Wednesday 24 December 2014

अभिनन्दन - अटल बिहारी वाजपेयी

देश हित में जिसने अपना घर ही नहीं बसाया
अटल जी के कर्म - योग को प्रणाम करती हूँ ।

आज़ादी  के  बाद भी तो जेल जाना पडा उन्हें
उनके  देश - प्रेम  को  सादर नमन करती  हूँ ।

संयुक्त राष्ट्र संघ में भी हिंदी को अलंकृत किया 
उस  कवि का  मैं बार - बार वन्दन करती  हूँ ।

देश - हित में आज जो अटल दिया जल रहा है
उस अखण्ड ज्योति को सौ-सौ नमन करती हूँ ।

Friday 19 December 2014

नमामि गङ्गे

जिस नदिया की पूजा करते वह पूजा है अभी - अधूरी
अस्थि - विसर्जन करना  छोडें तब ही होगी पूजा पूरी ।

नारी  देवी  है  कहते  हैं  पर अब  भी शोषण करते हैं
राक्षस बन जाता  है  प्राणी मुँह में राम बगल में छूरी ।

गङ्गा-जल पावन होता था हमने नाली उसे बनाया
आज भी कूडा- फेंक रहे  हैं  मुँह में राम बगल में छूरी ।

मातृभूमि का गौरव गाते पर गरिमा का भाव कहॉ है
गुटका खा- कर थूक रहे  हैं मुँह में राम बगल में छूरी ।

देश  स्वच्छ  करना  है  हमको अब आई  है मेरी बारी
यह जल्दी से नहीं हुआ तो होगी फिर यह हार हमारी ।  

Saturday 13 December 2014

विकलॉग - विमर्श - हाइकू

        एक
सूरदास है
मन से देखने का
एहसास है ।

        दो
अँधी  - भैरवी
सुन्दर गाती है ।
राग - भैरवी ।

      तीन
कुसुम - कली
देख नहीं सकती
कुसुम - कली ।

     चार
अँधा है पर
तोडता है पत्थर
सडक - पर ।

    पॉच
रानी है नाम
लंगडी  है लेकिन
करती - काम ।

     छः
गूँगी है गंगा
बरतन धोती है
मन है चंगा ।

   सात
काना - कुमार
झूम झूम गाता है
मेघ - मल्हार ।

   आठ
बहरा - राम
दिन भर करता
बढई - काम ।

    नव
अँधी है माला
अँधों को पढाती है
माला है शाला ।

    दस
लँगडा - मान
किसानी करता है
नेक - इन्सान ।

  ग्यारह
बहरा राम
टोकनी बनाता है
कहॉ आराम ?

शकुन्तला शर्मा, भिलाई, छ. ग. 


Sunday 30 November 2014

विश्व - विकलॉग चेतना दिवस के अवसर पर - राग - भैरवी

छाया बचपन से लँगडी थी
      घर - वाले बोझ  समझते  थे ।
लँगडी क्या स्कूल जाएगी
      यह सोच के घर पर रखते थे ।

छाया का स्वर बहुत मधुर था
       वह  हर  गाना  गा लेती थी ।
प्रतिदिन वह गाना गा-गा कर
        चिडियों को दाना- देती थी ।

उसी गॉव में गायक आया
        राग -  भैरवी  उसने  गाया ।
सब ने उसको खूब सराहा
        पावन प्यार सभी का पाया ।

" मेरे साथ कौन गाएगा
        दो - गाना गाने का मन है ।"
छाया उठी मंच पर पहुँची
         " गाने का मेरा भी मन  है ।"

दोनों ने जब सुर में गाया
        मंत्र -  मुग्ध  था  पूरा गॉव ।
जन-जन भाव विभोर हो गया
      छाया को अब मिला है छॉव ।

शकुन्तला शर्मा, भिलाई   


Sunday 16 November 2014

यक्ष - प्रश्न

क्या आपको ऐसा लगता है कि 2 अक्टूबर 2019 में " नमामि - गङ्गे " प्रोजेक्ट सहित हमारा भारत, साफ - सुथरा हो जाएगा ? मुझे तो ऐसा दिख रहा है - कि 2019 क्या 2029 तक भी, हमारी गङ्गा और हमारा भारत, साफ - सुथरा नहीं हो सकता । अब आप ही बताइए कि हर वर्ष, "अनन्त - चतुर्दशी" में , दोनों नवरात्रि में, विश्वकर्मा - पूजा में और हर मनुष्य की अन्त्येष्टि में और हर वर्ष आश्विन कृष्ण - पक्ष के श्राध्द में , हम विभिन्न - वस्तुओं को , विसर्जित करते रहेंगे तो क्या कभी गङ्गा एवम् अन्य पवित्र नदियॉ , स्वच्छ हो पायेंगी ? धर्म - संकट यह है कि इनमें से , किसी भी विसर्जन को यदि आप रोकने की चेष्टा करेंगे तो जनता बौखला जाएगी । इस जनता रूपी भस्मासुर को भला कौन समझाए , जो कुछ समझने के लिए तैयार ही नहीं है । हमारे ढकोसले इतने हैं जो हमें बर्बाद करने के लिए पर्याप्त हैं , हमें दुश्मनों की क्या ज़रूरत है ?

मैंने अपने घर में किसी तरह,अपने बच्चों को यह समझा दिया है कि दीवाली में पटाखे फोडने की कोई ज़रूरत नहीं है पर पूरे हिन्दुस्तान के बच्चों को,उनके माता - पिता को कौन समझाए कि पटाखे फोडना सही नहीं है , इससे वातावरण में ज़हर घुल रहा है, इतना ही नहीं यह हमारे "ओज़ोन - परत " को भी बहुत नुकसान पहुँचा रहा है । भला पटाखे न जलाने की सीख हिन्दुस्तान को कौन देगा ?

"नमामि - गङ्गे "  मिशन तभी क़ामयाब हो पाएगा जब भारत मानसिक - पूजा करेगा । वैसे भी पूजा में किसी वस्तु की , उपकरण की कभी कोई ज़रूरत नहीं होती । क्या हमारे देश की जनता , अध्यात्म के इस स्तर को समझ सकेगी ?

मुझे बरसों पहले की एक घटना याद आ रही है । मेरी बेटी "तूलिका" तीन बरस की थी । मैंने उससे पूछा - कि "बुआ क्या कर रही हैं ? " बच्ची ने अज़ीब सा चेहरा बना कर मुझे समझाया कि - " बुआ, भगवान को गुडिया बना कर खेल रही हैं ।" उस समय मेरे पास मेरी ननदें और मेरे जेठ जी की बेटियॉ भी बैठी हुई थीं, वे सब हँसने लगीं, पर मुझे इस घटना ने , बच्ची की बातों ने हिला - कर रख दिया । मेरे मन में प्रश्न उठा कि आखिर पूजा करते समय हम करते क्या हैं ?

मृत्यु के पश्चात दाह - संस्कार ऐसा हो, जिसमें अस्थियॉ भी जल जायें, मात्र राख शेष रहे जो अपनी जाति के साथ, आसानी से मिल जाए और खेतों में खाद की तरह, इसका उपयोग हो जाए । रावण , कुम्भकरण और मेघनाद को जलाने के लिए, राष्ट्रीय - सम्पत्ति का अपव्यय क्यों करें ? क्यों न हम अपने भीतर में बैठे, राक्षसों का वध, धीरे - धीरे करते रहें, उसे अपना सिर उठाने का कभी अवसर ही न दें तो वह स्वयमेव मर जाएगा ।

"युग निर्माण योजना " में एक सद् - वाक्य है कि - " परम्परा की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे," तो क्या हम उन परम्पराओं को दर - किनार करने की स्थिति में हैं, जो देश को कूडा - दान बनाने पर तुली हुई हैं ?

कबीर ने यह सब पहले ही भॉप लिया होगा और इसीलिए वह अपने अन्तिम - समय में," बनारस" छोड - कर "मगहर" चला गया होगा ताकि उसकी देह से "गङ्गा " दूषित न हो जाए और संभवतः वह हम सब को सिखाना चाहता हो कि - " भाइयों ! गङ्गा को दूषित मत करो, बनारस में ही मरना या अन्त्येष्टि होना आवश्यक नहीं है , प्राण कहीं भी छूटे, सत् - गति तो कर्मानुसार ही मिलती है । " मगहर " में देह त्याग - कर, कबीर ने यह सिध्द कर दिया कि - " मन चंगा तो कठौती में गङ्गा ।"    



                            

Monday 10 November 2014

तृषा - तृप्ति

प्यास जीवन की सार्थकता का प्रतीक - चिह्न है ।
प्यास जीवन की जीवन्तता का पर्याय है ।
प्यास - रहित जीवन भी कोई जीवन है  ?
जीवन में प्यास का अस्तित्व
यह संकेत करता है कि जीवन में गति है ।

प्यास का उद्वेग
जीवन की गति को रेखॉकित करता है ।
मंथर प्यास - मंथर गति
प्रबलतम प्यास उत्तरोत्तर गति ।

प्यास से पीडित मनुष्य ही तो संतृप्ति की तलाश करता है ।
प्यास की व्याकुलता, संतृप्ति की समीपता का संकेत है ।
प्यास की पराकाष्ठा जीवन की निरन्तरता का प्रतीक है ।

पर प्रेम - तृषा और बोध - तृषा की
सीमा - रेखा समझ में नहीं आती
कहीं ये दोनों एक - दूसरे के पूरक तो नहीं ?
कहीं प्रेम - तृषा, बोध - तृषा की प्रथम सोपान तो नहीं ?

हे ईश्वर मुझे तो दोनों सहोदर प्रतीत होते हैं
दोनों में कोई अन्तर नहीं दिखता
पर मूल्यॉकन की सामर्थ्य किसमें है ?
मानव दोनों से अपरिचित है ।
जीवन - समर में व्यतीत दैनिक दिनचर्या को
प्रेम की संज्ञा से अभिहित नहीं किया जा सकता ।

वस्तुतः माया की अनुपलब्धि ही कदाचित
राम की उपलब्धि की राह हो
क्योंकि यह सत्य तो समझ में आता है
कि माया को भोग से नहीं जीता जा सकता
योग से ही इस पर विजय सम्भव है ।
पर इस प्रक्रिया का आरम्भ कहॉ से हो
यह प्रश्न - चिह्न है
जिसने जीवन को ही प्रश्न - चिह्न बना दिया है ।

Wednesday 29 October 2014

जन्म - जयन्ती पर - सरदार वल्लभ भाई पटेल

रदार  थे  तुम आगे  रहते  थे  तुम सम दूजा नहीं हुआ 
त रह कर तुम सदा सोचते आज़ाद हो जायें करो दुआ ।
दास नहीं हम  फिरंगियों के जननी को हमें बचाना होगा
स आएगा जीने  में  जब  धरती - गगन  हमारा  होगा ।
वल्लभ - भाई  बडे साहसी  सब रियासतों को एक किया
गन लगी थी आज़ादी की आज़ादी का अभिषेक किया ।
व्य बने अपना भारत यह संकल्प यही था उनको भाता
भारत मॉ का उज्ज्वल ऑचल महिमा मण्डित हो जाता ।
श्वर  को  यह  मञ्जूर  न था भारत - निर्माण न हो पाया
र  सोमनाथ  सम्पूर्ण  हुआ उन्हें  महाकाल  लेने आया ।
टेक लिया माथा शिव सम्मुख वह स्वर्ग धाम में चले गए
गता  है तुम वापस आए हो संकल्प निभाने नए - नए ।

Monday 20 October 2014

दिये जलाओ ज्योतिर्मय

फोडो न  पटाखे  दीवाली  में  दिये जलाओ ज्योतिर्मय
ये वातावरण प्रदूषित करते दिये जलाओ ज्योतिर्मय ।

वायु -  प्रदूषण  ध्वनि - प्रदूषण मृदा प्रदूषित करते हैं
जल  भी  होता  मैला इससे दिये जलाओ ज्योतिर्मय ।

