Wednesday, 13 August 2014

पुनः विश्व- गुरु बन जाएगा

घोर - अँधेरा  छँटा  देश  में  सूर्य - सदृश  कोई आया  है
बडी -  देर  के  बाद  सही  हमने  अपना  राजा  पाया  है ।

संन्यासी  सम  जीवन  उसका  देश - धर्म  है सबसे आगे
जन समूह को जिसने बॉधा नीति - नेम के कच्चे धागे ।

हर  घर  में  अब  जलेगा  चूल्हा  हर  गरीब का होगा घर
सब  मिल - जुल कर काम करें पर देश रहे सबसे ऊपर ।

अपना  देश  शक्तिशाली  हो  ऐसी  रीति - नीति बन जाए
दादा  देशों  को  तरसा  कर  भारत देस - राग अब गाए ।

अन्य  देश  में  जब  हम जायें अपने पैसे में दाम चुकायें
देश - प्रेम  की परिभाषा को भाव - कर्म में हम अपनायें ।

कर्म - योग  की  राह  चले  तो वह दिन जल्दी ही आएगा
जग कुटुम्ब सम कहने वाला पुनः विश्वगुरु बन जाएगा ।   

Saturday, 9 August 2014

संस्कृत - दिवस के पावन - पर्व पर - महाकवि कालिदास

" पुरा कवीनां गणना प्रसंगे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदासः ।
अद्यापि  तत्तुल्यकवेरभावात् अनामिका सार्थवती बभूव ॥ "

प्राचीन - काल में कवियों की गणना के प्रसंग में सर्वश्रेष्ठ होने के कारण कालिदास का नाम कनिष्ठिका पर आया , किन्तु आज तक उनके समकक्ष कवि के अभाव के कारण , अनामिका पर किसी का नाम न आ सका और इस प्रकार अनामिका का नाम सार्थक हुआ । कालिदास कवि - कुल - गुरु माने जाते हैं । उन्होंने अपने विषय में कभी कुछ नहीं कहा , किन्तु उनकी रचनायें ही उनका सम्यक् एवम् सटीक परिचय देती हैं । परम्परानुसार कालिदास उज्जयिनी के राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में से एक थे ।

कालिदास ने सात ग्रन्थ लिखे हैं-

1- अभिज्ञानशाकुन्तलम् - कालिदास का यह नाटक देश - विदेश में अत्यन्त लोकप्रिय हुआ । यह सात अंकों में विभाजित है । इसमें शकुन्तला एवम् दुष्यन्त की प्रणय - गाथा एवम्  "भरत" के जन्म की कथा का वर्णन है ।
ग्रन्थ के आरम्भ में कालिदास ने शिव - पार्वती की वन्दना की है -
" या   सृष्टिः स्त्रष्टुराद्या  वहति   विधिहुतं या  हविर्या   च होत्री
ये द्वे कालं विधत्तःश्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम्।
यामाहुः  सर्वबीज   प्रकृतिरिति  यया   प्राणिनः   प्राणवन्तः
प्रत्यज्ञाभिः    प्रपन्नस्तनुभिरवतु    वस्ताभिरष्टाभिरीशः ॥"

जो स्त्रष्टा की प्रथम सृष्टि है , वह अग्नि और विधिपूर्वक हवन की हुई आहुति का वहन करती है , जो हवि है और जो होत्री है , जो दो सूर्य और चन्द्र का विधान करते हैं , जो शब्द - गुण से युक्त होकर आकाश और सम्पूर्ण विश्व को व्याप्त किए हुए हैं , जिस पृथ्वी को सम्पूर्ण बीजों का मूल कहा जाता है और जिस वायु के कारण प्राणी , प्राण को धारण करते हैं , भगवान शिव प्रसन्न होकर अपने इन आठ रूपों के द्वारा हमारी रक्षा करें ।

" अभिज्ञानशाकुन्तलम् " की कथा आश्रम के आस - पास घूमती है । आश्रम में ही शकुन्तला एवम् दुष्यन्त का प्रथम - मिलन होता है । शकुन्तला के सौन्दर्य - वर्णन में , कालिदास की लेखनी खूब चली है । शकुन्तला के विषय में वे कहते हैं - " वह अनघ पवित्र रूप , अनसूँघा - सुमन नखाघात से अछूता किसलय , अनबिंधा - रत्न अनास्वादित नव - मधु और अखण्ड पुष्पों के फल के समान है । विधाता न जाने किसे , इस सौन्दर्य के उपभोग की पात्रता देगा ? "

