Sunday, 26 May 2013

हिंदी गज़ल तब और अब

अपने सुख- दुख के स्वामी तुम्हीं हो सखे अपनी मर्ज़ी से तुमने ये सुख दुख चखे
कर्मों  का  फल  तो  मिलता  है संसार  में आज़मा  लो  यही  बात  सच  है  सखे ।

कोई   दूजा  तुम्हें  दुख  नहीं  देता है  अपनी  मर्ज़ी  से  दुख  पाते  हो  तुम  सखे
बात  इतनी  सी  है  तू  भी  यह  जान  ले  सुख  है  सत्कर्म  दुष्कर्म दुख है सखे ।

हिन्दी गज़ल सम्प्रेषण का ऐसा सशक्त माध्यम है , जिसे आम - आदमी पढ्ता है ,सुनता है , समझता है और पसंद भी करता है । तब और अब की तुलना करने  के लिये , आइये हम अतीत की ओर चलते हैं , पीछे मुड कर देखते हैं ।

'भारतेन्दु ' हरिश्चन्द्र , आधुनिक काल के जनक माने जाते हैं । उन्होंने गज़ल भी लिखी है । गज़ल  गायक के रूप में अपना उपनाम  उन्होंने ' रसा ' , रखा था । उनकी  गज़ल  के चंद शेर देखिए --
" दिल   मेरा  ले  गया   दगा   करके
बेवफा    हो    गया   वफा    करके ।
क्यूं    न   दावा   करे   मसीहा   का
मुर्दे  ठोकर  से  वो   जिला   करके ।
क्या हुआ यार छिप गया किस तर्फ
इक  झलक  सी  मुझे दिखा करके ।
दोस्तों   कौन    मेरी   तुरबत    पर
रो  रहा   है  ' रसा '   ' रसा '  करके ।"

" भारतेन्दु " के  पश्चात्  अयोध्या सिंह उपाध्याय " हरिऔध " ने भी गज़ल का प्रयोग कुछ इस तरह किया है --

 " बीन   मे  तेरी   भरी   झंकार   है
बज  रहा  मेरी  रगों  का  तार  है ।
किस तरह वो ऑंख भर कर देखते
ऑंख जब होती  नहीं  दो चार  है  ।
लड गईं  ऑंखें  बला  से लड  गईं
दो दिलों में क्यों मची तकरार है ।"

" हरिऔध " जी समाज सुधारक हैं । समाज में जो भेद- भाव , ऊंच - नीच और जाति - पांति की दीवार है , वे उसे गिराना चाहते हैं । वे चाहते हैं कि पूरा देश एक साथ , कदम से कदम मिला कर चले । समाज में प्रेम और सौहार्द्र की भावना हो । वे कहते हैं --
"  राह पर उसको लगाना चाहिए
जाति सोती है जगाना चाहिए । "

जयशंकर  "प्रसाद " जी ने ' गज़ल '  पर  अपनी लेखनी चलाई है । उनका अंदाज़ कुछ इस प्रकार है --

" सरासर  भूल  करते हैं , उन्हें जो प्यार  करते  हैं
बुराई   कर   रहे   हैं  और   अस्वीकार   करते  हैं  ।
उन्हें अवकाश ही इतना कहॉ है मुझसे मिलने का
किसी  से  पूछ  लेते   हैं   यही  उपकार  करते  हैं ।
 प्रसाद उनको न भूलो तुम तुम्हें जो प्यार करते हैं
न सज्जन  भूलते उनको जिसे स्वीकार करते हैं ।"

देश की दुर्दशा देखकर , जयशंकर प्रसाद दुखी हैं । वे चाहते हैं कि व्यवस्था परिवर्तन हो । देश स्वतंत्र हो । वे कहते हैं --

" देश की दुर्दशा निहारोगे
डूबते को कभी उबारोगे । "

सूर्यकान्त त्रिपाठी  ' निराला ' का  अ‍ॅंदाज सबसे निराला है --

" किनारा वो हमसे किए जा रहे हैं
दिखाने को दर्शन  दिए जा रहे हैं ।
खुला  भेद  विजयी कहाए  हुए जो
लहू  दूसरों  का  पिए  जा रहे  हैं ।"