लक्ष्मी जी को नहीं ज़रूरत ऐटम - बम फुलझडियों  की
मंत्रोच्चार करो सुन्दर तुम  दिये  जलाओ ज्योतिर्मय ।

पटाखे अहंकार  के  सूचक  यह  ईर्ष्या - द्वेष  बढाता  है
छोडो इन्हें  त्याग दो  भाई  दिये  जलाओ  ज्योतिर्मय ।

पटाखों  की  फैक्ट्री  में  देखो बच्चों  का  शोषण होता है
'शकुन'  रिहाई  हो बच्चों की दिये जलाओ ज्योतिर्मय ।

Sunday 12 October 2014

वर्तमान का अमृत पी लें

गत - आगत  को  भूलो  भैया  वर्तमान  में जियो निरन्तर
एक भी पल यदि चूक गए तो हो सकते  हैं हम विषयांतर ।

वर्तमान  ही  वन्दनीय  है  यह  सचमुच अपना  लगता  है
वर्तमान  से  विमुख  हुआ  जो उसको पछताना पडता  है ।

पल - पल कर के बीत रहा  है मूल्यवान  यह  मेरा  जीवन
वर्तमान  को  जिसने  जीता उसका जीवन है एक उपवन ।

देर हो गई बहुत सखी पर आओ हम पल - पल को जी लें
वर्तमान  के  इस गागर में आओ अमृत  भर - कर  पी लें ।

Thursday 9 October 2014

जन्म दिवस के पावन पर्व पर - नेता जी जयप्रकाश नारायण

                         
                                                           
नेता थे  तुम सबने माना जन - मानस  ने  मन   में  बिठाया 
तारीफ क्या करें छोटी होगी जन - जन ने अपना- पन पाया ।
जीत  लिया  मन  के  विकार को जीवन संत - समान जिए
ब  पत्नी  ने  संन्यास  लिया  खुद  को  भी उस  डगर किए ।
ह  भारी अचरज  की  बात  थी आज़ाद - देश में हुए बन्द
प्रकाश  तुम्हें  जनता  ने चाहा गाया  तुमने आज़ाद - छन्द ।
काश  सफल  होता ऑदोलन  तो  भारत  होता  कुछ  और
ताधिक  घोटाले  न  होते  तुमको मिलता कोई और  ठौर ।
नारा  था  कुर्सी  खाली  कर  दो  जनता  जाग  गई आती है
राम - राज्य फिर से लाना है जनता फिर - फिर दुहराती  है ।
ह  ऑदोलन  नहीं  है  यह  तो  अन्तः  मन  की  भाषा  है
त  हैं  हम  भारत -  माता  पर  यही  हमारी  परिभाषा  है ।


 

Sunday 5 October 2014

वृन्दावनी

आज की व्यस्तता के इस युग में, मनुष्य मशीन की तरह हो गया है । वह हर समय थकान का अनुभव करता है और थोडी - थोडी देर में हर - समय, चाय - कॉफी की चुस्की लेता रहता है । वह फायदा - नुकसान के विषय में नहीं सोचता, पर कुछ लोग चाय - कॉफी या ठण्डा नहीं पीते, वे बेचारे क्या करते होंगे ? मैं भी चाय - कॉफी - ठण्डा नहीं पीती हूँ । मैं "वृन्दावनी" पीती हूँ । मेरे बगीचे में, तुलसी के लगभग 50 - 60 पौधे हैं । दो - चार पौधे तो हर घर में होते हैं, आप भी इनकी सँख्या आसानी से बढा सकते हैं और आप भी "वृन्दावनी " पी सकते हैं । इसे बनाना बडा सरल है, बस दूध में चाय - पत्ती या कॉफी के बदले, अदरक और तुलसी कूट - कर डाल दीजिए । थोडी देर उबलने दीजिए और जब दूध का रँग हल्का हरा हो जाए तो इसे छान - कर गरमा - गरम पी लीजिए ।

वृन्दावनी, आरोग्य - वर्धक तो है ही , यह बहुत स्वादिष्ट भी होती है । इसका नाम - करण, " वृन्दावनी " इसलिए किया गया कि "वृन्दा " तुलसी का ही पर्यायवाची शब्द है । " वृन्दावनी " का आनन्द ऐसा है कि पीने वाले को सीधे वृन्दावन से जोडता है । हो गया न ! मन वृन्दावन ?        

Thursday 2 October 2014

अपना कवच बनाओ

मन  में   जिजीविषा   हो  पर्यावरण  बचाओ
जलवायु स्वच्छ रखो अपना गगन बचाओ ।

रखो   विचार  ऊँचा   यह   है   कवच  हमारा
वाणी   मधुर  हो   भाई  पर्यावरण  बचाओ ।

नित यज्ञ करो घर में परिआवरण का रक्षक
इस यज्ञ - होम से तुम ओज़ोन को बचाओ ।

सत राह पर है चलना सब सीख लें तो बेहतर
गंदी - गली  से अपने अस्तित्व को बचाओ ।

तरु हैं हमारे रक्षक रोपो  'शकुन' तुम उनको
इस  वृक्ष के कवच से अपना वतन बचाओ ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई , मो. 09302830030

Sunday 28 September 2014

जन्म - दिवस के पावन - पर्व पर - शहीद भगत सिंह

हीद भगत सिंह नाम था उनका भारत में वे रहते थे

 

हीन - भाव से बचो बढो तुम प्रेरक बन कर कहते थे ।

 

फन भले ही हो जायें पर भारत - मॉ  होगी आज़ाद

 

रत सदृश हम वीर -पुत्र हैं आज़ादी का हो शँखनाद ।

 

त आगत की नहीं है चिंता वर्तमान हित कर्म करेंगे

 

ब  ही आज़ादी आएगी  बलिदानों  की  प्रथा  गढेंगे ।

 

सिंह शायर सपूत हैं हम तो मातृभूमि हित सदा लडेंगे

 

रीभरी हो देश की धरती जननी पर प्राणोत्सर्ग करेंगे ।

 

 

                                                                      

                                        

                                    

                                   

Thursday 18 September 2014

बेटी

क्यों  घर  में  नौकरानी  सी  पल रही है बेटी
लडकी है लकडी जैसी क्यों जल रही है बेटी ?

संवेदना  कहॉ  है  यह क्या हुआ मनुज को
बेबस सी रात-दिन यूँ क्यों रो रही  है बेटी ?

भर-पेट रोटियॉ भी मिलती कहॉ है उसको
बाज़ार  में  खडी  है  रोटी  के  लिए  बेटी ।

हर  घर  में असुर  बैठा  है नोचने को आतुर
जाए  तो  कहॉ  जाए  यह  सोच  रही  बेटी ।

बेटी को दो सुरक्षा  बेटे  से  कम  नहीं  वह
मॉ-बाप का सहारा खुद  बन  रही  है  बेटी ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई , मो. 09302830030

Friday 12 September 2014

भाषा - बोध

उस दिन मुझे बहुत आश्चर्य हुआ
जब मैंने अपनी राष्ट्रभाषा को
दिन - दहाडे अपने घर पर देखा ।
उनके मुख - मण्डल पर गंभीरता तो थी
साथ ही उसमें उपालम्भ - मिश्रित वेदना भी थी ।

उन्होंने सहज भाव से मुझसे पूछा -
" हिन्दी - भाषा पढाती हो ?
बताओ, कितने छात्रों को तुमने भाषा का ज्ञान दिया है ?"
मैं मूर्छित सी हो गई ।
मेरे बारहवीं के छात्र -
" भूख लग रहा है
नींद आ रहा है
पानी गिर रहा है ।"
इस तरह की भाषा बोलते और लिखते हैं ।
जब मैं वीर - रस पढाती हूँ तो वे जँभाई भी लेते हैं
और करुण - रस पढते समय उनके चेहरे पर
डेढ - इंच मुस्कान भी होती है ।"

मैंने लज्जित हो कर कहा -
" मैं आपसे सच कहूँ -
और किसी भाषा का ज्ञान तो मुझे है ही  नहीं,
हिन्दी का भी तो समुचित - ज्ञान नहीं है
इसीलिए तो हम स्वयं, कवि को कवी, दृष्टि को दृष्टी
पिता को पीता और सिन्धु को सिन्धू कहते हैं ।
इसके अतिरिक्त
हम हिन्दी भाषा के सुदृढ, शक्तिशाली
और समृध्द होते हुए भी
अँग्रेज़ी और उर्दू की बैसाखी के बिना
एक पग चलने में भी, गर्व का अनुभव नहीं करते ।
दो सशक्त  पैरों के होते हुए भी
चौपाया बनने में ही गौरव का अनुभव करते हैं ।
हे माता ! अब तुम्हीं बताओ, ऐसी स्थिति में हम क्या करें ?"

उन्होंने मुझे प्रेरित करते हुए कहा-
" सर्वप्रथम तुम स्वयं भाषा को आत्मसात करो ।
फिर छात्रों को सही व सटीक उच्चारण सिखाओ ।
रसानुभूति से भाषा में रुचि बढेगी ।
पहले स्वयं रसामृत का पान करो
तत्पश्चात् छात्रों को रसास्वादन करवाओ ।
फिर देखो अपनी भाषा की गहराई और इसका विस्तार ।
गोधूलि एवम्  क्षितिज जैसे शब्दों के आशय को समझाने के लिए
जिज्ञासु को इनके दर्शन करवा दो ।

सम्बन्धित अधिकारियों एवम् साहित्यकारों तक
मेरे विचार पहुँचाओ और उनसे कहो कि-
हिन्दी भाषा के समस्त शिक्षकों को प्रशिक्षण दिया जाए
जिससे कि वे स्वयं अपने उच्चारण और लेखन की
त्रुटि को सुधार सकें ।
स्वर में स्पष्टता रखें एवम्
हिन्दी भाषा बोलते एवम् लिखते समय
किसी अन्य भाषा के प्रयोग से बचें ।

छात्रों को रसानुभूति करवाने की क्षमता स्वयं में विकसित करें,
अन्यथा आने वाले युग में भीषण भाषा - संकट उत्पन्न हो जाएगा ।"
कुछ रुक कर उन्होंने पुनः कहा -

"तुम एक काम और कर सकती हो
जनता जनार्दन तक अपनी बात पहुँचाने के लिए
तुम दृश्य - श्रव्य चल - चित्र निर्मित कर सकती हो ।
जिस प्रकार बेटी - बचाओ , नारी - उत्थान , एड्स और
नेत्र - दान हेतु जन - जागरण की सीख दी जा रही है ,
ठीक वैसी ही सीख
भाषा - बोध हेतु भी दी जा सकती है ।
इसके अतिरिक्त -
तुम जन - जन को प्रेरित करो कि
वे भाषा की गरिमा एवम् महिमा को समझें ।

तुम यह काम करोगी न ? "
सम्मोहन और समर्पण भरा स्वर
मेरी वाणी से फूट पडा -
" हॉ - हॉ मैं अवश्य करूँगी ।"
और तभी मेरी ऑख खुल गई ।
 





Friday 5 September 2014

शिक्षक - दिवस

शिक्षक कुम्हार गीली मिट्टी को
             देता  है सुन्दर - तम आकार ।
क्षणिक भले वह दुख देता हो
             पर  करता  हम  पर उपकार ।
ष्ट  उठा - कर दीक्षा  देता
              जीवन  समुचित  गढता  है ।
दिन रात साधना वह करता
               तभी शिष्य आगे बढता  है ।
ह अपना कर्तव्य समझ कर
                अपना दायित्व निभाता है ।
म्यक रूप आकार प्राप्त कर
                 राष्ट्र  तभी  गौरव  पाता है ।
शकुन्तला शर्मा , भिलाई , मो.09302830030     

Wednesday 13 August 2014

पुनः विश्व- गुरु बन जाएगा

घोर - अँधेरा  छँटा  देश  में  सूर्य - सदृश  कोई आया  है
बडी -  देर  के  बाद  सही  हमने  अपना  राजा  पाया  है ।

संन्यासी  सम  जीवन  उसका  देश - धर्म  है सबसे आगे
जन समूह को जिसने बॉधा नीति - नेम के कच्चे धागे ।