2 - विक्रमोर्वशीयम् - यह नाटक पॉच अंकों का है , जिसमें पुरुरवस और उर्वशी के प्रणय एवम् विवाह का वर्णन है । नाटक के आरम्भ में कवि ने शिव - स्तुति की है -
" वेदान्तेषु   यमाहुरेकपुरुषं  व्याप्य   स्थितं   रोदसी
अस्मिन्नीश्वर  इत्यनन्यविषयः  शब्दो यथार्थाक्षरः।
अन्तर्यश्च          मुमुक्षुभिर्नियमितप्राणादिभिर्मग्यते
स स्थाणुःस्थिरभक्तियोगसुलभो निःश्रेयसायास्तु वः॥

जिसे वेदान्त में परम - पुरुष कहा गया है , जो पृथ्वी और आकाश को व्याप्त करने के बाद भी शेष है , जो अकेला यथार्थाक्षर , ईश्वर नाम को धारण करता है , मोक्ष चाहने वाले , प्राणादि का संयम करके जिसे ज्ञानी अपने अन्तर्मन में ढूँढते हैं , वह स्थिर भक्ति - योग से सहज ही प्राप्त होने वाला स्थाणु हमारा कल्याण करे ।

विक्रमोर्वशीयम् में कालिदास ने कहा है - जिस प्रकार नदी का प्रवाह विषम शिलाओं से अवरुध्द होकर अधिक बलवान हो जाता है , उसी प्रकार प्रेम के मार्ग में , बाधाओं के आने से , प्रेम की तीव्रता सौ - गुना बढ जाती है । विक्रमोर्वशीयम्  में मानवी और अतिमानवी का मेल है । उर्वशी का चरित्र उदार है । पुरुरवस प्रेम में आनन्द - मग्न है । वह प्रेम की तुलना में राज - पाठ को तुच्छ समझता है । इस नाटक में , ईश्वर की उपलब्धि को , भक्ति के द्वारा सुलभ बताया गया है ।

3 - मालविकाग्निमित्रम् - इस नाटक में पॉच अंक हैं । यह मालविका एवम् अग्निमित्र की प्रणय - गाथा है । इसका प्रथम श्लोक इस प्रकार है-
" एकैश्वर्ये  स्थितोSपि  प्रणतबहुफले  यः  स्वयं  कृत्तिवासा:
कान्तासम्मिश्रदेहोSप्यविषयमनंसा यः पुरस्ताद्यतीनाम् ।
अष्टाभिर्यस्य  कृत्सनं  जगदपि  तनुभिर्बिभ्रतो  नाभिमानः
सन्मार्गालोकनाय  व्यपनयतु  स  वस्तामसीं वृत्तिमीशः॥"

इस श्लोक में ईश्वर से यह प्रार्थना की गई है कि- जो अपने भक्तों को प्रभूत फल देने वाले , परम - ऐश्वर्य में स्थित होकर भी जो गज- चर्म को वस्त्र के रूप में धारण करते हैं , जो पत्नी से मिश्रित तन वाला होकर भी , विषयों से परे मन वाला है , यतियों का अग्रणी है , जो अपने आठ शरीरों से जगत को शारण करने के पश्चात्  भी अहंकार- शून्य है वे शिव हमें  सन्मार्ग की ओर प्रेरित करें और हमारी तामसी - वृत्ति को दूर करें । यह प्रार्थना गायत्री मन्त्र से एवम्  बृहदारण्यक् की इस प्रार्थना से मिलती - जुलती है-
" असतो मा सद् गमय ।
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
मृत्योर्मा अमृतं गमय ॥"
बृहदारण्यक् - 1 - 3 - 27

मालविकाग्निमित्र में रानी को धारिणी कहा गया है क्योंकि वह प्रत्येक स्थिति को धारण करती है । जब मालविका राजा का ध्यान , नृत्य - प्रसंग की ओर ले जाना चाहती है तो रानी राजा को समझाती है और दायित्व - निर्वाह हेतु प्रेरित करती है । वह आदर्श पत्नी है ।

