प्रथम वेद विज्ञान काण्ड है गुण और गुणी जहॉं वर्णित हैं
व्याख्यायित पदार्थ होता है ' ऋच स्तुतौ ' से ऋक् निर्मित है ।
ब्रह्म - सदृश व्यापक वाणी है जिसका ओर न छोर है
ऋषि में स्थित अमृत - वाणी श्रेष्ठ मनुज हित डोर है ।
वेद ' हेतु ' है सत्य - ज्ञान का राज - मार्ग है आत्मज्ञान का
सत्यासत्य निरुपण करके वे हैं अधिकारी ऋषि - पद का ।
धर्म - अर्थ के वे ज्ञाता हैं सबको जो इसे पढाते हैं
पर - उपकार में पारंगत वे ही ऋषि - पद को पाते हैं ।
देह मनुज ज्यों धारण करता ईश्वर जग का आकॉंक्षी है
सर्व - व्याप्त वह परमेश्वर ही नर के कर्मों का साक्षी है ।
अन्तर्यामी उस परमात्मा से जगरक्षित आनन्द - रूप है
वे सभी उपासक आनंदित हैं सतत समुज्ज्वल ज्ञान रूप है ।
श्रेष्ठ - मार्ग पर जो नर चलते समर्थ - सिध्द वे ही बनते हैं
विपरीत परिस्थितियों में भी वे शोकानल में नहीं जलते हैं ।
सूर्य - चन्द्र और उषा - सदृश ही सबको सुख दें ललनायें
तभी सुखी वे हो सकती हैं अन्यथा व्यथा - वेदना पायें ।
विद्यानिधि से श्रेष्ठ कुछ नहीं इससे परे नहीं है सुख
विद्या से ही सम्भव होता सत्य - सनातन सन्तति - सुख ।
बिन वर्षा ज्यों सुखी न कोई रुक्ष जगत हो जाता है
बिन - विद्या सुख - धर्म नहीं है उद्यम से नर विद्या पाता है ।
विद्वानों के पथ पर जाकर जो विद्वता प्राप्त करता है
सबके सुख की अभिलाषा में दानवीर सम यश पाता है ।
जो अनीति प्रतिकार हैं करते दुष्टों को करते हैं ताडित
वे ही नर फिर इस वसुधा पर यश - तन से रहते हैं जीवित ।
माता आचार्या गुरु विग्रह वत् नित्य निकटतम स्थित हो
मानव पाए निज इच्छित पद विद्या- विवेक नित वर्धित हो ।
जल - धारा स्थिर नहीं रहती कल - कल करती बहती है
वैर - भाव पर क्षमा विजित हो ऋग्वेद - नीति यह कहती है ।
आठों - अंग सत्य - मय हो यदि सत्यपूत हो यदि वाणी
गौ - माता की पूजा - रत जो सर्वात्मना वही वरदानी ।
जल सार्थक करता है सागर जन - समूह को दे जल दान
सत् - जन भी सागर - सम होते आश्रित जन को देते मान ।
सूर्य सदृश उत्तम वाणी से आश्रित जन को हर्षाते हैं
वे ही होते श्रेष्ठ प्रतिष्ठित परम - पद भी वे नर पाते हैं ।
ईश्वर सबको देता प्रकाश है सृष्टि समूची धारण करता
निज - प्रकाश से अन्य लोक रच सूर्य - सूर्य का वह है कर्ता ।
यदि वह सूर्य नहीं रचता तो सृष्टि अनूठी बनती कैसे
कौन मेघ से जल बरसाता नभ आलोकित होता कैसे ?
यज्ञानुष्ठान से अभिमन्त्रित जल तरु पादप पर सींचा जाए
उस औषधि के रस को पीकर धर्मानुष्ठान से सुयश बढायें ।
तन - मन आत्म- बली बनकर बनो कृतज्ञ करो स्वीकार
व्यय से विद्या वर्धित होती विद्या - दान करें साभार ।
उद्यम में नित हो रुचि नर की ऋतु के प्रति वह अनुकूल रहे
अहित कभी न करे किसी का उपकारी की शरण गहे ।
अनल सदृश जो दीप्ति मान हो पुरुषार्थ चार के हों उपदेशक
ऐसे विद्वत् - जन को नित प्रति करें प्रणाम बनें विद् सेवक ।
घृत से अनल सदा बढता है ब्रह्मचर्य से विद्या बढ्ती
वेद आचरण से बल बढता नित अभ्यास से कला निखरती ।
वेद - वाङमय को हम जानें फिर परमात्मा को जाने
उद्भव - कर्ता पालक - नाशक उसी परम को पहचाने ।
सर्व - व्याप्त - पावन - पुनीत जो वही सत्य है शाश्वत है
स्वरुप सत्य है उसी ब्रह्म का बनो उपासक वही सतत है ।
शुभ - कर्मों को करने वाले श्रेष्ठ - जन्म को पाते हैं
जो अधर्म में रत रहते हैं निम्न योनियों में जाते हैं ।
पिता निज सुत को योग्य बनाता दिव्य गुणों का दे वरदान
भगवन ! वैसी ही उत्तम- विद्या शुभ गुण कर्मों का दो ज्ञान ।
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ.ग. ]