हर  घर  में  अब  जलेगा  चूल्हा  हर  गरीब का होगा घर
सब  मिल - जुल कर काम करें पर देश रहे सबसे ऊपर ।

अपना  देश  शक्तिशाली  हो  ऐसी  रीति - नीति बन जाए
दादा  देशों  को  तरसा  कर  भारत देस - राग अब गाए ।

अन्य  देश  में  जब  हम जायें अपने पैसे में दाम चुकायें
देश - प्रेम  की परिभाषा को भाव - कर्म में हम अपनायें ।

कर्म - योग  की  राह  चले  तो वह दिन जल्दी ही आएगा
जग कुटुम्ब सम कहने वाला पुनः विश्वगुरु बन जाएगा ।   

Saturday 9 August 2014

संस्कृत - दिवस के पावन - पर्व पर - महाकवि कालिदास

" पुरा कवीनां गणना प्रसंगे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदासः ।
अद्यापि  तत्तुल्यकवेरभावात् अनामिका सार्थवती बभूव ॥ "

प्राचीन - काल में कवियों की गणना के प्रसंग में सर्वश्रेष्ठ होने के कारण कालिदास का नाम कनिष्ठिका पर आया , किन्तु आज तक उनके समकक्ष कवि के अभाव के कारण , अनामिका पर किसी का नाम न आ सका और इस प्रकार अनामिका का नाम सार्थक हुआ । कालिदास कवि - कुल - गुरु माने जाते हैं । उन्होंने अपने विषय में कभी कुछ नहीं कहा , किन्तु उनकी रचनायें ही उनका सम्यक् एवम् सटीक परिचय देती हैं । परम्परानुसार कालिदास उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में से एक थे ।

कालिदास ने सात ग्रन्थ लिखे हैं-

1- अभिज्ञानशाकुन्तलम् - कालिदास का यह नाटक देश - विदेश में अत्यन्त लोकप्रिय हुआ । यह सात अंकों में विभाजित है । इसमें शकुन्तला एवम् दुष्यन्त की प्रणय - गाथा एवम्  "भरत" के जन्म की कथा का वर्णन है ।
ग्रन्थ के आरम्भ में कालिदास ने शिव - पार्वती की वन्दना की है -
" या   सृष्टिः स्त्रष्टुराद्या  वहति   विधिहुतं या  हविर्या   च होत्री
ये द्वे कालं विधत्तःश्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहुः  सर्वबीज   प्रकृतिरिति  यया   प्राणिनः   प्राणवन्तः
प्रत्यज्ञाभिः    प्रपन्नस्तनुभिरवतु    वस्ताभिरष्टाभिरीशः ॥"

जो स्त्रष्टा की प्रथम सृष्टि है , वह अग्नि और विधिपूर्वक हवन की हुई आहुति का वहन करती है , जो हवि है और जो होत्री है , जो दो सूर्य और चन्द्र का विधान करते हैं , जो शब्द - गुण से युक्त होकर आकाश और सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किए हुए हैं , जिस पृथ्वी को सम्पूर्ण बीजों का मूल कहा जाता है और जिस वायु के कारण प्राणी , प्राण को धारण करते हैं , भगवान शिव प्रसन्न होकर अपने इन आठ रूपों के द्वारा हमारी रक्षा करें ।

" अभिज्ञानशाकुन्तलम् " की कथा आश्रम के आस - पास घूमती है । आश्रम में ही शकुन्तला एवम् दुष्यन्त का प्रथम - मिलन होता है । शकुन्तला के सौन्दर्य - वर्णन में , कालिदास की लेखनी खूब चली है । शकुन्तला के विषय में वे कहते हैं - " वह अनघ पवित्र रूप , अनसूँघा - सुमन नखाघात से अछूता किसलय , अनबिंधा - रत्न अनास्वादित नव - मधु और अखण्ड पुष्पों के फल के समान है । विधाता न जाने किसे , इस सौन्दर्य के उपभोग की पात्रता देगा ? "

2 - विक्रमोर्वशीयम् - यह नाटक पॉच अंकों का है , जिसमें पुरुरवस और उर्वशी के प्रणय एवम् विवाह का वर्णन है । नाटक के आरम्भ में कवि ने शिव - स्तुति की है -
" वेदान्तेषु   यमाहुरेकपुरुषं  व्याप्य   स्थितं   रोदसी
अस्मिन्नीश्वर  इत्यनन्यविषयः  शब्दो यथार्थाक्षरः।
अन्तर्यश्च          मुमुक्षुभिर्नियमितप्राणादिभिर्मग्यते
स स्थाणुःस्थिरभक्तियोगसुलभो निःश्रेयसायास्तु वः॥

जिसे वेदान्त में परम - पुरुष कहा गया है , जो पृथ्वी और आकाश को व्याप्त करने के बाद भी शेष है , जो अकेला यथार्थाक्षर , ईश्वर नाम को धारण करता है , मोक्ष चाहने वाले , प्राणादि का संयम करके जिसे ज्ञानी अपने अन्तर्मन में ढूँढते हैं , वह स्थिर भक्ति - योग से सहज ही प्राप्त होने वाला स्थाणु हमारा कल्याण करे ।

विक्रमोर्वशीयम् में कालिदास ने कहा है - जिस प्रकार नदी का प्रवाह विषम शिलाओं से अवरुध्द होकर अधिक बलवान हो जाता है , उसी प्रकार प्रेम के मार्ग में , बाधाओं के आने से , प्रेम की तीव्रता सौ - गुना बढ जाती है । विक्रमोर्वशीयम्  में मानवी और अतिमानवी का मेल है । उर्वशी का चरित्र उदार है । पुरुरवस प्रेम में आनन्द - मग्न है । वह प्रेम की तुलना में राज - पाठ को तुच्छ समझता है । इस नाटक में , ईश्वर की उपलब्धि को , भक्ति के द्वारा सुलभ बताया गया है ।

3 - मालविकाग्निमित्रम् - इस नाटक में पॉच अंक हैं । यह मालविका एवम् अग्निमित्र की प्रणय - गाथा है । इसका प्रथम श्लोक इस प्रकार है-
" एकैश्वर्ये  स्थितोSपि  प्रणतबहुफले  यः  स्वयं  कृत्तिवासा:
कान्तासम्मिश्रदेहोSप्यविषयमनंसा यः पुरस्ताद्यतीनाम् ।
अष्टाभिर्यस्य  कृत्सनं  जगदपि  तनुभिर्बिभ्रतो  नाभिमानः
सन्मार्गालोकनाय  व्यपनयतु  स  वस्तामसीं वृत्तिमीशः॥"

इस श्लोक में ईश्वर से यह प्रार्थना की गई है कि- जो अपने भक्तों को प्रभूत फल देने वाले , परम - ऐश्वर्य में स्थित होकर भी जो गज- चर्म को वस्त्र के रूप में धारण करते हैं , जो पत्नी से मिश्रित तन वाला होकर भी , विषयों से परे मन वाला है , यतियों का अग्रणी है , जो अपने आठ शरीरों से जगत को शारण करने के पश्चात्  भी अहंकार- शून्य है वे शिव हमें  सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारी तामसी - वृत्ति को दूर करें । यह प्रार्थना गायत्री मन्त्र से एवम्  बृहदारण्यक् की इस प्रार्थना से मिलती - जुलती है-
" असतो मा सद् गमय ।
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
मृत्योर्मा अमृतं गमय ॥"
बृहदारण्यक् - 1 - 3 - 27

मालविकाग्निमित्र में रानी को धारिणी कहा गया है क्योंकि वह प्रत्येक स्थिति को धारण करती है । जब मालविका राजा का ध्यान , नृत्य - प्रसंग की ओर ले जाना चाहती है तो रानी राजा को समझाती है और दायित्व - निर्वाह हेतु प्रेरित करती है । वह आदर्श पत्नी है ।

4 - रघुवंश -  यह कालिदास का महाकाव्य है । इसमें 19 सर्ग हैं । रघुवंश में सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम का वर्णन है - रघुवंश के प्रथम - श्लोक में कवि कहते हैं -
" वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥"
वाणी और अर्थ के समान मिले हुए जगत के माता - पिता , शिव - पार्वती की , वाणी और अर्थ की प्राप्ति के लिए मैं कालिदास वन्दना करता हूँ ।

रघुवंश के राजा दिलीप का वर्णन करते हुए कालिदास कहते हैं कि - जिस प्रकार सूर्य , समुद्र से जल लेता है , कि उसे वर्षा- काल में अनन्त- गुना अधिक लौटा सके , उसी तरह राजा दिलीप , प्रजा से 'कर' लेते थे , ताकि वे कई गुना अधिक कर के प्रजा को लौटा सकें ।

अज के राज्य में प्रत्येक मनुष्य यह सोचता है कि वह राजा का मित्र है । हमारी संस्कृति में आज भी आदर्श राज्य को राम - राज्य कहने की प्रथा है । राजा , प्रजा का पिता - समान माना जाता है क्योंकि वह प्रजा की शिक्षा की व्यवस्था करता है , उसकी रक्षा करता है और उसका भरण - पोषण करता है । कालिदास , विवाह की परिणति सन्तान - उत्पत्ति को मानते हैं कि - दिलीप और सुदक्षिणा का प्रेम सन्तान - प्राप्ति के बाद और बढ गया । कालिदास ने अज और इन्दुमती के विषय में कहा है - यदि ब्रह्मा परस्पर स्पृहणीय इन दोनों का संयोग न होने देता तो इन्हें सुन्दर बनाने का उनका श्रम , व्यर्थ हो जाता । धर्म का ध्येय , पुनर्जन्म से मुक्ति पाना है , जिसकी कामना , दुष्यन्त ने शाकुन्तलम्  के अन्तिम श्लोक में की है -
" ममापि च क्षपयतु नीलकण्ठः पुनर्भवं परिगतशक्तिरात्मभूः ।"

5 - कुमारसम्भव - यह महाकाव्य है और इसमें शिव एवम् पार्वती के विवाह का वर्णन है तथा युध्द के देवता कुमार कार्त्तिकेय के जन्म की कथा है । कुमारसम्भव के प्रथम श्लोक में कवि कालिदास ने हिमालय - प्रदेश की संस्कृति को विश्व की संस्कृति का मानदण्ड बताते हुए कहा है -
" अस्युत्तरस्यॉ दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः ।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य  स्थितः पृथिव्यॉ  इव  मानदण्डः ॥"

" उत्तर - दिशि में देव - हिमालय प्रहरी बनकर तना खडा है ।
उत्ती- बूडती दक्खिन में सागर इस धरती का मान बडा है ॥ "

भारत की संस्कृति मूलतः आध्यात्मिक है । प्रायः मनुष्य इस भौतिक जगत के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकता है किन्तु मनुष्य जीवन का ध्येय उस निरपेक्ष - सत्ता की अनुभूति - मात्र है । हम अपनी आत्मा के माध्यम से उस अनन्त सर्व- शक्तिमान परमात्मा तक पहुँच सकते हैं । " आत्मानमात्मना वेत्सि ।" कुमारसम्भव , 2- 10 .
" स्वयं विधाता तपसः फलानां केनापि कामेन तपश्चचार । " कुमारसम्भव , 1- 57 .अर्थात्  विधाता का रूप तपोमय है , वे स्वयं तप करते हैं और दूसरों को तप का फल प्रदान करते हैं । कालिदास ने धर्म के सभी रूपों को ग्राह्य बताया है । मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार किसी भी रूप की आराधना कर सकता है , क्योंकि सभी देवता उस परमात्मा के ही रूप हैं । कुमार कार्त्तिकेय का जन्म आवश्यक था क्योंकि तारक नाम के दैत्य से मानवता की रक्षा करनी थी , इसलिए गौरी - शंकर का विवाह आवश्यक था । " अनेन धर्मः सविशेषमाद्य मे त्रिवर्गसारः ।" कुमारसम्भव , 5- 38 . उमा ने शिव को पाने हेतु प्रयास किया किन्तु अपनी देहयष्टि के सौन्दर्य से नहीं । उन्होंने अपने हृदय को समर्पित किया । उनकी आस्था केवल धर्म पर स्थित रही । " अयप्रभृत्यवनतांगि तवास्मि दासः ।" भगवान शिव द्वारा यह कहने पर कि - " हे युवती ! आज से मैं तुम्हारा तप द्वारा , खरीदा हुआ दास हूँ । " पार्वती की तपोजन्य क्लान्ति मिट गई ।