4 - रघुवंश -  यह कालिदास का महाकाव्य है । इसमें 19 सर्ग हैं । रघुवंश में सूर्यवंशी राजाओं के पराक्रम का वर्णन है - रघुवंश के प्रथम - श्लोक में कवि कहते हैं -
" वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये ।
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ॥"
वाणी और अर्थ के समान मिले हुए जगत के माता - पिता , शिव - पार्वती की , वाणी और अर्थ की प्राप्ति के लिए मैं कालिदास वन्दना करता हूँ ।

रघुवंश के राजा दिलीप का वर्णन करते हुए कालिदास कहते हैं कि - जिस प्रकार सूर्य , समुद्र से जल लेता है , कि उसे वर्षा- काल में अनन्त- गुना अधिक लौटा सके , उसी तरह राजा दिलीप , प्रजा से 'कर' लेते थे , ताकि वे कई गुना अधिक कर के प्रजा को लौटा सकें ।

अज के राज्य में प्रत्येक मनुष्य यह सोचता है कि वह राजा का मित्र है । हमारी संस्कृति में आज भी आदर्श राज्य को राम - राज्य कहने की प्रथा है । राजा , प्रजा का पिता - समान माना जाता है क्योंकि वह प्रजा की शिक्षा की व्यवस्था करता है , उसकी रक्षा करता है और उसका भरण - पोषण करता है । कालिदास , विवाह की परिणति सन्तान - उत्पत्ति को मानते हैं कि - दिलीप और सुदक्षिणा का प्रेम सन्तान - प्राप्ति के बाद और बढ गया । कालिदास ने अज और इन्दुमती के विषय में कहा है - यदि ब्रह्मा परस्पर स्पृहणीय इन दोनों का संयोग न होने देता तो इन्हें सुन्दर बनाने का उनका श्रम , व्यर्थ हो जाता । धर्म का ध्येय , पुनर्जन्म से मुक्ति पाना है , जिसकी कामना , दुष्यन्त ने शाकुन्तलम्  के अन्तिम श्लोक में की है -
" ममापि च क्षपयतु नीलकण्ठः पुनर्भवं परिगतशक्तिरात्मभूः ।"

5 - कुमारसम्भव - यह महाकाव्य है और इसमें शिव एवम् पार्वती के विवाह का वर्णन है तथा युध्द के देवता कुमार कार्त्तिकेय के जन्म की कथा है । कुमारसम्भव के प्रथम श्लोक में कवि कालिदास ने हिमालय - प्रदेश की संस्कृति को विश्व की संस्कृति का मानदण्ड बताते हुए कहा है -
" अस्युत्तरस्यॉ दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराजः ।
पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्य  स्थितः पृथिव्यॉ  इव  मानदण्डः ॥"

" उत्तर - दिशि में देव - हिमालय प्रहरी बनकर तना खडा है ।
उत्ती- बूडती दक्खिन में सागर इस धरती का मान बडा है ॥ "

भारत की संस्कृति मूलतः आध्यात्मिक है । प्रायः मनुष्य इस भौतिक जगत के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर सकता है किन्तु मनुष्य जीवन का ध्येय उस निरपेक्ष - सत्ता की अनुभूति - मात्र है । हम अपनी आत्मा के माध्यम से उस अनन्त सर्व- शक्तिमान परमात्मा तक पहुँच सकते हैं । " आत्मानमात्मना वेत्सि ।" कुमारसम्भव , 2- 10 .
" स्वयं विधाता तपसः फलानां केनापि कामेन तपश्चचार । " कुमारसम्भव , 1- 57 .अर्थात्  विधाता का रूप तपोमय है , वे स्वयं तप करते हैं और दूसरों को तप का फल प्रदान करते हैं । कालिदास ने धर्म के सभी रूपों को ग्राह्य बताया है । मनुष्य अपनी रुचि के अनुसार किसी भी रूप की आराधना कर सकता है , क्योंकि सभी देवता उस परमात्मा के ही रूप हैं । कुमार कार्त्तिकेय का जन्म आवश्यक था क्योंकि तारक नाम के दैत्य से मानवता की रक्षा करनी थी , इसलिए गौरी - शंकर का विवाह आवश्यक था । " अनेन धर्मः सविशेषमाद्य मे त्रिवर्गसारः ।" कुमारसम्भव , 5- 38 . उमा ने शिव को पाने हेतु प्रयास किया किन्तु अपनी देहयष्टि के सौन्दर्य से नहीं । उन्होंने अपने हृदय को समर्पित किया । उनकी आस्था केवल धर्म पर स्थित रही । " अयप्रभृत्यवनतांगि तवास्मि दासः ।" भगवान शिव द्वारा यह कहने पर कि - " हे युवती ! आज से मैं तुम्हारा तप द्वारा , खरीदा हुआ दास हूँ । " पार्वती की तपोजन्य क्लान्ति मिट गई ।