हिन्दी गज़ल भारत की स्वतंत्रता से भला अछूती कैसे रह सकती है ? जगदम्बा प्रसाद मिश्र  ' हितैषी ' की गज़ल में देशभक्ति का तेवर है--

" शहीदों  की  चिताओं  पर   जुडेंगे   हर  बरस  मेले
  वतन पर मरने वालों का यही   बाक़ी  निशां होगा ।

कभी वह दिन भी आएगा जब अपना  राज्य  देखेंगे
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा ।"

समकालीन साहित्य में स्वाभाविक रुप से ' गज़ल ' का समावेश होता रहा है । गीतकार 'गज़ल ' लिखने लगे  और  धीरे- धीरे कवियों  में भी  'गज़ल ' लिखने की रुचि  पनपती रही । गीतकार बलबीर सिंह ने रोमांटिक गज़लों की रचना की । आइए  उनकी  गज़लों का रंग देखते हैं --

" सारा  जीवन  गँवाया  तुम्हारे लिए
तुमको अपना  बनाया  तुम्हारे लिए ।
भेंट    कर    गीतों    की     भागीरथी
ऑंसुओं   में   नहाया  तुम्हारे  लिए ।
धूलिकण जड दिए व्योम के भाल पर
स्वर्ग  धरती  पे  लाया  तुम्हारे  लिए ।
चाहे  मानो  न  मानो  तुम्हारी  खुशी
रंग महफिल में आया  तुम्हारे  लिए ।"

शमशेर बहादुर  सिंह की ' गज़ल' में परम्परा का पावन प्रवाह है --

" वही  उम्र  का  एक  पल कोई  लाए
 तडपती  हुई  सी  गज़ल  कोई  लाए ।
 हक़ीक़त  को लाए  तखैयुल से  बाहर
 मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाए ।"

इसके विपरीत , त्रिलोचन की गज़ल में संस्कृत - शब्दावलियों का प्रयोग प्राञ्जल प्रतीत होता है --

" प्रबल जलवात पाकर  सिन्धु  दुस्तर  होता जाता है
 कठिन  संघर्ष जीवन  का  कठिनतर  होता  जाता है ।
' त्रिलोचन ' तुम  गज़ल  में खूब आए  बात  बन आई
 नए जीवन का स्वर अब गान का स्वर होता जाता है।"

हिन्दी साहित्य में गज़ल रचना की परम्परा पुरानी है किन्तु दुष्यन्त कुमार की गज़ल ने , हिन्दी गज़ल को एक नई पहचान दी है । समकालीन कवि गज़ल की ओर इसलिए आकर्षित हुए कि गज़ल , सम्प्रेषण की बहुत ही स्वाभाविक और सशक्त माध्यम बनी और जल की तरह  तरल मन  अनायास ही गज़ल की ओर बहने लगा । दुष्यन्त ने अपनी गज़ल में , बोल- चाल के सरल-सहज शब्दावलियों का प्रयोग किया । यही कारण है कि उनकी गज़ल , आम - आदमी की ज़ुबान तक आ गई ---

" एक जंगल है तेरी ऑंखों  में  मैं जहां राह  भूल  जाता  हूं
 मैं तुझे भूलने की कोशिश में आज कितने करीब पाता हूं । "

                                      
साहित्य जन-मन तक कैसे पहॅंचे , इस विषय पर , दुष्यन्त ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही है-- " मैं बराबर महसूस करता रहा हूं  कि कविता में आधुनिकता का छद्म  कविता को बराबर पाठकों से  दूर करता चला गया है । कविता और पाठकों के बीच इतना फासला कभी न था , जितना आज है । इससे ज्यादा दुखद बात यह है कि कविता शनैः - शनैः अपनी पहचान और कवि अपनी शख्सियत खोता चला गया है । ऐसा लगता है मानो दो दर्जन कवि एक ही शैली और शब्दावली में , एक ही कविता  लिख  रहे हैं  और  इस कविता के  बारे में कहा जाता है कि यह सामाजिक और राजनीतिक क्रान्ति की तैयारी कर रही है । मेरी समझ में यह दलील खोटी और वक्तव्य भ्रामक है जो कविता लोगों तक पहुंचती ही नहीं वह किसी क्रान्ति का संवाहक भला कैसे हो सकती है?"   