6 - मेघदूत - यह 129 श्लोकों में रचित , एक गीति - काव्य है । इस काव्य में एक यक्ष्य , मेघ को सन्देश - वाहक बना कर , अपनी प्रेयसी के लिए सन्देश भेजता है । " मेघदूत " प्रेम - काव्य है और इससे प्रेरित होकर , अनेक रचनायें लिखी गई हैं , किन्तु मेघदूत का अपना अलग महत्त्व है । पावस , प्रकृति एवम्  प्रेम का , अनूठा चित्रण मेघदूत में उपलब्ध है । कालिदास , प्रेम के अमर - गायक हैं । यक्ष , अपनी प्रेयसी का वर्णन करते हुए मेघ से कहते हैं -

" तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्वबिम्बाधरोष्ठी
मध्ये क्षामा चकितहरिणीप्रेक्षणा निम्ननाभिः ।
श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्याम्
या  तत्र  स्याद्युवतिविषये  सृष्टिराद्येव  धातुः ॥ "
विधाता की प्रथम स्त्री - सृष्टि के समान तन्वी , श्यामा , भुट्टे के समान दॉतों वाली , पके कुँदरू के समान लाल होंठ और अधर वाली , क्षीण कटि वाली , सहमी हुई हरिणी के समान नयन वाली , गहरी नाभि वाली , नितम्बों के भार से मन्द - मन्द चलने वाली , और स्तनों के भार से कुछ झुकी हुई , वह वहॉ होगी । "
सम्भवतः रामायण में वर्णित राम के विरह से , कालिदास को " मेघदूत " लिखने की प्रेरणा मिली होगी ।

7  - ऋतुसंहार - इसमें छ्हः सर्ग हैं ,  जिसमें 144 श्लोक हैं । ऋतुसंहार में ग्रीष्म , वर्षा , शरद , हेमन्त , शिशिर और हेमन्त का हृदयग्राही वर्णन हुआ है । ऋतुसंहार का अर्थ है - ऋतुओं का समूह ।

" नितान्तनीलोत्पलपत्रकान्तिभिः क्वचित् प्रभिन्नाञ्जनराशिसन्निभैः ।
क्वचित्  सगर्भप्रमदास्तनप्रभैः समाचितम् व्योम घनैः समन्ततः ॥ 2- 2

कालिदास की लेखनी में अद्भुत क्षमता है । वे प्रकृति - चित्रण करें या भाव - चित्रण , उनके वर्णन में एक चित्रकार की दृष्टि और एक नर्तक की भँगिमायें होती हैं । शब्दों को पढने मात्र से, दृश्य दिखाई देने लगते हैं । उनके शब्द - चित्र सुन्दर भी हैं और सजीव भी । भारत की महिमा - मण्डित संस्कृति को, कालिदास ने न केवल आत्मसात किया, अपितु उसे समृध्द और सार्वभौम बना दिया । कालिदास एक महान कवि हैं । वे भारतीय - संस्कृति के उन्नायक हैं ।      
 
                    

Saturday 2 August 2014

तुलसीदास- साहित्य के पार सत्य का चितेरा

सदियॉ जहॉ रोमांचक अनुभवों का इतिहास लिखती हैं , इतिहास , घटनाओं का एक अन्तहींन सिलसिला । उठते हुए साम्राज्य और ध्वस्त खण्डहर की एक स्मृति यात्रा । संस्कृति , धर्म, कला, साहित्य और इन सब के बीच से उभर कर झॉकता हुआ मनुष्य का अद्भुत जीवन । जीवन , जहॉ अनुभवों की दीवारें उठती चली जाती हैं। काल जिसके अँधेरे आयामों में प्रिय से प्रिय वस्तुयें खोती चली जाती हैं । उपलब्धि और असफलता के बीच , व्यक्ति तो आखिर काल के अँधेरे गर्भ में समा ही जाता है । जीवन , अनुत्तरित सवालों का एक अन्तहींन सिलसिला बन कर बहता हुआ झरना । इस भयावह काल - यात्रा , अनुत्तरित सवालों , जटिल संघर्षों और मिटते मनुष्य के जीवन का सार क्या है ? प्रत्येक चिन्तनशील मानव ने , इन प्रश्नों के समाधान हेतु अपना जीवन खपाया और इस विकट संघर्ष और शोध से जो प्रज्ञा उनके भीतर उद्भासित हुई , उसकी अनुभूति , आज युग की लम्बाइयों में गगनचुम्बी मीनारें बन कर खडी हैं । उसी आनन्द के उद्भास का एक अप्रतिम चितेरा हुआ "तुलसी" सोलहवीं शताब्दी का एक अद्वितीय मानव ।

तुलसी का नाम , हिन्दी साहित्य में स्वर्णाक्षरों में अंकित है । हिन्दी साहित्य उसकी गरिमा से गौरवान्वित हुआ है । रामचरितमानस , विनयपत्रिका , कवितावली , गीतावली आदि तुलसी के विश्व - प्रसिध्द ग्रन्थ हैं । अब प्रश्न यह उठता है कि तुलसी के जीवन और उसके साहित्य से हमारा क्या लेना - देना ? वस्तुतः तुलसी एक व्यक्ति नहीं है , वह जीवन की विराट लम्बाइयों और अतल गहराइयों का एक अप्रतिम चितेरा है । एक व्यक्ति के रूप में वह आज भी उतनी ही नवीनता और जगमग - ज्योति के साथ जीवित है । तुलसी ने जीवन के मर्म को समझा और उसकी सार्थकता को खोज लिया । हम जिस खाने - पीने और इन्द्रिय - सुखों से युक्त, जीवन को जीते हैं , उसे उन्होंने पशु - जीवन कहा है ‌- " तिन्ह ते खर सूकर श्वान भले जडता बस ते न कहै कछु वै । जरि जाउ सो जीवन जानकिनाथ जिए जग में तुम्हरे बिनु व्है ।" तुलसी के आदर्श , उनके प्राणप्रिय , उनके लक्ष्य, राम थे, पर यह उनका संकेत था जीवन के चरम लक्ष्य की ओर । अपने राम के विषय में उन्होंने कहा - " प्राण प्राण के जीवन जी के ।"

जो प्राणों का भी प्राण हो, जीवन का भी जीवन हो, वही तो राम है । राम अर्थात् परम सत्य की खोज, यही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य रहा । तुलसी का जीवन आज भी हमारे भीतर अबाध गहराइयों में बह रहा है और इसीलिए जीवन की उस अनादि प्रवाह के अर्थ को समझने के लिए हम कटिबध्द हैं । हमारी आयु का प्रत्येक क्षण, हमारी सम्पूर्ण चेष्टा, क्रिया, भावना उसी अनादि जीवन - सत्य की प्यास में, जाने - अनजाने हुआ करती है  । जिसे हम सुख कहते हैं वह उसी अनादि जीवन - सत्य की छाया - मात्र है । छाया का अनुभव हमें होता है । सुख का अनुभव हम प्रतिक्षण करते हैं और इस छाया को पकड - कर उस मूल सत्य तक जाना चाहते हैं । इन प्रतिक्षण मरते और नष्ट होते विश्व के बीच किसी अमर - अनादि सत्ता को पाना चाहते हैं, जहॉ जरा - मरण का भय न हो । सत् चित् आनन्द का अबाध विस्तार हो । इस अबाध अस्तित्व का आनन्द ही "राम" है । तुलसी इसी आनन्द के साथ आजीवन मुग्ध रहे । उनका जीवन इस विराट अस्तित्व के अनुभव के आनन्द की व्याख्या है ।

तुलसी बाबा आज हमारे बीच दो आयामों पर जीवित हैं, एक अनुभूति के, दूसरे अभिव्यक्ति के । रामचरितमानस में, राम, लक्ष्मण, सीता आदि अनेक पात्रों के माध्यम से जीवन के मूलभूत जटिल प्रश्नों का जैसा सम्यक् एवम् सटीक, अनुभूत उत्तर तुलसी ने दिया है, वह साहित्य के संसार का स्वर्ण - कलश है - जगमगाता , उज्ज्वल , चिर- नवीन । काल का प्रवाह उसकी नवीनता को आज भी सँजो - कर रखा है । जब तक मनुष्य का जीवन रहेगा , तुलसी की यह अभिव्यक्ति मुखरित होती रहेगी ।                        
  

Monday 28 July 2014

पावस प्रण

पावस अपने रुदन में भी तुम जग का कितना हित करती हो
 अपनी व्यथा नीर के द्वारा धरती को  सम्प्रेषित  करती  हो ।

कृषक तुम्हारी बाट जोहता आतुर - अँखियॉ  पथ  पर  होती
देर  हुई  यदि आने  में  तो  उसकी अँखियॉ  नींद  न  सोती ।

बचपन   तेरी   करे   प्रतीक्षा  आओ   पावस   करो   शीघ्रता
यदि  तुम  आए  नहीं  तो   मेरा  रह  जाएगा  गागर   रीता ।

कहॉ  चलाऊँगा   मैं  अपनी   छोटी   सी  क़ागज़   की   नाव
गलियों में छप्पक- छप करते किस विधि पार करूँगा गॉव ।

सावन   में   आयेंगे   साजन   यही   सोचती   हैं   ललनायें
घटा  न  छाई  मेघ  न  बरसे  गीत  मिलन  के  कैसे  गायें ?

मोर   देखते   राह  तुम्हारी   मेघ  -  थिरकते   मोर   नाचता
उसके  नर्तन  की  पोथी  को  व्याकुल -  प्रेमी  सदा  बॉचता ।

दादुर  टर्र - टर्र  की  बोली  में  क्या  कुछ मन को नहीं बताते
पावस तुमसे प्रेमी - जन जीते विरह - व्यथा भी वे सह जाते ।

निश्चित  ही  नीर  रुदन   है  तेरा   तेरी   पीडा   फूट   पडी   है
जो जग को अजस्त्र - वर देता  विपदा  उसकी  बहुत  बडी है ।

पावस पल -पल पर - सेवा पर कर दे अर्पित सब कुछ अपना
अपना आपा त्याग करे वह प्राणि - मात्र की सुख - संरचना ।

मनुज कदाचित् सीख ले किंचित् पावस चिंतन पावस गरिमा
रहे  शाश्वत  सुयश  उसी का इतिहास कहे उसकी ही महिमा ।

Friday 25 July 2014

वरुण देव

विविध रूप में वरुण - देव तुम  वसुधा का हित करते हो
देकर निज अनुदान जगत को नभ - जल  देते रहते हो ।

सर सरिता सागर सब के सब करते  हैं वन्दना  तुम्हारी
निर्झरणी भी मीठी  धुन  में  करती  है मनुहार तुम्हारी ।

पावस - घन  दुन्दुभि बजाता करता है अभिषेक तुम्हारा
अवनि - श्रोत से निसृत होता अक्षय पावन रूप तुम्हारा ।

नर तन में अस्तित्व तुम्हारा व्यापक विविध विधा में है
सुख दुख प्रस्तुति में रूप तुम्हारा प्रकट नयन बानी में है ।

जहॉ अशेष  शब्द  होते  हैं  नयन - गिरा से तुम झरते हो
शेष भावनाओं को तुम ही छलक - छलक  भाषा  देते हो ।

नयन तुम्हारे माध्यम से जब कुछ  कहने  की चेष्टा करते
भाषा  - बन्धन  तोड  शाश्वत  भावों  से  सम्प्रेषित  होते ।

विविध निम्न कर्मों से जब नर अपना दामन मैला करता
ऑखों का जल प्रायश्चित से दाग  मनुज  के धोया करता ।

कहता है यह कौन नयन - जल निर्बलता का है परिचायक
यह अद्भुत उपहार प्रकृति का शुभ-भावों का है प्रतिपालक ।