6 - मेघदूत - यह 129 श्लोकों में रचित , एक गीति - काव्य है । इस काव्य में एक यक्ष्य , मेघ को सन्देश - वाहक बना कर , अपनी प्रेयसी के लिए सन्देश भेजता है । " मेघदूत " प्रेम - काव्य है और इससे प्रेरित होकर , अनेक रचनायें लिखी गई हैं , किन्तु मेघदूत का अपना अलग महत्त्व है । पावस , प्रकृति एवम्  प्रेम का , अनूठा चित्रण मेघदूत में उपलब्ध है । कालिदास , प्रेम के अमर - गायक हैं । यक्ष , अपनी प्रेयसी का वर्णन करते हुए मेघ से कहते हैं -

" तन्वी श्यामा शिखरिदशना पक्वबिम्बाधरोष्ठी
मध्ये क्षामा चकितहरिणीप्रेक्षणा निम्ननाभिः ।
श्रोणीभारादलसगमना स्तोकनम्रा स्तनाभ्याम्
या  तत्र  स्याद्युवतिविषये  सृष्टिराद्येव  धातुः ॥ "
विधाता की प्रथम स्त्री - सृष्टि के समान तन्वी , श्यामा , भुट्टे के समान दॉतों वाली , पके कुँदरू के समान लाल होंठ और अधर वाली , क्षीण कटि वाली , सहमी हुई हरिणी के समान नयन वाली , गहरी नाभि वाली , नितम्बों के भार से मन्द - मन्द चलने वाली , और स्तनों के भार से कुछ झुकी हुई , वह वहॉ होगी । "
सम्भवतः रामायण में वर्णित राम के विरह से , कालिदास को " मेघदूत " लिखने की प्रेरणा मिली होगी ।

7  - ऋतुसंहार - इसमें छ्हः सर्ग हैं ,  जिसमें 144 श्लोक हैं । ऋतुसंहार में ग्रीष्म , वर्षा , शरद , हेमन्त , शिशिर और हेमन्त का हृदयग्राही वर्णन हुआ है । ऋतुसंहार का अर्थ है - ऋतुओं का समूह ।

" नितान्तनीलोत्पलपत्रकान्तिभिः क्वचित् प्रभिन्नाञ्जनराशिसन्निभैः ।
क्वचित्  सगर्भप्रमदास्तनप्रभैः समाचितम् व्योम घनैः समन्ततः ॥ 2- 2

कालिदास की लेखनी में अद्भुत क्षमता है । वे प्रकृति - चित्रण करें या भाव - चित्रण , उनके वर्णन में एक चित्रकार की दृष्टि और एक नर्तक की भँगिमायें होती हैं । शब्दों को पढने मात्र से, दृश्य दिखाई देने लगते हैं । उनके शब्द - चित्र सुन्दर भी हैं और सजीव भी । भारत की महिमा - मण्डित संस्कृति को, कालिदास ने न केवल आत्मसात किया, अपितु उसे समृध्द और सार्वभौम बना दिया । कालिदास एक महान कवि हैं । वे भारतीय - संस्कृति के उन्नायक हैं ।      
 
                    

Saturday, 2 August 2014

तुलसीदास- साहित्य के पार सत्य का चितेरा

सदियॉ जहॉ रोमांचक अनुभवों का इतिहास लिखती हैं , इतिहास , घटनाओं का एक अन्तहींन सिलसिला । उठते हुए साम्राज्य और ध्वस्त खण्डहर की एक स्मृति यात्रा । संस्कृति , धर्म, कला, साहित्य और इन सब के बीच से उभर कर झॉकता हुआ मनुष्य का अद्भुत जीवन । जीवन , जहॉ अनुभवों की दीवारें उठती चली जाती हैं। काल जिसके अँधेरे आयामों में प्रिय से प्रिय वस्तुयें खोती चली जाती हैं । उपलब्धि और असफलता के बीच , व्यक्ति तो आखिर काल के अँधेरे गर्भ में समा ही जाता है । जीवन , अनुत्तरित सवालों का एक अन्तहींन सिलसिला बन कर बहता हुआ झरना । इस भयावह काल - यात्रा , अनुत्तरित सवालों , जटिल संघर्षों और मिटते मनुष्य के जीवन का सार क्या है ? प्रत्येक चिन्तनशील मानव ने , इन प्रश्नों के समाधान हेतु अपना जीवन खपाया और इस विकट संघर्ष और शोध से जो प्रज्ञा उनके भीतर उद्भासित हुई , उसकी अनुभूति , आज युग की लम्बाइयों में गगनचुम्बी मीनारें बन कर खडी हैं । उसी आनन्द के उद्भास का एक अप्रतिम चितेरा हुआ "तुलसी" सोलहवीं शताब्दी का एक अद्वितीय मानव ।