" ये सारा ज़िस्म झुककर बोझ से दुहरा हुआ होगा
  मैं  सज़दे में  नहीं था आपको  धोखा  हुआ  होगा ।"

दुष्यन्त जानते हैं कि साहित्यकार का , कवि का दायित्व बहुत बडा है । वैसे तो दुष्यन्त ने विविध विधाओं में साहित्य रचना की है किन्तु वे गज़लकार- कवि के रुप में ही चर्चित एवम् लोकप्रिय हुए हैं । दुष्यन्त ने गज़ल की दो पुस्तकें लिखी हैं, 'आवाज़ों के घेरे ' और 'साये में धूप ।'

" सिर से सीने में कभी पेट से पॉंवों में कभी
 एक जगह  हो तो कहें  दर्द  इधर  होता  है ।"

दुष्यन्त कुमार कहते हैं - " मेरे पास कविताओं के मुखौटे नहीं हैं  , अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रायें नहीं हैं ।  मैं कविता को चौंकाने या आतंकित करने के लिए इस्तेमाल नहीं करता । उसे इतनी छोटी भूमिका नहीं दी जा सकती । समाज एवम् व्यक्ति के सन्दर्भ में उसका दायित्व इससे बहुत बडा है । "

" हो  गई  है  पीर  पर्वत  सी  पिघलनी  चाहिए
  इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए ।"

दुष्यंत कुमार के शेर , जन - जागरण में निनाद की तरह प्रयुक्त हुए । लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 25 जून 1975 को , दिल्ली के रामलीला मैदान में , इन्दिरा शासन के विरोध में जन - ऑंदोलन का नेतृत्व किया था , तब उन्होंने ' दिनकर ' की कविता की पंक्ति -    " सिंहासन खाली करो कि जनता आती है । "  का प्रयोग जनसूक्ति की तरह किया था , इसी प्रकार आज दुष्यन्त कई गज़ल की पंक्तियॉं जन - सूक्तियों की तरह , जन - मानस  को ऑंदोलित करती हैं । दुष्यन्त ने बिम्ब एवम् वक्रोक्ति का साथ - साथ प्रयोग किया है -

" कहॉं तो तय था चिरागॉं हरेक घर के लिए
 कहॉं चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए । "

डा. नागेन्द्र वसिष्ठ हिन्दी गज़ल के सशक्त हस्ताक्षर हैं । ये आम आदमी की बात कहते हैं एवम्  जाने - पहचाने बिम्बों का प्रयोग करते हैं -

" मेरी बस्ती  में  कोई  बहरा  न था
  शोर इतना था कोई सुनता न था । "
एक और दृश्य देखिए " किसलिए आते परिंदे घर मेरे , मेरी छत पर एक भी दाना न था ।" करुण - रस के चित्रण में वशिष्ठ का कोई जवाब नहीं । वे संस्कृत के कवि  ' भवभूति ' की याद दिला देते हैं - 
" मेरे इक ऑंसू से भर आता था जिसका दिल ' वशिष्ठ '
जाते  -  जाते  मेरी  ऑंखों  को  समंदर   कर  गया ।"

हिन्दी गज़ल में बालस्वरुप राही की गज़ल एक विशेष स्थान रखती है --
" टपकेगा रुबाई  से तेरा खून या ऑंसू
 ' राही' है तेरा नाम तू 'खैयाम' नहीं है ।"
बोल- चाल के शब्दों में अपनी बात को कह देना ' राही ' की विशेषता है -
" वक्त  का आखरी फरमान अभी  बाकी है
 मेरे  अंजाम  का  ऐलान  अभी  बाकी  है ।
 कट गई उम्र मगर कट न सकी जो ' राही '
 मेरे  सीने में  वो चट्टान अभी  बाकी है ।"
भवानीशंकर एक प्रतिष्ठित गज़लकार हैं । बिहारी की तरह कम शब्दों में बडी बात कह देना , इनकी विशेषता है -
" खून से सींचा था तुझको इसमें  कोई शक नहीं
और अब  पानी की बूंदों पर  भी  मेरा  हक नहीं ।
उसने भी करवट बदलकर एक दिन मुझसे कहा
मैं तेरे लायक  नहीं  और  तू  मेरे  लायक  नही । "

