Tuesday 27 May 2014

सूक्त - 25

[ऋषि- दृळ्हच्युत आगस्त्य । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7895
पवस्व दक्षसाधनो देवेभ्यः पीतये हरे । मरुद्भ्यो वायवे मदः॥1॥

ज्ञान - मार्ग  के  पथिक  निरन्तर आनन्द  का  सुख  पाते  हैं ।
कर्म - मार्ग  के अनुयायी भी आनन्द - मार्ग  पर  जाते  हैं ॥1॥

7896
पवमान धिया हितो3भि योनिं कनिक्रदत् । धर्मणा वायुमा विश॥2॥

जो  जन  पावन  अन्तर्मन  से  करते  हैं  परमेश्वर  का  ध्यान ।
वे पाप - पुण्य को तज कर के करते हैं परम प्राप्ति अभियान॥2॥

7897
सं देवैः शोभते वृषा कविर्योनावधि प्रियः। वृत्रहा देववीतमः॥3॥

यद्यपि  प्रभु  सर्वत्र  व्याप्त  है  पर  पावन - मन  में  रहता  है ।
सब को आभास नहीं होता है योगी इस सुख को सहता है ॥3॥

7898
विश्वा रूपाण्याविशन्पुनानो याति हर्यतः। यत्रामृतास आसते॥4॥

कण- कण  में  वह  विद्यमान  है जड- चेतन  सब में बसता है ।
उसके होने के  कारण  ही  जग  इतना  सुन्दर  लगता  है ॥4॥

7899
अरुषो जगयन्गिरः सोमःपवत आयुषक् । इन्द्रं गच्छन्कविक्रतुः॥5॥

कर्म - मार्ग  के  द्वारा  चल - कर  हम  सब उसको पा सकते हैं ।
कर्मानुकूल ही फल मिलता है प्रभु को हम अपना सकते हैं॥5॥

7900
आ पवस्व मदिन्तम पवित्रं धारया कवे । अर्कस्य योनिमासदम्॥6॥

साधक  जब  भी  पावन - मन  से उसकी उपासना  करता  है ।
ज्ञान - आलोक वही पाता है आनन्द - सरिता में बहता है ॥6॥
 

2 comments:

  1. कण- कण में वह विद्यमान है जड- चेतन सब में बसता है ।
    उसके होने के कारण ही जग इतना सुन्दर लगता है ॥4॥

    सत्यं शिवम सुन्दरम !

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  2. गूढ़ ज्ञान...

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