Wednesday 17 April 2013

हाइकू

एक

प्रेम - प्रहार,
मिलन - विरह  हो, 
दोनों  अंगार ।

दो

प्रीत  की  डोर ,
नाज़ुक  बहुत  है ,
नहीं   है  छोर ।

तीन

अपना कौन ,
पता  नहीं  चलता ,
भला  है  मौन ।

चार

सम -  अर्पण ,
सुनने   में  भला  है ,
यह  तर्पण ।

पाँच

कहाँ  है  प्रेम  ,
मृग - मरीचिका  है ,
नहीं  है नेम ।

छ:

प्रेम   की  प्यास ,
आस  है तब भी  है ,
मन  उदास ।

सात

मन है  वही ,
जो निरंकुश सा  है ,
मानता नहीं ।

आठ

मन  सारथी ,
कहाँ ले  जा रहा है ,
कैसा  है साथी ।

नव

मन   की  पीर ,
नयन   भर  आए , 
बरसे   नीर ।

दस

प्रेम  की  गली ,
बहुत  सँकरी  है ,  
तिलांजली ।

ग्यारह

मन - दर्पण ,
हर  पल  माँगे  है ,
सम - अर्पण ।

बारह

प्रेम  में मन , 
नहीं  पाता है  चैन , 
बावरा  मन ।

तेरह

सीधी सी बात,
नहीं पूछी जाती है,
साधू की जात ।

चौदह

प्रीत की रीत ,
सब कुछ अर्पित ,
मन के मीत ।

पन्द्रह

पते की बात 
प्रेम की बिसात में,
प्रेमी की मात ।

सोलह

प्रेम की पाती ,
भाव अतिरेक में,
पढ़ी  न जाती ।

सत्रह

प्रेम  में  मन  ,
निर्मल   दर्पण , 
कंपित   मन ।

अठारह

प्रेम का  रंग ,
उनका  पदचाप ,
जल - तरंग ।

उन्नीस 

प्रीत की कड़ी 
हँसी की फुलझड़ी,
लड़ी की लड़ी ।

बीस

मन  संसार , 
अपने  में  मगन ,
प्रेम   है  सार  ।

इक्कीस

प्रेम की माला,
साँस जपती है ,
यही  है  हाला ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]

3 comments:

  1. गागर में सागर..बधाई !

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  2. सारे हाइकू बहुत सुन्दर ..नावक के तीर जैसे।

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  3. जीवन का भेद बतलाते सुन्दर हाइकू

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