'शलभ ' श्रीराम सिंह प्रगतिशील गज़लकार हैं । वे सबकी पीडा को अपनी पीडा समझतेहैं । वे " वसुधैव कुटुम्बकम् " के पोषक हैं-
" मुश्किलें थम गईं  दर्द कम हो गया अब ज़माने का गम अपना गम हो गया
 रोशनी  अब  अंधेरे  की  हमराज  है  जो  न  होता  था  वह  एकदम  हो  गया ।
 रास्ते ने  मुसाफिर  से क्या  कह  दिया इन्किलाबे  सफर  हर कदम  हो गया
मेरे  बाद आने  वालों से कहना ' शलभ ' एक बेगाना  दुनियॉं  में कम हो गया ।"

शेरजंग गर्ग , बातचीत की शैली में अपनी गज़ल कहते हैं । नपी - तुली भाषा में हास्य -
व्यंग्य का पुट देखते ही बनता है --
" जब पूछ लिया उनसे किस बात का डर है
 कहने  लगे  ऐसे  ही  सवालात  का डर  है ।
 हर चीज़ में  बिगडे हुए  अनुपात का डर है
 फौलाद की औलाद में जज़बात का डर है ।
है खास खबर आज की हो जाओ खबरदार
कागज़  पे सुधरते  हुए  हालात  का डर है ।
हॉं न्याय का विषपान तो करना ही पडेगा
एथेंस के  हज़रात को  सुकरात का डर है ।"
सूर्यभानु गुप्त ने हिन्दी गज़ल में विशेष प्रतिष्ठा पाई है । उनकी सहज - सरस शैली क़माल की गज़ल कहती है -
" ऐसे खिलते हैं फूल फागुन में लोग करते हैं भूल फागुन में
धूप  पानी  में  यूं   उतरती  है  टूटते   हैं  उसूल  फागुन  में ।

कोई  मिलता  है और होते  हैं  सारे सपने  वसूल  फागुन  में
चोर  बाहर दिलों के  आते  हैं ज़ुर्म  करने  क़ुबूल फागुन में ।

चॉंदनी  रात भर बिछाती  है बिस्तरों  पर  बबूल फागुन  में
भूले - बिसरे हुए ज़मानों की साफ होती है धूल फागुन में । "
दानेश्वर शर्मा छत्तीसगढ के लोकप्रिय गीतकार  हैं । वे अपनी गज़ल के माध्यम से
अपनी बात कुछ इस तरह कहते हैं -
" चाहता कौन क्या व्यर्थ का प्रश्न है ज़िन्दगी खुद की है दूसरों की नहीं
 सिर  उसी का उठा जो झुका है सदा  बंदगी खुद की है दूसरों की नही । " 
संतोष झांझी ने अपनी गज़ल में इंकलाब की बात कही है -
" कुछ  कीजिए अब तो  इंकलाब चाहिए  वर्षो से दबा हुआ सैलाब चाहिए
 जलती हुई मशालें प्रश्नों के हाथ में हर प्रश्न का हमें तो अब ज़वाब चाहिए।"
मुकुन्द कौशल , हिन्दी गज़ल के सशक्त हस्ताक्षर हैं । श्रृंगार के साथ - साथ सामाजिक अव्यवस्था एवम्  आदमी की नीयत पर उनकी कलम खूब चली है -
" जितने भी अफसर होंगे सबके मकान बन जायेंगे
 नीति समायोजन की रखिए प्रावधान बन जायेंगे ।
 लोकतंत्र  की  परम्परा को  मनोनयन खा जाएगा
 लगता है अब लोग स्वयं ही संविधान बन जायेंगे।



शकुन्तला शर्मा , बेटियों की सुरक्षा के प्रति चिंतित हैं । देश में आज नारियों की जो दुर्दशा है , उस पर उनकी क़लम खूब चली है--
" कौम  से कटा  हुआ ये  जी  रहा   है  कौन
 ऑंख  में  ऑंसू  लिए ये  जी  रहा  है  कौन ?

