Monday 26 May 2014

सूक्त - 27

[ऋषि- नृमेध आङ्गिरस । देवता- पवमान सोम । छन्द- गायत्री ।]

7907
एष कविरभिष्टुतः पवित्रे अधि तोशते । पुनानो घ्नन्नप स्त्रिधः॥1॥

प्रभु  दुष्टों  को  दण्डित  करते  सत् - जन  का  रखते  हैं  ध्यान ।
जिनका अन्तर्मन  पावन  है उसका  है  वह  दया - निधान ॥1॥

7908
एष इन्द्राय वायवे स्वर्जित्परि षिच्यते । पवित्रे दक्षसाधनः ॥2॥

परमात्मा  पर  जब  भी  साधक  करता  है  श्रध्दा - विश्वास ।
प्रभु  उसको यश - वैभव देते   हरदम  रहते  उसके  पास ॥2॥

7909
एष नृभिर्वि नीयते दिवो मूर्धा वृषा सुतः। सोमो वनेषु विश्ववित्॥3॥

जो  भी  साधक  सहज - सरल  है  उसका  अविरल  होता उत्थान ।
कर्मानुसार सबको फल मिलता कर्मों से  बनता  मनुज  महान॥3॥

7910
एष गव्युरचिक्रदत् पवमानो हिरण्ययुः। इन्दुः सत्राजिदस्तृतः॥4॥

प्रभु  जिस  पर  प्रसन्न  होते  हैं  सत् - विद्या  का  देते  भण्डार ।
यश - वैभव  के  वे  निधान  हैं  करते  हैं  अनगिन उपकार ॥4॥

7911
एष सूर्येण हासते पवमानो अधि द्यवि । पवित्रे मत्सरो मदः॥5॥

आलोक  सभी  को  वह  देता  है  वह  है  हम  सबका  आधार ।
वह  ही आनन्द - रस  देता  है  प्रभु  है  वैभव  का आगार ॥5॥

7912
एष शुष्म्यसिष्यददन्तरिक्षे वृषा हरिः। पुनान इन्दुरिन्द्रमा॥6॥

अनन्त - बलों का वह स्वामी है कण - कण में वह ही बसता है ।
मनो - कामना  पूरी  करता  वह  सब  की  विपदा  हरता है ॥6॥  

2 comments:

  1. सत-पुरुषों के ह्रदय में प्रभु का वास होता है...

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  2. जो भी साधक सहज - सरल है उसका अविरल होता उत्थान ।
    कर्मानुसार सबको फल मिलता कर्मों से बनता मनुज महान॥3॥
    कर्म शुभ हों तो भाग्य भी शुभ हो जाता है

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