Wednesday 15 January 2014

सूक्त - 60

[ऋषि- गौपायन । देवता- जीव । छन्द- अनुष्टुप् - गायत्री - पंक्ति ।]

9394
आ जनं त्वेषसन्दृशं माहीनानामुपस्तुतम् ।
अगन्म बिभ्रतो नमः॥1॥

 यह  इन्द्रिय  ही  मानव  तन  में  विनम्र-भाव  से  रहती  है ।
उसके माध्यम से यह काया जीवन भर सुख से चलती है॥1॥

9395
असमातिं नितोशनं त्वेषं निययिनं रथम् ।
भजेरथस्य सत्पतिम् ॥2॥

इन्द्रियॉ  मनोरथ  पूरा  करती  अपने  में  डूबी  रहती  हैं ।
पर आत्मा है पृथक सर्वदा ये उस तक नहीं पहुँचती हैं॥2॥

9396
यो हनानॉमहिषॉ इवातितस्थौ पवीरवान्।
उतापवीरवान्युधा ॥3॥

सदा  हारता  आया  मन  से  हे  प्रभु  तुम्हीं  दिलाओ  जीत ।
करो अनुग्रह मुझ पर भगवन आत्मिक-बल का गाऊँ गीत॥3॥

9397
यस्येक्ष्वाकुरुप व्रते रेवान्मराय्येधते ।
दिवीव पञ्च कृष्टयः ॥4॥

प्रभु मैं भी आत्मा को जानूँ कर्म-योग मुझको सिखलाओ ।
आत्मा ही तो परमात्मा है इस रहस्य को तुम समझाओ॥4॥

9398
इन्द्र क्षत्रासमातिषु रथप्रोष्ठेषु धारय ।
दिवीव सूर्यं दृशे ॥5॥

तन  से  जुडी  इन्द्रियॉ  एवम्  मति  से  दूर  जो  रहती  है ।
उस दिव्य-शक्ति से मिलवाओ दुनियॉ जिसे आत्मा कहती है॥5॥

9399
अगस्त्यस्य नद्भ्यः सप्ती युनक्षि रोहिता ।
पणीन्न्यक्रमीरभि विश्वान्राजन्नराधसः॥6॥

इन्द्रिय पर अँकुश रख पाए ऐसी मति मुझको दो प्रभुवर ।
कीचड में भी कमल बन सकूँ ऐसी जुगत बताओ नटवर॥6॥

9400
अयं  मातायं  पितायं  जीवातुरागमत् ।
इदं तव प्रसर्पणं सुबन्धवेहि निरिहि॥7॥

प्राण ही मातु - पिता  है  मेरा  सर्वस्व  इसी  को  में  मानूँ ।
मैं तुमसे कभी मिला ही नहीं आत्मा तुमको कैसे जानूँ॥7॥

9401
यथा युगं वरत्रया नह्यन्ति धरुणाय कम् ।
एवा दाधारं ते मनो जीवातवे न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥8॥

यदि प्राण की रक्षा करनी हो तो आत्मा से इसको मिलवा दो।
इससे  प्राण  की उम्र बढेगी आत्मा से परिचय करवा दो ॥8॥

9402
यथेयं पृथिवी मही दाधारेमान्वनस्पतीन् ।
एवा दाधारं ते मनो जीवातये न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥9॥

तन  में  इन्द्रिय  मन आत्मा है विविध मार्ग में यह चलता है ।
मन से यदि आत्मा जुड जाए तो अद्वितीय पौरुष पलता है॥9॥

9403
यमादहं वैवस्वतात्सुबन्धोर्मन आभरम् ।
जीवातवे न मृत्यवेSथो अरिष्टतातये॥10॥

मृत्युलोक  में  सब  मरते  हैं  कोई  अमर  नहीं हो सकता ।
पर जीवन स्थिर हो जाए सब कुछ संभव हो सकता है॥10॥

9404
न्य1ग्वातोSव  वाति  न्यक्तपति  सूर्यः ।
नीचीनमघ्न्या दुहे न्यग्भवतु ते रपः॥11॥

यह जीव पवन सम फिरता है रवि-किरण रोग-कण ले जाए ।
गौ-माता का आशीष मिले तो मेरा रोग-शोक मिट जाए॥11॥

9405
अयं  मे  हस्तो  भगवानयं  मे  भगवत्तरः ।
अयं मे विश्वभेषजोSयं शिवाभिमर्शनः॥12॥

मेरे  ये  दोनों  हाथ  ब्रह्म  है  ईश्वर  से  भी  यह  उत्तम  है ।
इसी हाथ में हर औषधि है यह हितकर मंगल अनुपम है॥12॥   
       

1 comment:

  1. अपने बारे में जिज्ञासा स्वाभाविक है।

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