शस्य - श्यामला भूमि तुम्हीं से तुमसे है सन्तुलन धरा का
तुमसे भावों की उज्ज्वलता तुम ही तो हो स्नेह - शलाका ।

आओ वरुण - देव आ जाओ  मेरे  नयनों  में  नीड  बना लो
अपनों ने तज दिया क्या करूँ तुम ही मुझको मीत बना लो ।


Monday 14 July 2014

मलेशिया में भरथरी


बारहवॉ अन्तर्राष्ट्रीय ए.आई. पी. सी. सम्मेलन , 2014 , इस बार ,मलेशिया , क्वाला लम्पुर में आयोजित था । छत्तीसगढ से हम चार बहनें , संतोष ,सावित्री , नागेश्वर और शकुन्तला शर्मा , 27 जून को शाम 5 बजे , सुभाषचन्द्र बोस ,अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर पहुँच गईं । हमसे पहले भी बहुत सी बहनें वहॉ पहुँच चुकी थीं । थोडी ही देर में , लारी भैया और मनु जी भी वहॉ आ गए । भैया ने हम सबको हमारा पासपोर्ट और टिकट दिया और एक ब्लैक कलर का सुन्दर सा बैग भी दिया । अब हम बोर्डिग - पास के लिए , लाइन में लग गए । इस औपचारिकता के दौरान भी हम मस्ती करते रहे और फिर एयर - एशिया के विमान ए.के. 62 में बैठ गए । थोडी देर में मुझे इतनी ठँड लगी कि मैं एयर - होस्टेस से कम्बल मॉगने लगी पर उसने कहा कि उसके पास ओढने के लिए कुछ भी नहीं है । मैंने अपनी सीट की ए. सी. बन्द कर ली , साइड में बैठी दोनों सहेलियों ने भी , ए. सी. बन्द कर ली क्योंकि ठँड तो सभी को लग रही थी । रात में ठीक बारह बजे होस्टेस ने वेज़- बिरयानी लाकर , परोस दिया , जिसे मैंने छुआ भी नहीं । साढे चार घन्टे का समय था पर उबाऊ था लेकिन मैं विंडो के पास बैठी थी , मैं आकाश को निहारती रही और एक ऐसा समय आया जब मैंने सूर्योदय को देखा । मेरा मन प्रसन्न हो गया ।

28 / 06 / 14
अभी - अभी सुबह - सुबह  8.50 पर हम क्वाला लम्पुर पहुँचे हैं । ए. आई. पी. सी. की ओर से हमें , रिसीव करने के लिए वाल्वो की तरह एक बडी गाडी आई है । वे लोग फूलों के हार से हमारा स्वागत कर रहे हैं । स्वागत के पश्चात हम गाडी में बैठकर " पुत्रजय " कैम्पस के रेस्टोरेण्ट में ब्रेक- फास्ट के लिए पहुँचे हैं । जलपान के बाद हम ऐतिहासिक - भूमि ,"मलक्का " जायेंगे । हमारे साथ ' सगया ' नाम का गाइड है जो हमें लगातार , मलेशिया के बारे में बता रहा है । " पुत्रजय " बहुत ही भव्य - भवन है , यहॉ बैठकर जलपान करना बहुत अच्छा लग रहा है । अब हम मलक्का की ओर जा रहे हैं । रास्ते इतने साफ - सुथरे और खूबसूरत हैं कि वहॉ से नज़र नहीं हट रही है । अचानक सगया ने हमसे कहा - " सलामादातान = सलाम देता हूँ ।" हम लोगों ने भी जवाब दिया - " वालेक़म सलाम ।" सगया ने हमें बताया कि मलेशिया , " मलय " शब्द से बना है । यद्यपि मलेशिया , मुस्लिम बहुल देश है पर यह भारत की तरह सेक्युलर है । यहॉ का मुख्य व्यवसाय " पाम - ऑयल " है जिसका 3/4 भाग  भारत में निर्यात होता है । सिंगापुर , मलेशिया से 1965 में अलग हुआ । अब हम " मलक्का " पहुँच चुके हैं । मलक्का 1511 में बना । यहॉ का "सेन्ट जेवियर्स चर्च " दर्शनीय है । यहॉ का समुद्र - तट , सिंगापुर तक फैला हुआ है । मलक्का के भवन कुछ अनूठी शैली के दिखाई दे रहे हैं । यहॉ हमने गाडी से उतर कर शॉपिंग भी की । आज हम यहीं " मलक्का " में रुक रहे हैं , होटल का नाम है - " सेन्ट्रल होटल , मलक्का ।"

29 / 06 / 14
आज हम " मलक्का " से क्वाला लम्पुर जा रहे हैं । सगया ने हमें बताया कि यहॉ के राजा , भारतीय सँस्कृति से बहुत प्रभावित थे । उनकी दिनचर्या , भारतीयों की दिनचर्या जैसी ही थी - विवाह की रस्म शुरू होने से लेकर , शादी की साल- गिरह मनाते तक हू-ब-हू भारतीय । हम पुनः " पुत्रजय " पहुँच चुके हैं । हमें अपना लँच यहीं करना है । " पुत्रजय " एक इलेक्ट्रॉनिक कॉलोनी है जो पॉच किलोमीटर में फैला हुआ है । यहॉ की इमारतें भव्य हैं और पेड - पौधे भी बहुत घने एवम् सुन्दर हैं । हमें मुस्कुरा - मुस्कुरा कर अपने पास बुलाते हैं । सब कुछ बहुत सुन्दर है - " सुन्दर है विहग सुमन सुन्दर । मानव तुम सबसे सुन्दरतम ॥" पन्त

30 / 06 / 14
आज भारतीय दूतावास के सँस्कृति निदेशक श्री वाय. लक्ष्मा राव के मुख्य आतिथ्य में , ए. आई. पी. सी. का सॉस्कृतिक कार्यक्रम होने जा रहा है । सभी बहनें अपने - अपने प्रदेशों के पारम्परिक - परिधान में सुसज्जित दिखाई दे रही हैं । हम चारों छत्तीसगढी बहनें भी अपने पारम्परिक - परिधान में सजी हुई हैं । ब्रेकफास्ट के लिए जब मैं जा रही थी तो भैया मुझे लिफ्ट में मिल गए और उन्होंने मुझसे कहा - " शकुन्तला दीदी ! आप इस ड्रेस में बहुत अच्छी लग रही हैं । " इसी कार्यक्रम में मैने स्वरचित छत्तीसगढी " भरथरी " की प्रस्तुति दी जिसकी सभी ने सराहना की । मैं भूमिका में भरथरी के मूल -भाव को बता चुकी थी , इसलिए सभी को यह लोक -गीत बहुत पसन्द आया । एक और खुशी की बात यह हुई कि हमारी छत्तीसगढ की चन्द्रावती नागेश्वर को " मिस मलेशिया" का खिताब मिला । आज का दिन हमारे लिए जश्न की तरह था हमने बहुत एन्जॉय किया ।

लँच के बाद हम कुमार कार्त्तिकेय का दर्शन करने जा रहे हैं । मलेशिया में इन्हें " मुरुगन " कहा जाता है । यहॉ विश्व की सबसे पुरातन गुफायें हैं । ऐसा लगता है कि कालिदास ने जहॉ " कुमारसम्भव " लिखा , जिस गुफा में शिव और पार्वती का मिलन हुआ मानो यह , वही कन्दरा है । ये गुफायें साढे चार लाख साल पुरानी है । गुफा में जाने के लिए 250 सीढियों की खडी चढाई थी । हममें से कुछ ही लोग ऊपर चढे पर ऊपर की भव्यता देखकर , थकान मिट गई और मन ऊर्जा से भर गया । गुफा के नीचे , सीढियों के पास कुमार कार्त्तिकेय की विशाल प्रतिमा बनी हुई है । यह स्वर्णिम प्रतिमा अत्यन्त भव्य है ।

1/ 07 / 14
आज हम वाटर - वर्ड जा रहे हैं । आज हमें दिन भर पानी में रहना है । हम सब ने स्वीमिंग कॉस्ट्यूम पहन रखा है । होटल पर्ल से हमने अपना ब्रेकफॉस्ट लिया और ठीक 9 . 00 ए. एम. को अपनी गाडी में सवार होकर , हमने वाटर - वर्ड की ओर प्रस्थान किया । जल - क्रीडा की ऐसी अद्भुत दुनियॉ मैंने पहले कभी नहीं देखी थी । हम सब की अपनी - अपनी जोडी बन गई थी । मेरी और अनिता[ शिलॉंग] की जोडी बन गई । हमने अपने पूरे समय का लुत्फ उठाया और एक - एक मिनट का उपयोग किया । हम हर तरह की जल - क्रीडा में गए चाहे वह कितना भी खतरनाक क्यों न हो । इसी बीच हमने सागर रेस्टोरेण्ट में लँच भी किया । यह एक भारतीय रेस्टोरेण्ट था । लडके हमें समझा कर बताते थे कि हम अपने कूपन का उपयोग किस - किस तरह से कर सकते हैं । मैंने वहॉ इडली - सॉभर और चटनी खाई और फिर हम दोनों ने दो बार कॉफी भी पी ली । भीगते - भीगते हम दोनों ने वहॉ एक थ्री - डी पिक्चर भी देखी जो बहुत भयानक थी । अनिता और मैंने वहॉ बहुत फोटोग्राफी भी की । हम पूरे समय नाचते - गाते रहे । बहुत मज़ा आया । आखिर में हम पीछे के रास्ते रोप - वे से बाहर निकल गए । वह रास्ता सँकरा सा था और " लक्ष्मण - झूला " जैसे हिल रहा था और उसकी लम्बाई ," लक्ष्मण - झूले " से लगभग दुगुनी थी ।

बाहर निकल कर हम सब ग्रुप में फोटो खिंचवाए और फिर डिनर करने के पश्चात् अपने होटल पर्ल इन्टरनेशनल क्वाला लम्पुर में , अपने - अपने कमरे में लौट आए । मेरे कमरे का नम्बर था - 1619 और मेरी पार्टनर थी सुशीला ढाका , जो राजस्थान की है ।

2 / 07 / 14
अभी सुबह के दस बजे हैं । हम K. L.टॉवर से पूरे मलेशिया को निहार रहे हैं । इस टॉवर की ऊँचाई 421 मीटर है अभी - अभी हम एक चॉकलेट - फैक्ट्री में आए हैं । विविध तरह के चॉकलेट से पूरी दुकान सजी है । मेरे पास जो भी रिंगिट [ मलेशियाई - मुद्रा ] बची है , मैंने सबका चॉकलेट खरीद लिया है । आज हमें भारतीय दूतावास में भी आमन्त्रित किया गया है । कुल - गीत गाने का दायित्व मुझ पर है । मैं अन्य बहनों का साथ लेकर इस दायित्व का निर्वाह करती हूँ । आज हमें भारतीय दूतावास से स्वल्पाहार के पश्चात् , हमें सीधा क्वाला लम्पुर के हवाई - अड्डे में पहुँचना है और एयर - एशिया के विमान ए. के. - 63 से अपने भारत पहुँचना है । सचमुच - " जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ।"            

Saturday 12 July 2014

तस्मै श्री गुरवे नमः

सुख  से  सना  था  शैशव मेरा चिन्ता से परिचय न था 
वरद-हस्त था बडे-बडों का सुख सपना अतिशय न था।

अँजोरा  भूरी  शैलकुमारी  प्यारी - प्यारी  सखियॉ  थीं 
लडते - मिलते - इठलाते हम फूलझडी की लडियॉ थीं ।

जाने कब यह यौवन आया तितर-बितर कर गया हमें
सखियॉ प्यारी गॉव में रह गईं गॉव छोडना पडा हमें ।

हमें पढाए जो बचपन में गुरु - जन  कितने अच्छे  थे
प्रियाप्रसाद थे  परसराम  थे  तिलकेश्वर भी सच्चे  थे ।

बडे गुरु जी होरी - लाल थे सच - मुच में वे थे गुरुतर
पूरे गॉव में सम्मानित थे थे प्रणम्य वे गुरु घर - घर ।