 आज   बहू  - बेटियॉं   रोती    हैं   यहॉं  क्यों
 प्रश्न   उठ  रहा  है  रुलाता   है  मगर  कौन ?

 रोटी   बना  रही  थी  तो   आग   लग   गई
 गगन  में  गूँजता   है  जला  रहा  है   कौन ?

 बेबस को  मार के  भला  तुझे  मिलेगा क्या
 अपने  ही घर में आग ये लगा रहा  है कौन ?

 बेटी को बचा ले ' शकुन ' सिसक रही  है वह
दुनियॉं  में आने  से  उसे  है रोक  रहा  कौन ? "

सुखचैन सिंह भंडारी ने अपनी गज़ल में श्रृँगार का चित्र कुछ इस तरह खींचा है --
" वह स्वप्न सुन्दरी हो करके सपनों का महल सजाती है
 अंग- अंग  को थिरकाती  कोई  गीत प्यार  का  गाती  है ।
 तन भी इसका मन  भी इसका इसके ही सब नाम लिखा
 प्यार क़चहरी के क़ागज़ पर प्यार का नाम  लिखाती  है ।"
आलोक शर्मा , वर्तमान व्यवस्था से , संटुष्ट नहीं हैं । वे कहते हैं --
" धीमी है आग और थोडी सुलगाइए , फिर वेदना के भस्म पर धूनी रमाइए
 घायल हैं शब्द और भटके हुए अर्थ हैं अब मानेगा कौन और किसे मनाइए ।"
सुदेश मोदगिल 'नूर ' की गज़ल गुनगुना कर कुछ कह रही है --

" शामे  तनहाई ने जब भी कभी सताया  है मैनें उस शाम  को तेरी याद से  सजाया है
 तेरी दस्तक से ही बजा है मेरा साज़े दिल मैंने हर गीत तेरी खातिर ही गुनगुनाया है ।"
डा. सलपनाथ यादव ' प्रेम ' अपने छोटे- छोटे शब्दों से , बडी बात कहते हैं --
" गुरुर करना  नहीं आप  ज़िन्दगानी  में  हुज़ुर ज़िन्दगी  ये  तार-तार होती  है
 मैंने खाई है चोटआज़ तक़ ज़माने की मगर दुखदायी समय की ही मार होती है।"

नीता काम्बोज ' शीरी ' की गज़ल , मन को छू लेती है । वे कहती हैं --
" वक्त ही कब मिला कि मॉं की गोद में खेले
 गरीब का बेटा  बडा  हो गया वक्त से पहले  ।
 गम को जज़्ब करना  ताक़त मत  समझ
 रोना  होता  है  अच्छा  जी  भर  के  रो  ले । "
नरेश महाजन  ' निरगुन ' का अँदाज़ कुछ अलग है । कम शब्दों में उन्होंने बहुत कुछ कहा है --
"धरती और आकाश सभी के चॉंदी - सोना अपना- अपना
 जॉंचा परखा  फिर ये जाना  बोझ है ढोना अपना- अपना ।"

हिन्दी गज़ल की इस यात्रा के उपरान्त हम इस पडाव पर पहुंच कर , यह अनुभव कर रहे हैं कि तब अधिकतर , गज़ल, श्रृँगार के क़रीब था , जबकि आज के गज़लकार श्रृँगार के अतिरिक्त , अन्य रसों पर भी अपनी बात कह रहे हैं । हिन्दी गज़ल के हाथों में आज क्रान्ति एवम्  शान्ति की मशाल है ।यह युग मात्र श्रृँगार में डूबकर नहीं जी सकता , यह युग परिवर्तन चाहता है और यह क्रान्ति आज के गज़लों में देखी जा सकती है । एक परिवर्तन मुझे और नज़र आ रहा है , वह ये कि गज़ल के परम्परा- गत , स्वरुप में तनिक बदलाव आया है और हम यह मान कर चलते हैं कि परिवर्तन , प्रकृति की प्रकृति है एवम् प्रगति का परिचायक भी है । हिन्दी गज़ल का भविष्य उज्ज्वल है और वह भटके हुए विश्व को दिशा देने का पुनीत कार्य कर सकती है ।
" देशी  पहनो  देशी  खाओ  अपनी  माटी  के  गुन  गाओ
 पेप्सी  कोकाकोला  छोडो   देशी  शरबत  पर  आ  जाओ ।

