर्विशो  बलिहृतस्करत् ॥6॥

सोम - देव  आशीष  हमें  दें  बढ  जाए  भारत- स्वाभिमान ।
देश के हित में जनता जागे सिरमौर बने फिर हिन्दुस्तान॥6॥



  

Tuesday 15 October 2013

सूक्त- 174

[ऋषि -अभीवर्त्त आङ्गिरस । देवता- राजा । छन्द - अनुष्टुप । ]

10492
अभीवर्तेन  हविषा  येनेन्द्रो  अभिवावृते ।
तेनास्मान्ब्रह्मणस्पतेSभि राष्ट्राय वर्तय ॥1॥

हे पालक परमपिता परमेश्वर राजा को निज ध्येय बतायें ।
जन्म-भूमि का कर्ज चुकायें देश प्रगति की ओर बढायें ॥1॥

10493
अभिवृत्य  सपत्नानभि  या  नो  अरातयः ।
अभि पृतन्यन्तं तिष्ठाभि यो न इरस्यति ॥2॥

हे प्रभु जी दुश्मन हिंसक है वह युध्द की इच्छा रखता है ।
ऐसे रिपुओं को महादण्ड दें जो हमसे  ईर्ष्या करता  है ॥2॥

10494
अभि त्वा देवः सविताभि सोमो अवीवृतत् ।
अभि त्वा विश्वा भूतान्यभीवर्तो यथाससि ॥3॥

आदित्य अनल की कृपा रहे जनता अपना उत्साह बढाये ।
सर्वोपरि  हो  देश हमारा  जन - समूह  कर्तव्य  निभाये ॥3॥

10495
येनेन्द्रो  हविषा  कृत्व्यभवद्  द्युम्न्युत्तमः ।
इदं तदक्रि  देवा  असपत्नः  किलाभुवम् ॥4॥ 

राजा अजातशत्रु बन जाए दुश्मन उसके वश में हो जाये ।
जनता अपनों का करे समर्थन देश ही सर्वोपरि हो जाये ॥4॥

10496
असपत्नः      सपत्नहभिराष्ट्रो     विषासहिः ।
यथाहमेषां भूतानां विराजानि जनस्य च ॥5॥

वैरी पर अंकुश रख पायें जन्मभूमि हित बलि-बलि जायें ।
जन - कल्याण में हाथ बँटायें  मातृभूमि के काम आयें ॥5॥
 

सूक्त 175

[ऋषि- ऊर्ध्वग्रावा आर्बुदि । देवता- पाषाण । छन्द - गायत्री । ]

10497
प्र वो ग्रावाणः सविता देवः सुवतु धर्मणा ।
धूर्षु      युज्यध्वं                     सुनुत ॥1॥

हे पत्थर तुम निज कौशल से सामर्थ्यानुरुप कुछ कर्म करो ।
सोम - रस के निष्पादन में तुम यथाशक्ति सहयोग  करो ॥1॥

10498
ग्रावाणो अप दुच्छुनामप सेधत दुर्मतिम् ।
उस्त्राः           कर्तन             भेषजम्   ॥2॥

हे  पाहन  तुम  कर्म-वीर  हो  दुख - दुर्मति को दूर  भगाओ ।
सुख-दायक औषधियॉं लेकर रोग-निवारक युक्ति बताओ ॥2॥

10499
ग्रावाण उपरेष्वा महीयन्ते सजोषसः ।
वृष्णे        दधतो          वृष्ण्यम्   ॥3॥

पाषाण  परस्पर  पदवी  पाते  अपनों  को  अपना लेते  हैं ।
सोम  बनाने  में  श्रम  करते  सबको  सुखद  पेय  देते  हैं ॥3॥

10500
ग्रावाणः सविता नु वो देवः सुवतु धर्मणा ।
यजमानाय                       सुन्वते     ॥4॥

परम -पिता परमेश्वर  सबको  वेद - धर्म प्रेषित करते हैं ।
सामर्थ्यानुसार सब कर्म करें यह आशीष दिया करते  हैं ॥4॥