लालटेन  लेकर  हम  सब  जाते  थे  उनके  घर  पढने 
बडे  प्रेम  से  हमें  पढाते  वह तो आए  थे  हमें   गढने ।

अक्षर-अक्षर हमें पढाया गुरु है सचमुच भाग्य-विधाता
तमस हटा आलोक दिखाया गुरु ही तो है जीवन-दाता ।

छुआ - छुवौवल  रेस -  टीप भी गुरु सँग खेला करते थे
नया गडी और नया दाम के नेम  भी गुरु पर चलते थे ।

कहॉ  भूल  पायेंगे  हम उन खट्टी - मीठी  स्मृतियों  को
कुडिया पोखरी बँधवा अँधरी की खोई -खोई गलियों को ।

पावन - ठौर सिध्द बावा का अब  भी  बसा है इस मन में
गुडी में राम - कृष्ण लीला की मोहक स्मृति है जीवन में ।

ग्राम - देव "कोसला" नमन है तुझ में बसा है मेरा बचपन 
आत्मोन्नति का मार्ग दिखाया जीवन यह कृतज्ञताज्ञापन।


 

Wednesday 25 June 2014

द्वारिका

मैं भिलाई स्टील प्लांट के स्कूल में , बच्चों को संस्कृत पढाती थी । मैं तीस मिनट से ज़्यादा कभी नहीं पढाती थी । जो थोडा सा समय बचता था उसमें बच्चों के साथ गप्पें मारती थी । उस दिन भी मैं बच्चों से बातें ही कर रही थी कि - " बताओ  बच्चों ! कौन सी पिक्चर हिट हो रही है ? कौन से हीरो - हीरोइन टॉप में चल रहे हैं ?" बच्चों को बहुत मज़ा आ रहा था । उस समय शायद रितिक रोशन और प्रीति जिंटा की कोई फिल्म हिट हुई थी । बच्चे चटखारें ले - ले कर , मुझे एक्टिंग - सहित स्टोरी सुना रहे थे , तभी अचानक प्रिंसिपल साहब आए और पूछने लगे - " शर्मा मैडम ! हँसने की आवाज़ किधर से आ रही है ?" बच्चे डर - कर चुप हो गए, पर मैने कहा - " आइये सर ! हमारे क्लास - रूम में बहुत इन्टरेस्टिंग टॉपिक चल रहा है । सर , सचमुच क्लास - रूम में आ गए , मैंने उन्हें अपनी चेयर दी और बच्चों के साथ जाकर बैठ गई । फिर अचानक एक लडके ने मुझसे पूछा  " मैडम ! आपका फेवरेट हीरो कौन है ? " 

" तुम लोगों ने कृष्ण का नाम तो सुना होगा ? " सबने एक स्वर में कहा -" हॉ ।" 
" वही मेरा हीरो है ।" 
"वे तो किसी फिल्म में काम नहीं किए हैं तो वे हीरो कैसे हो सकते हैं ?"
" विप्लव ! क्या तुम इस प्रश्न का उत्तर दे सकते हो ?"
" जिस क्लास में रितिक और प्रीति जिंटा पढते हैं , कृष्ण वहॉ के हेड- मास्टर रह चुके हैं । है न मैडम ?" 
पूरा माहौल ठहाकों से भर गया । उसी समय बेल लग गई और प्रिंसिपल सर , मुस्कुराते हुए बाहर निकल गए । 

कृष्ण का चरित्र मुझे बहुत आकर्षित करता है । उसका चरित्र अनूठा है । विरोधाभास से भरा हुआ है । हर घडी कौतूहल है , नित - नवीन है और आनन्द से भरा हुआ है । उसने अपने जीवन में कितने उल्टे - पुल्टे काम किए पर फिर भी - " कृष्णं वन्दे जगत्गुरुम् ।" 

कंस - वध के पश्चात् , कंस के ससुर , जरासंध ने , मथुरा पर, बार - बार , आक्रमण किया । उसने सत्रह - बार आक्रमण किया और कृष्ण को ललकारा । ऐसी परिस्थिति में , कृष्ण को , यदुवंशियों की सुरक्षा की चिन्ता होने लगी । वे यादवों को , मथुरा से निकाल कर , कहीं अन्यत्र बसाना चाहते थे पर यादव मथुरा छोडने के लिए तैयार ही नहीं थे , तब कृष्ण ने रातों - रात , जब यदुवंशी सो रहे थे , उन्हें नींद में ही , द्वारिका में शिफ्ट कर दिया । इस कृत्य के लिए उन्हें " रण- छोड " की उपाधि से अपमानित भी होना पडा पर उन्हें क्या फर्क पडता है ? 

यदुवंशी , जब भोर के धुँधलके में जगे , तो बिस्तर से उठ- कर , चलते हुए , दीवारों से टकराने लगे और " द्वारि कः = दरवाजा किधर है ? " कह कर , एक - दूसरे से पूछने लगे और इस प्रकार , समुद्र के भीतर , बसाए गए , उस नगर का नाम "द्वारिका " पड गया , जो देश के चार पीठों में से एक है ।      

Sunday 22 June 2014

निद्रा

जीव - मात्र को गोद में अपनी प्रतिदिन तुम्हीं सुलाती हो 
व्यथा  सभी  की हर लेती हो स्वप्न - नए दिखलाती हो ।

चेतन  होते  थके -  हुए  जन  नव - जीवन  पा  जाते  हैं
पा उमँग का उत्स तुम्हीं से नव- राग-रागिनी गाते  हैं ।

दुख  से  जब  घिर जाता मानव तुम्हीं सान्त्वना देती हो
दुख  से   भूख से नींद बडी है स्वयं - सिध्द कर देती हो ।

शिशु  जब  रो - रो  कर   थक जाता गोद में तेरी जाता है 
निद्रा से  विश्राम  प्राप्त  कर  व्यथा - मुक्त  हो  जाता  है ।

देह  में  जब  पीडा  होती  है  तुम्हीं  कष्ट  को  हरती  हो 
मन - बहला - कर धीरे - धीरे घाव मनुज का भरती हो ।

राजा   हो  या  रंक  सभी  को  गोद  तुम्हारी  प्यारी  है 
सभी  प्यार  करते  हैं  तुमसे  तेरी  महिमा   न्यारी है ।

जिजीविषा  तेरा  -  प्रसाद  है आकॉक्षा  तेरा  वर  - दान 
तुम ही तो जय की माध्यम हो कृतज्ञता का होता भान ।

प्राण - शक्ति का क्षरण रोकती माता - सम तुम हो सबकी
तुमसे ऊर्जा पाकर हम दुख अर्पित करते  निज- उर की ।

प्रिय - जन भी जब साथ छोडते तुम देती हो अपना ऑचल
बॉह - पकड आश्रय देती हो होता है जब अन्तर - व्याकुल ।

जब  शरीर  का  क्षय  होता  है  जरा - जीर्ण  हो   जाता देह 
सदा - सदा के लिए पकड कर ले जाती हो तुम निज-गेह ।

जीवन  का संग्राम  झेल कर जब यह तन - थक जाता है 
महा - नींद  में तुम्हीं  सुलाती  तभी शान्ति वह पाता  है ।

जब  वह  पुनः जन्म  लेता  है तब  भी  साथ  निभाती  हो 
जन्मान्तर भी आश्रय देकर  तुम  दिव्यता  सिखाती  हो ।
  

Thursday 19 June 2014

लय

लय शब्द झनझनाता मन के सितार को है 
सुर अपने - आप ही सुरीला हुआ जाता है ।
जगती का कण- कण बँधा लय रागिनी से 
लय से ही नियति को कर्म सभी भाता है ।

बावरी - बयार भी तो  लय में  ही  बहती  है
सरिता भी कल-कल लय में कही जाती है ।
झरना  भी  झर -  झर सुर में झरा जाता है
कोयल  भी  कुहू - कुहू  सुर में ही गाती है ।

घनन - घनन  घन  गर्जत  हैं आते  मानो 
सुर लय ताल जगती को  ज्यों पढाते हों ।
दामिनी भी दमक - दमक छवि बिखराती
मेघ मानो मही पर मल्हार गाते आते हों ।

मनुज  के  पलक  झपकने  में  होता  लय 
दृष्टि  में  भी लय है जो सृष्टि देख जाती है ।
हृदय की गति  धक - धक करती है  मानो
परिभाषा लय की जगत को समझाती है ।

लय की महत्ता सर्व-विदित है भली - भॉति
लय - बध्द  रोता हुआ नर यहॉ आता  है ।
बँधा  रहे  लय  से  प्रयास -  रत  रहता  है
जीवन की तृषा से विराम लय से पाता है ।  

Wednesday 18 June 2014

॥ अथ नवमं मण्डलम् ॥

                सूक्त - 1

[ ऋषि- मधुच्छन्दा वैश्वामित्र । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7691
स्वादिष्ठया मदिष्ठया पवस्व सोम धारया । इन्द्राय पातवे सुतः॥1॥

अत्यन्त सौम्य है वह परमात्मा अनन्त - गुणों का वह स्वामी है ।
जो  भी  सौम्य - भाव अपनाता  बन जाता प्रभु - अनुगामी  है ॥1॥

7692
रक्षोहा विश्वचर्षणिरभि योनिमयोहितम् । द्रुणा सधस्थमासदत्॥2॥

हे  पावन  पूजनीय  परमात्मन्  तुम ही इस जग के सृष्टा हो ।
अन्तर्मन में तुम बस जाओ तुम  ही जगती  के  द्रष्टा  हो ॥2॥

7693
वरिवोधातमो भव मंहिष्ठो वृत्रहन्तमः। पर्षि राधो मघोनाम् ॥3॥

परमात्मा सब सुख देता है अज्ञान - तमस  को  वही मिटाता ।
सर्वोपरि  है  वह  परमेश्वर  सत्पथ  पर  वह  ही  ले जाता ॥3॥

7694
अभ्यर्ष महानां देवानां वीतिमन्धसा । अभि वाजमुत श्रवः ॥4॥

कृपा - सिन्धु  है  वह  परमात्मा  सब  पर  कृपा  वही करता है ।
वह  ही  हमें  समर्थ  बनाता  हम  सब  की  विपदा हरता है ॥4॥

7695
त्वामच्छा चरामसि तदिदर्थं दिवेदिवे । इन्दो त्वे न आशसः ॥5॥

निष्काम - कर्म हो लक्ष्य हमारा इस पथ पर हम चलें निरन्तर ।
दुनियॉ  है  परिवार  हमारा  सुख - दुख  बॉटें  सदा  परस्पर ॥5॥

7696
पुनाति ते परिस्त्रुतं सोमं सूर्यस्य दुहिता । वारेण शश्वता तना ॥6॥

प्रतिदिन - परमेश्वर पूजन  से सौम्य स्वभाव स्वतः मिल जाता ।
उषा  जिस  तरह  सुख देती  है  सौम्य - भाव सुख देने आता ॥6॥

7697
तमीमण्वीः समर्य आ गृभ्णन्ति योषणो दश । स्वसारः पार्ये दिवि॥7॥

श्रध्दा - पूरित है जिसका मन  दस  गुण  वाला  बन  जाता  है ।
साधक को सब कुछ मिलता है मन का संतोष वही पाता है॥7॥

7698
तमीं हिन्वन्त्यग्रुवो धमन्ति बाकुरं दृतिम् । त्रिधातु वारणं मधु ॥8॥

परमात्मा  प्रोत्साहित  करता  तन - मन  बनता  ऊर्जा - वान ।
उसका आत्मिक- बल बढता है कृपा-सिन्धु है वह भगवान॥8॥

7699
अभी3 ममघ्र्या उत श्रीणन्ति धेनवः शिशुम् । सोममिन्द्राय पातवे॥9॥

श्रध्दा  से यश - वैभव मिलता श्रध्दा से मिलता  सत् - ज्ञान ।
वह  वाणी  का  वैभव  देती  श्रध्दा  में  बसते हैं भगवान ॥9॥