 कोलगेट  तो  लूट  रहा  है  नीम  बबूल कान्ति अपनाओ 
 देशी  जूते  पहनो   भाई  बाटा  को  अब   तुरत   भगाओ ।

 साबुन   देशी  शैम्पू   देशी   पहले   अपना   देश   बचाओ
 देश रहेगा तभी तो हम हैं 'शकुन' सभी को यह समझाओ ।"

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ ग ]

सन्दर्भ - ग्रन्थ
1' गज़ल सप्तक' , सामयिक प्रकाशन, 3543 दरियागंज , नई- दिल्ली -110002
2 ' गज़ल तेरे प्यार की ' , राज पब्लिशिंग हाउस , पूर्व दिल्ली -11003
3 ' गज़ल-- दुष्यन्त के बाद . [भाग -2 ] वाणी प्रकाशन , नई दिल्ली - 110002
4 ' अगर लौटे कभी मौसम ' श्री प्रकाशन , ए-14 आदर्शनगर , दुर्ग - 491001
5 ' चिराग गज़लों के '  मुकुन्द कौशल, वैभव प्रकाशन, रायपुर [छ ग ]
6 'न्यू रितम्भरा साहित्य मंच ' कुम्हारी , दुर्ग [छ ग ]
7 ' गीत - अगीत ' दानेश्वर शर्मा , वैभव प्रकाशन ,रायपुर [छ ग ]
                                                                                                                

8 comments:

  1. संग्रहणीय पोस्ट, ग़ज़ल का इतिहास हिन्दी में इतना पुराना है, ज्ञात नहीं था।

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  2. अत्यंत सूचनापरक और ज्ञानवर्धक
    इतनी उपयोगी जानकारी के लिए आभार

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  3. वाह...मन प्रसन्न हो गया आपकी प्रस्तुति देखकर...बहुत बहुत बधाई...

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  4. यह स्‍पष्‍ट है कि ग़ज़ल मुख्यत: उर्दू अदब की विधा है, प्रेम की सरस अभिव्‍यक्ति से आरंभ इस गीतिका के सफ़र में समयानुसार नित नूतन प्रयोग भी हुए हैं. हिन्‍दी गज़लों पर बहस में एक बार विश्‍वरंजन जी की महफिल में किसी नें उल्‍लेख किया था कि हिन्दी प्रकृति की गज़लें आम आदमी की जनवादी अभिव्यक्ति है. यह बात मुझे सौ फीसदी सहीं लगती है.
    आपने हिन्‍दी गज़ल को समझाते हुए सभी प्रमुख हिन्‍दी गज़लकारों का बहुत सुन्‍दर उल्‍लेख किया है. वर्तमान हिन्‍दी गज़ल के आकाश में अदम गोडवी जैसे गज़लकार मुझे प्रिय है. भाषा के फैलते वैश्विक परिदृश्‍य में उर्दू शब्‍दों के बिना भी दमदार हिन्‍दी गज़ल और शेर कहे गए हैं किन्‍तु मैं मानता हूं कि हिन्‍दी में इसकी प्रभावोत्पादकता उर्दू शब्‍दों के प्रयोग से बढ़ जाती है.
    इस संग्रहणीय आलेख के लिए धन्‍यवाद.

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  5. बेहतरीन संग्रहणीय पोस्ट कृपया मेल कर अपना खजाना हमें भेजें चित्रों संग वाह आनंद ही आनंद बधाई

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  6. बेहतरीन पोस्ट...

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  7. इतने विपुल विषय को एक पोस्ट में समेट करआपने 'गोपद सिंधु " की अभिव्यक्ति को चरितार्थ किया है।
    हाँ शहीदों की चिताओं को मजारों कर दें!

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