Sunday 30 November 2014

विश्व - विकलॉग चेतना दिवस के अवसर पर - राग - भैरवी

छाया बचपन से लँगडी थी
      घर - वाले बोझ  समझते  थे ।
लँगडी क्या स्कूल जाएगी
      यह सोच के घर पर रखते थे ।

छाया का स्वर बहुत मधुर था
       वह  हर  गाना  गा लेती थी ।
प्रतिदिन वह गाना गा-गा कर
        चिडियों को दाना- देती थी ।

उसी गॉव में गायक आया
        राग -  भैरवी  उसने  गाया ।
सब ने उसको खूब सराहा
        पावन प्यार सभी का पाया ।

" मेरे साथ कौन गाएगा
        दो - गाना गाने का मन है ।"
छाया उठी मंच पर पहुँची
         " गाने का मेरा भी मन  है ।"

दोनों ने जब सुर में गाया
        मंत्र -  मुग्ध  था  पूरा गॉव ।
जन-जन भाव विभोर हो गया
      छाया को अब मिला है छॉव ।

शकुन्तला शर्मा, भिलाई   


Sunday 16 November 2014

यक्ष - प्रश्न

क्या आपको ऐसा लगता है कि 2 अक्टूबर 2019 में " नमामि - गङ्गे " प्रोजेक्ट सहित हमारा भारत, साफ - सुथरा हो जाएगा ? मुझे तो ऐसा दिख रहा है - कि 2019 क्या 2029 तक भी, हमारी गङ्गा और हमारा भारत, साफ - सुथरा नहीं हो सकता । अब आप ही बताइए कि हर वर्ष, "अनन्त - चतुर्दशी" में , दोनों नवरात्रि में, विश्वकर्मा - पूजा में और हर मनुष्य की अन्त्येष्टि में और हर वर्ष आश्विन कृष्ण - पक्ष के श्राध्द में , हम विभिन्न - वस्तुओं को , विसर्जित करते रहेंगे तो क्या कभी गङ्गा एवम् अन्य पवित्र नदियॉ , स्वच्छ हो पायेंगी ? धर्म - संकट यह है कि इनमें से , किसी भी विसर्जन को यदि आप रोकने की चेष्टा करेंगे तो जनता बौखला जाएगी । इस जनता रूपी भस्मासुर को भला कौन समझाए , जो कुछ समझने के लिए तैयार ही नहीं है । हमारे ढकोसले इतने हैं जो हमें बर्बाद करने के लिए पर्याप्त हैं , हमें दुश्मनों की क्या ज़रूरत है ?

मैंने अपने घर में किसी तरह,अपने बच्चों को यह समझा दिया है कि दीवाली में पटाखे फोडने की कोई ज़रूरत नहीं है पर पूरे हिन्दुस्तान के बच्चों को,उनके माता - पिता को कौन समझाए कि पटाखे फोडना सही नहीं है , इससे वातावरण में ज़हर घुल रहा है, इतना ही नहीं यह हमारे "ओज़ोन - परत " को भी बहुत नुकसान पहुँचा रहा है । भला पटाखे न जलाने की सीख हिन्दुस्तान को कौन देगा ?

"नमामि - गङ्गे "  मिशन तभी क़ामयाब हो पाएगा जब भारत मानसिक - पूजा करेगा । वैसे भी पूजा में किसी वस्तु की , उपकरण की कभी कोई ज़रूरत नहीं होती । क्या हमारे देश की जनता , अध्यात्म के इस स्तर को समझ सकेगी ?

मुझे बरसों पहले की एक घटना याद आ रही है । मेरी बेटी "तूलिका" तीन बरस की थी । मैंने उससे पूछा - कि "बुआ क्या कर रही हैं ? " बच्ची ने अज़ीब सा चेहरा बना कर मुझे समझाया कि - " बुआ, भगवान को गुडिया बना कर खेल रही हैं ।" उस समय मेरे पास मेरी ननदें और मेरे जेठ जी की बेटियॉ भी बैठी हुई थीं, वे सब हँसने लगीं, पर मुझे इस घटना ने , बच्ची की बातों ने हिला - कर रख दिया । मेरे मन में प्रश्न उठा कि आखिर पूजा करते समय हम करते क्या हैं ?