7700
अस्येदिन्द्रो मदेष्वा विश्वा वृत्राणि जिघ्नते । शूरो मघा च मंहते॥10॥

श्रध्दा - भाव  से  ही  विज्ञानी  अज्ञान - तमस  को  दूर  भगाता ।
वीर - विजय अविरल पाता है जीवन अपना सफल बनाता ॥10॥ 

    

Monday 16 June 2014

सूक्त - 2

[ऋषि- मेधातिथि काण्व । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7701
पवस्व देववीरति पवित्रं सोम रंह्या । इन्द्रमिन्दो वृषा विश॥1॥

प्रभु  की असीम अनुकम्पा  से  ही  पावन  होता  है अन्तर्मन ।
मन  की  प्यास  तभी बुझती है जब परमेश्वर देते हैं दर्शन॥1॥

7702
आ वच्यस्व महि प्सरो वृषेन्दो द्युम्रवत्तमः। आ योनिं धर्णसिः सदः॥2॥

पता नहीं किस विधि - विधान से धरा अवनि बनते सुख साधन ।
एक - मात्र प्रभु ही उपास्य है वह देता सब कुछ मन - भावन ॥2॥

7703
अधुक्षत प्रियं मधु धारा सुतस्य वेधसः। अपो वसिष्ट सुक्रतुः ॥3॥

प्रभु  की  छवि अत्यन्त  दिव्य  है  वह छवि आकर्षित करती  है ।
सचमुच  सर्व - समर्थ  वही  है  पृथ्वी  पर परम्परा पलती  है ॥3॥

7704
महान्तं त्वा महीरन्वापो अर्षन्ति सिन्धवः। यद्गोभिर्वासयिष्यसे॥4॥

सलिल - समीर सँग - सँग बहते  पृथ्वी  परिभ्रमण  करती है ।
सब प्राणी सुख आश्रय पाते धरती कितना धीरज धरती है॥4॥

7705
समुद्रो अप्सु मामृजे विष्टम्भो धरुणो दिवः। सोमः पवित्रे अस्मयुः॥5॥

अति  अद्भुत  है  वह परमात्मा वह सिन्धु रूप में विद्यमान  है ।
शुभ - कर्मों का वही प्रदाता एक - मात्र वह शक्ति - मान है ॥5॥

7706
अचिक्रदद्वृषा  हरिर्महान्मित्रो  न   दर्शतः । सं  सूर्येण  रोचते ॥6॥

वह  प्रभु  ही  सत् - पथ  दिखलाता  परम - मित्र  है  वही  हमारा ।
कहता आत्म - ज्ञान तुम पाओ यह तो  है अधिकार  तुम्हारा ॥6॥

7707
गिरस्त इन्द ओजसा मर्मृज्यन्ते अपस्युवः। याभिर्मदाय शुम्भसे॥7॥

वेद - ऋचायें  यह  समझाती  शब्दों  की  अद्भुत  है  महिमा ।
कर्म लक्ष्य तक पहुँचाता है यह  है  सत्कर्मों  की गरिमा ॥7॥

7708
तं त्वा मदाय घृष्वय उ लोककृत्नुमीमहे । तव प्रशस्तयो महीः ॥8॥

दुनियॉ  परमात्मा  का  घर  है  वेद - ऋचा उसका जस  गाती  ।
ज्ञान - आलोक  वही  देता  है  पल - पल प्रतिभा पल जाती ॥8॥

7709
अमभ्यमिन्दविन्द्रयुर्मध्वः पवस्व धारया । पर्जन्यो वृष्टिमॉ इव॥9॥

जैसे  रिमझिम  वर्षा आकर  वसुधा  का सिञ्चन करती है ।
वैसे प्रभु की आनन्द - वृष्टि मानव को उपकृत करती है ॥9॥

7710
गोषा इन्दो नृषा अस्यश्वसा वाजसा उत । आत्मा यज्ञस्य पूर्व्यः॥10॥

कर्म  -  स्वतंत्र  यहॉ  हम  सब  हैं  कर्मानुसार  पाते  हैं  फल ।
सत्कर्मों का फल सुख - कर है सत्कर्मों से मिलता बल ॥10॥

Sunday 15 June 2014

सूक्त - 3

[ऋषि- शुनः शेप आजीगर्ति । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7711
एष देवो अमर्त्यः पर्णवीरिव दीयति । अभि द्रोणान्यासदम् ॥1॥

आलोक - प्रदाता है परमात्मा कण - कण में वह ही बसता है ।
वह अनादि है अविनाशी है भाव - भूमि पर वह  रमता  है ॥1॥

7712
एष देवो विप्रा कृतोSति ह्वरांसि धावति । पवमानो अदाभ्यः ॥2॥

मेधावी - मन  में  वह  रहता  विद्वत् - जन  करते  हैं ध्यान ।
वह  पावन  है  पूजनीय  है  निशि - दिन देता है वरदान ॥2॥

7713
एष देवो विपन्युभिः पवमान ऋतायुभिः। हरिर्वाजाय मृज्यते॥3॥

जिसने वाणी का वैभव पाया प्रभु का जो करता गुण - गान ।
सब की विपदा  वह हरता है दया - दृष्टि रखता भगवान ॥3॥

7714
एष विश्वानि वार्या शूरो यन्निव सत्वभिः। पवमानः सिषासति॥4॥

सब को  पात्रानुसार  फल  देता  कर्मानुकूल  मिलता  है  बल ।
सत्कर्मों का फल शुभ - शुभ है सज्जन होता सदा सफल ॥4॥

7715
एष देवो रथर्यति पवमानो दशस्यति । आविष्कृणोति वग्वनुम्॥5॥

परम  पूज्य  है  वह  परमात्मा  वह ही है शुचिता का धाम । 
वही अभ्युदय देता  सब को आओ  चलें  वहीं अविराम ॥5॥

7716
एष  विप्रैरभिष्टुतोSपो  देवो वि गाहते । दधद्रत्नानि दाशुषे ॥6॥

ज्ञान - गम्य  है  वह  परमात्मा ज्ञानी - जन  करते हैं ध्यान ।
वह है अजर अमर शुभचिंतक कृपा सिन्धु है वह भगवान॥6॥

7717
एष दिवं वि धावति तिरो रजांसि धारया । पवमानः कनिक्रदत्॥7॥

सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा  वह  रक्षक  है  वही  वितान ।
वह सन्मार्ग दिखाता सब को हमको करता है आह्वान ॥7॥

7718
एष दिवं व्यासरत्तिरो रजांस्यस्पृतः । पवमानः स्वध्वरः ॥8॥

शुध्द - बुध्द है सरल - तरल है कण - कण में वह ही रहता है ।
वह सब को सुख देता रहता सब की विपदा वह हरता है ॥8॥

7719
एष प्रत्नेन जन्मना देवो देवेभ्यः सुतः । हरिः पवित्रे अर्षति ॥9॥

जिनका अन्तर्मन पावन है  परम - आत्मा उस मन में  रहता ।
शुभ - भावों को धारण कर लो यही बात वह सब से कहता ॥9॥

7720
एष उ स्य पुरुव्रतो जज्ञानो जनयन्निषः। धारया पवते सुतः॥10॥

अनन्त - शक्ति  का  वह  स्वामी  है  पात्रानुकूल  देता है बल ।
वह  सब  की  रक्षा  करता  है  कर्मानुरूप  देता  है  फल ॥10॥  

Saturday 14 June 2014

सूक्त - 4

[ऋषि- हिरण्यस्तूप आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7721
सना च सोम जेषि च पवमान महि श्रवः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥1॥

अभ्युदय  वही  परमात्मा  देता  कर्मानुसार  देता  है  फल ।
जिसने जैसा कर्म किया है वह  वैसा  ही  पाता  है  फल ॥1॥

7722
सना ज्योतिः सना स्व1र्विश्वा च सोम सौभगा । अथा नो वस्यसस्कृधि॥2॥

परमात्मा आनन्द - रूप  है  वह  देता  है  सुख - कर जीवन ।
दया - दृष्टि सब पर रखता है जीवन बन जाता  है उपवन॥2॥

7723
सना दक्षमुत क्रतुमप सोम मृधो जहि । अथा नो वस्यसस्कृधि॥3॥

जो  परमात्म - परायण  होते  प्रभु  उनकी  रक्षा  करते  हैं ।
कर्म - प्रवीण बनाते उनको उनकी विपदा  भी  हरते हैं ॥3॥

7724
पवीतारः पुनीतन सोममिन्द्राय पातवे । अथा नो वस्यसस्कृधि॥4॥

जब  हम  दीक्षीत करें किसी को शौर्य - धैर्य का युग्म बतायें ।
सत्पथ पर चलना सिखलायें जीवन - रण में दक्ष बनायें ॥4॥

7725
त्वं सूर्ये न आ भज तव क्रत्वातवोतिभिः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥5॥

ज्ञान - मार्ग से कर्म - कुशलता  हे  प्रभु  तुम  ही  हमें  सिखाना ।
धरती पर सुख - वैभव देना परलोक में भी सम्बंध निभाना ॥5॥

7726
तव क्रत्वा तवोतिभिर्ज्योक्पश्येम सूर्यम् । अथा नो वस्यसस्कृधि॥6॥

ज्ञान - मार्ग और  कर्म - मार्ग  के  राही  समर्थ  बन जाते हैं ।
वे  प्रभु   का सान्निध्य प्राप्त कर जीवन सफल बनाते हैं ॥6॥

7727
अभ्यर्ष स्वायुध सोम द्विबर्हसं रयिम् । अथा नो वस्यसस्कृधि॥7॥

स्वयं प्रकाशित वह परमात्मा सब को देता है ज्ञान - आलोक ।
अज्ञान - तिमिर को वही मिटाता वह हर लेता है हर शोक ॥7॥

7728
अभ्य1र्षानपच्युतो रयिं समत्सु सासहिः। अथा नो वस्यसस्कृधि॥8॥

सज्जन  नेम - नियम  से  चलते  प्रभु रखते हैं उनका ध्यान ।
वह  ही  सदा  सफल  होते  हैं  दया - दृष्टि  रखते भगवान ॥8॥

7729
त्वां यज्ञैरवीवृधन् पवमान विधर्मणि । अथा नो वस्यसस्कृधि॥9॥

परमात्मा  सब  की  रक्षा करते आनन्द - मय जीवन देते हैं ।
सबको पावन वही बनाते अपने - पन से अपना  लेते  हैं ॥9॥

7730
रयिं नश्चित्रमश्विनमिन्दो विश्वायुमा भर । अथा नो वस्यसस्कृधि॥10॥

जो जन प्रभु - उपासना करते सत्पथ  पर अविरल  चलते  हैं ।
वे ही यश - वैभव पा कर फिर निज जीवन को  गढते  हैं ॥10॥ 

Friday 13 June 2014

सूक्त - 5

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- आप्रीसूक्त । छन्द- गायत्री - अनुष्टुप् ।]

7731
समिध्दो विश्वतस्पतिः पवमानो वि राजति । प्रीणन् वृषा कनिक्रदत्॥1॥

परमात्मा आलोक - प्रदाता  सब  को  पावन  वही  बनाता ।
मनो - कामना  पूरी  करता स्वयं - प्रकाश बनाने आता॥1॥

7732
तनूनपात् पवमानः श्रृङ्गे शिशानो अर्षति । अन्तरिक्षेण रारजत्॥2॥

वह  प्रभु  घट - घट  का  वासी है वसुधा में वह विद्यमान  है ।
सज् - जन  उसे  जानता  है वह देह - रूप में वर्तमान है ॥2॥

7733
ईळेन्यः पवमानो रयिर्वि राजति द्युमान् । मधोर्धाराभिरोजसा॥3॥

जो  जन  प्रभु - उपासना करते परमात्मा का  करते  ध्यान ।
वह आनन्द - अमृत पाते हैं  बन  जाते हैं मनुज - महान॥3॥

7734
बर्हिः प्राचीनमोजसा पवमानः स्तृणन् हरिः। देवेषु देव ईयते॥4॥

परमात्मा अत्यन्त - अद्भुत  है  दिव्य - देह  धारण करता  है ।
एक - मात्र  वह  पूजनीय  है  दया - दृष्टि  वह ही रखता है ॥4॥