तुलसी का नाम , हिन्दी साहित्य में स्वर्णाक्षरों में अंकित है । हिन्दी साहित्य उसकी गरिमा से गौरवान्वित हुआ है । रामचरितमानस , विनयपत्रिका , कवितावली , गीतावली आदि तुलसी के विश्व - प्रसिध्द ग्रन्थ हैं । अब प्रश्न यह उठता है कि तुलसी के जीवन और उसके साहित्य से हमारा क्या लेना - देना ? वस्तुतः तुलसी एक व्यक्ति नहीं है , वह जीवन की विराट लम्बाइयों और अतल गहराइयों का एक अप्रतिम चितेरा है । एक व्यक्ति के रूप में वह आज भी उतनी ही नवीनता और जगमग - ज्योति के साथ जीवित है । तुलसी ने जीवन के मर्म को समझा और उसकी सार्थकता को खोज लिया । हम जिस खाने - पीने और इन्द्रिय - सुखों से युक्त, जीवन को जीते हैं , उसे उन्होंने पशु - जीवन कहा है ‌- " तिन्ह ते खर सूकर श्वान भले जडता बस ते न कहै कछु वै । जरि जाउ सो जीवन जानकिनाथ जिए जग में तुम्हरे बिनु व्है ।" तुलसी के आदर्श , उनके प्राणप्रिय , उनके लक्ष्य, राम थे, पर यह उनका संकेत था जीवन के चरम लक्ष्य की ओर । अपने राम के विषय में उन्होंने कहा - " प्राण प्राण के जीवन जी के ।"

जो प्राणों का भी प्राण हो, जीवन का भी जीवन हो, वही तो राम है । राम अर्थात् परम सत्य की खोज, यही उनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य रहा । तुलसी का जीवन आज भी हमारे भीतर अबाध गहराइयों में बह रहा है और इसीलिए जीवन की उस अनादि प्रवाह के अर्थ को समझने के लिए हम कटिबध्द हैं । हमारी आयु का प्रत्येक क्षण, हमारी सम्पूर्ण चेष्टा, क्रिया, भावना उसी अनादि जीवन - सत्य की प्यास में, जाने - अनजाने हुआ करती है  । जिसे हम सुख कहते हैं वह उसी अनादि जीवन - सत्य की छाया - मात्र है । छाया का अनुभव हमें होता है । सुख का अनुभव हम प्रतिक्षण करते हैं और इस छाया को पकड - कर उस मूल सत्य तक जाना चाहते हैं । इन प्रतिक्षण मरते और नष्ट होते विश्व के बीच किसी अमर - अनादि सत्ता को पाना चाहते हैं, जहॉ जरा - मरण का भय न हो । सत् चित् आनन्द का अबाध विस्तार हो । इस अबाध अस्तित्व का आनन्द ही "राम" है । तुलसी इसी आनन्द के साथ आजीवन मुग्ध रहे । उनका जीवन इस विराट अस्तित्व के अनुभव के आनन्द की व्याख्या है ।

तुलसी बाबा आज हमारे बीच दो आयामों पर जीवित हैं, एक अनुभूति के, दूसरे अभिव्यक्ति के । रामचरितमानस में, राम, लक्ष्मण, सीता आदि अनेक पात्रों के माध्यम से जीवन के मूलभूत जटिल प्रश्नों का जैसा सम्यक् एवम् सटीक, अनुभूत उत्तर तुलसी ने दिया है, वह साहित्य के संसार का स्वर्ण - कलश है - जगमगाता , उज्ज्वल , चिर- नवीन । काल का प्रवाह उसकी नवीनता को आज भी सँजो - कर रखा है । जब तक मनुष्य का जीवन रहेगा , तुलसी की यह अभिव्यक्ति मुखरित होती रहेगी ।