मृत्यु के पश्चात दाह - संस्कार ऐसा हो, जिसमें अस्थियॉ भी जल जायें, मात्र राख शेष रहे जो अपनी जाति के साथ, आसानी से मिल जाए और खेतों में खाद की तरह, इसका उपयोग हो जाए । रावण , कुम्भकरण और मेघनाद को जलाने के लिए, राष्ट्रीय - सम्पत्ति का अपव्यय क्यों करें ? क्यों न हम अपने भीतर में बैठे, राक्षसों का वध, धीरे - धीरे करते रहें, उसे अपना सिर उठाने का कभी अवसर ही न दें तो वह स्वयमेव मर जाएगा ।

"युग निर्माण योजना " में एक सद् - वाक्य है कि - " परम्परा की तुलना में विवेक को महत्त्व देंगे," तो क्या हम उन परम्पराओं को दर - किनार करने की स्थिति में हैं, जो देश को कूडा - दान बनाने पर तुली हुई हैं ?

कबीर ने यह सब पहले ही भॉप लिया होगा और इसीलिए वह अपने अन्तिम - समय में," बनारस" छोड - कर "मगहर" चला गया होगा ताकि उसकी देह से "गङ्गा " दूषित न हो जाए और संभवतः वह हम सब को सिखाना चाहता हो कि - " भाइयों ! गङ्गा को दूषित मत करो, बनारस में ही मरना या अन्त्येष्टि होना आवश्यक नहीं है , प्राण कहीं भी छूटे, सत् - गति तो कर्मानुसार ही मिलती है । " मगहर " में देह त्याग - कर, कबीर ने यह सिध्द कर दिया कि - " मन चंगा तो कठौती में गङ्गा ।"    



                            

Monday 10 November 2014

तृषा - तृप्ति

प्यास जीवन की सार्थकता का प्रतीक - चिह्न है ।
प्यास जीवन की जीवन्तता का पर्याय है ।
प्यास - रहित जीवन भी कोई जीवन है  ?
जीवन में प्यास का अस्तित्व
यह संकेत करता है कि जीवन में गति है ।

प्यास का उद्वेग
जीवन की गति को रेखॉकित करता है ।
मंथर प्यास - मंथर गति
प्रबलतम प्यास उत्तरोत्तर गति ।

प्यास से पीडित मनुष्य ही तो संतृप्ति की तलाश करता है ।
प्यास की व्याकुलता, संतृप्ति की समीपता का संकेत है ।
प्यास की पराकाष्ठा जीवन की निरन्तरता का प्रतीक है ।

पर प्रेम - तृषा और बोध - तृषा की
सीमा - रेखा समझ में नहीं आती
कहीं ये दोनों एक - दूसरे के पूरक तो नहीं ?
कहीं प्रेम - तृषा, बोध - तृषा की प्रथम सोपान तो नहीं ?

हे ईश्वर मुझे तो दोनों सहोदर प्रतीत होते हैं
दोनों में कोई अन्तर नहीं दिखता
पर मूल्यॉकन की सामर्थ्य किसमें है ?
मानव दोनों से अपरिचित है ।
जीवन - समर में व्यतीत दैनिक दिनचर्या को
प्रेम की संज्ञा से अभिहित नहीं किया जा सकता ।

वस्तुतः माया की अनुपलब्धि ही कदाचित
राम की उपलब्धि की राह हो
क्योंकि यह सत्य तो समझ में आता है
कि माया को भोग से नहीं जीता जा सकता
योग से ही इस पर विजय सम्भव है ।
पर इस प्रक्रिया का आरम्भ कहॉ से हो
यह प्रश्न - चिह्न है
जिसने जीवन को ही प्रश्न - चिह्न बना दिया है ।