7735
उदातैर्जिहते  बृहद्  द्वारो देवीर्हिरण्ययीः। पवमानेन सुष्टुता:॥5॥

उस प्रभु की छवि अति - अद्भुत है पृथ्वी पर है अन्वेषण - बीज ।
अविरल - अन्वेषण जब होता तब  मिलती है दुर्लभ - चीज ॥5॥

7736
सुशिल्पे बृहती मही पवमानो वृषण्यति । नक्तोषासा न दर्शते॥6॥

उषा - काल स्वर्णिम वेला में मन शुभ - चिन्तन ही करता है ।
ब्रह्म - मुहूर्त्त  इसी  को  कहते  हर  मानव प्रसन्न रहता है ॥6॥

7737
उभा देवा नृचक्षसा होतारा दैव्या हुवे । पवमान इन्द्रो वृषा ॥7॥

कर्म - मार्ग का पथिक सदा ही आत्म - ज्ञान पथ पर चलता है ।
दीन - बन्धु  है  वह  परमात्मा अभिलाषा -  पूरी  करता  है ॥7॥

7738
भारती     पवमानस्य     सरस्वतीळा    मही । 
इमं नो यज्ञमा गमन्तिस्त्रो देवीः सुपेशसः॥8॥

ज्ञान - मार्ग  का  राही  सचमुच  विद्या  का  पाता  है  वरदान ।
उसका  यश  - अभिवर्धन  होता  दर्शन  देते  हैं  भगवान ॥8॥

7739
त्वष्टारमग्रजां    गोपां    पुरोयावानमा    हुवे ।
इन्दुरिन्द्रो वृषा हरिः पवमानः प्रजापतिः॥9॥

परमात्मा  पालक  -  पोषक  है  विविध -  विधा  से  देता  ज्ञान ।
साधक को सुख - सन्तति देता कृपा - सिन्धु है वह भगवान॥9॥

7740
वनस्पतिं  पवमान  मध्वा समङ्ग्धि धारया ।
सहस्त्रवल्शं हरितं भ्राजमानं हिरण्ययम्॥10॥

हे  पावन - पूजनीय  परमात्मा  देना  तुम  रिमझिम  -  बरसात ।
फूले - फले वनस्पति - औषधि जिये मनुज थिरके ज्यों पात॥10॥

7741
विश्वे    देवा:   स्वाहाकृतिं   पवमानस्या   गत ।
वायुर्बृहस्पतिः सूर्योSग्निरिन्द्रः सजोषसः॥11॥

सत् - संगति  सबसे सुख - कर  है यह ही सन्मार्ग दिखाती है ।
ज्ञान - यज्ञ अति आवश्यक है जिजीविषा भरने आती है ॥11॥  

Thursday 12 June 2014

सूक्त - 6

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7742
मन्द्रया सोम धारया वृषा पवस्व देवयुः । अव्यो वारेष्वस्मयुः॥1॥

सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा सत् - जन ही उसको पाते हैं ।
वह सबका है सगा बराबर प्रभु हम सबको अपनाता है ॥1॥

7743
अभि त्यं मद्यं मदमिन्दविन्द्र इति क्षर । अभि वाजिनो अर्वतः॥2॥

प्रेम - रूप  है  वह  परमात्मा  प्रेम  की  करता  है  बरसात ।
धरती  सुख  से  सनी  हुई  है  बल  भरने आती  है रात ॥2॥

7744
अभि त्यं पूर्व्यं मदं सुवानो अर्ष पवित्र आ । अभि वाजमुत श्रवः॥3॥

परमात्मा  हम  सबका  पालक  सबका  रखता  है  वह  ध्यान ।
वह सबको प्रोत्साहित करता चले निरन्तर शुभ - अभियान॥3॥

7745
अनु द्रप्सास इन्दव आपो न प्रवतासरन् । पुनाना इन्द्रमाशत॥4॥

वसुन्धरा  नव - पल्लव  देती  वह  ही  देती  है  धन - धान ।
कण - कण में प्रभु बसा हुआ है अविरल देता  है वरदान॥4॥

7746
यमत्यमिव वाजिनं मृजन्ति योषणो दश । वने क्रीळन्तमत्यविम्॥5॥

तन - अरण्य  में  क्रीडा करता आत्मा है अत्यन्त - महान ।
सर्व - व्याप्त है वह परमात्मा हम सब हैं उसकी सन्तान॥5॥

7747
तं गोभिर्वृषणं रसं मदाय देववीतये । सुतं भराय सं सृज ॥6॥

परमात्मा  है  ध्येय  हमारा  हम  सब  हैं  उसके  अनुगामी ।
परमात्मा आनन्द - रूप  है वह ही है हम सबका स्वामी ॥6॥

7748
देवो देवाय धारयेन्द्राय पवते सुतः। पयो यदस्य पीपयत् ॥7॥

वह  परमात्मा  अति -  अद्भुत   है  पात्रानुरूप  देता  है  फल ।
सत्कर्मों का फल शुभ - शुभ है सज्जन होता सदा सफल॥7॥

7749
आत्मा यज्ञस्य रंह्या सुष्वाणः पवते सुतः। प्रत्नं निपाति काव्यम्॥8॥

परमात्मा  जगती  का  रक्षक  वह  ही  कवि  है रचना - कार ।
वेद - रूप में उसकी वाणी जन - जन का करती है उध्दार ॥8॥

7750
एवा पुनान इन्द्रयुर्मदं मदिष्ठ वीतये । गुहा चिद्दधिषे गिरः॥9॥

परमात्मा सबका शुभ - चिन्तक जगती पर करता उपकार ।
हम सबको सुख - साधन देता अवसर देता है बार - बार ॥9॥
 

Monday 9 June 2014

सूक्त - 7

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7751
असृगमिन्दवः पथा धर्मन्नृतस्य सुश्रियः। विदाना अस्य योजनम्॥1॥

परमात्मा के सत्य - रूप का ज्ञानी  को  है समुचित - भान ।
सत्-पथ पर वह ही चलता है वैभव का मिलता वरदान ॥1॥

7752
प्र धारा मध्वो अग्रियो महीरपो वि गाहते । हविर्हविष्षु वन्द्यः ॥2॥

परमात्मा  हम  सबको  प्रिय  है  परम - मित्र  है वही हमारा ।
परमानन्द  वही  देता  है  सब  कुछ  मिलता उसके द्वारा ॥2॥

7753
प्र युजो वाचो अग्रियो वृषाव चक्रदद्वने । सद्माभि सत्यो अध्वरः॥3॥

सत् - पथ  पर  तुम  चलो  निरन्तर परमात्मा हमसे कहते  हैं ।
प्रिय - वाणी से प्रवचन करते हम उसकी उपासना करते  हैं ॥3॥

7754
परि यत्काव्या कविर्नृम्णा वसानो अर्षति । स्वर्वाजी सिषासति॥4॥

सर्व - व्याप्त  है  वह  परमात्मा  दिव्य - गुणों का वह स्वामी है ।
कवि - कर्मों का वह अभिलाषी आनन्द - रूप अन्तर्यामी है ॥4॥

7755
पवमानो अभि स्पृधो विशो राजेव सीदति । यदीमृण्वन्ति वेधसः॥5॥

परमात्मा  प्रोत्साहित  करता  कर्म - मार्ग  वह  दिखलाता  है ।
सबको सुख - सन्मति देता है कर्म - धर्म वह सिखलाता है ॥5॥

7756
अव्यो वारे परि प्रियो हरिर्वनेषु सीदति । रेभो वनुष्यते मती ॥6॥

परमात्मा  सबका  प्यारा  है  वह  ही  देता  है  ज्ञान - आलोक ।
प्रभु  साधक - मन  में  रहता  है  वह  हर लेता  है हर शोक ॥6॥

7757
स वायुमिन्द्रमश्विना साकं मदेन गच्छति । रणा यो अस्य धर्मभिः॥7॥

प्रभु - उपासना  करने  वाले  विद्वत् -  जन  उनको  पाते  हैं ।
खट् - रागों से वही बचाते वह मञ्जिल तक पहुँचाते  हैं ॥7॥

7758
आ मित्रावरुणा भगं मध्वः पवन्त ऊर्मयः। विदाना अस्य शक्मभिः॥8॥

जो  परमात्म -  परायण  होते  सब  का  करते  हैं  उपकार । 
वसुधा  है  परिवार  हमारा  हे  प्रभु  कर  दो  बेडा - पार ॥8॥

7759
अस्मभ्यं रोदसी रयिं मध्वो वाजस्य सातये । श्रवो वसूनि सं जितम्॥9॥

परमात्मा  अवढर - दानी  है  सत् - जन  को  देता  वर -  दान ।
वरद - हस्त हम पर भी रखना हे प्रभु दीन - बन्धु भगवान ॥9॥  

Sunday 8 June 2014

सूक्त - 8

[ऋषि- असित काश्यप । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7760
एते सोमा अभि प्रियमिन्द्रस्य काममक्षरन् । वर्धन्तो अस्य वीर्यम्॥1॥

हे अनन्त - शक्ति के स्वामी तन - मन सबका स्वस्थ बनाना ।
सत्पथ पर हम चलें निरन्तर ध्येय मेरा तुम ही बतलाना ॥1॥

7761
पुनानासश्चमूषदो गच्छन्तो वायुमश्विना । ते नो धान्तु सुवीर्यम्॥2॥

हे  पावन  पूजनीय  परमात्मा  हम  सब  का  बल - वर्धन  करना ।
अविरल शुभ - चिन्तन हो सब का कर्म - मार्ग पर तुम ले चलना॥2॥

7762
इन्द्रस्य सोम राधसे पुनानो हार्दि चोदय । ऋतस्य योनिमासदम्॥3॥

एक - मात्र  सच  है  परमात्मा  वह  सब को प्रेरित करता है ।
वह अपना है वही सगा है वह ही सब की विपदा हरता है ॥3॥

7763
मृजन्ति त्वा दश क्षिपो हिन्वन्ति सप्त धीतयः। अनु विप्रा अमादिषुः॥4॥

कर्म - ज्ञान से ही सम्भव है यश - वैभव की प्राप्ति धरा  पर ।
परितोष प्राप्त होने पर ही तो आनन्द देता  है  परमेश्वर ॥4॥

7764
देवेभ्यस्त्वा मदाय कं सृजानमति मध्यः। सं गोभिर्वासयामसि ॥5॥

अज्ञान  मिटाता  वह  परमात्मा अन्तर्मन  पावन करता है ।
परमेश्वर है विषय ध्यान का वह आस - पास ही रहता है ॥5॥

7765
पुनानः कलशेष्वा वस्त्राण्यरुषो हरिः। परि गव्यान्यव्यत ॥6॥

परमात्मा  सबकी  रक्षा  करता  सबको  प्रोत्साहित करता है ।
अद्भुत - गति है परमेश्वर में कण - कण में वह ही रहता है ॥6॥

7766
मघोन आ पवस्व नो जहि विश्वा अप द्विषः। इन्दो सखायमा विश॥7॥

परमात्मा  सबका  पालक  है  भाव -  भूमि  पर  वह  बसता  है ।
भाव का भूखा वह अविरल है सरल - सहज मन में रमता है ॥7॥

7767
वृष्टिं दिवः परि स्त्रव द्युम्नं पृथिव्या अधि । सहो नः सोम पृत्सु धा:॥8॥

जो परमात्म - परायण होते प्रति - दिन प्रभु की पूजा करते हैं ।
विजयी  होते  वही  निरन्तर  प्रभु उसका  जीवन  गढते हैं ॥8॥

7768
नृचक्षसं त्वा वयमीन्द्रपीतं स्वर्विदम् । भक्षीमहि प्रजामिषम्॥9॥

जो  साधक सत् - संगति करता  दिव्य - गुणों  को  अपनाता  है ।
वह  प्रभु का प्यारा बन जाता वह  आनन्द - अमृत  पाता  है ॥9॥