Sunday, 22 May 2016

गुरु दक्षिणा

                      [  कहानी ]
मैं और सुकवारा दोनों संगवारी, कोसला के प्राथमिक शाला में पहली से पॉचवीं तक साथ - साथ पढा करते थे
मेरी सहेली सुकवारा का घर गॉव के बाहर तालाब के किनारे बना हुआ था. उसके पिता चमडे का जूता बनाते थे और वही उनके परिवार की आमदनी का जरिया था. मुझे सुकवारा अच्छी लगती थी.वह कई खेलों में मुझे हरा कर ईनाम जीत लेती थी. जैसे घडा- दौड, कबड्डी, सुई-धागा दौड में उसका कोई सानी नहीं था. घडा-दौड में तो वह 'पामगढ' जाकर भी ईनाम लेकर आती थी. कबड्डी में मुझे हमेशा पकड लेती थी, मैं कभी भी उसे न पकड सकी. मदरसे में हम दोनों पास-पास ही बैठते थे पर हमारे गुरुजी को यह बात अच्छी नहीं लगती थी इसीलिए हम गुरुजी के सामने दूर-दूर रहते थे पर न जाने कैसे गुरुजी हमारी हर बात को बिना बताए जान जाते थे. उसके और मेरे घर का रास्ता भी ऐसा था कि मेरे घर के बाद उसका घर पडता था. मेरे नाना - नानी कभी भी मुझे सुकवारा के साथ खेलने - कूदने के लिए मना नहीं करते थे पर घर के नौकर- चाकर को इससे बडी तकलीफ होती थी. कारण तो वही जानें पर हम बिना किसी की परवाह किए साथ-साथ खेलते-कूदते,हँसी-खुशी जी रहे थे.

स्कूल में एक गुरुजी, सुकवारा को बहुत डॉटते थे और बुरा-भला कहते रहते थे. इमला में गलती होने पर कहते थे- ' पढाई तेरे बस की बात नहीं है सुकवारा ! तुम चुपचाप अपने घर में बैठो और गोबर सैंतो.' उसकी ऑखें छलछला जाती थीं और वह मेरी ओर देखती थी फिर मैं गुरुजी से पूछती थी-' गुरुजी ! सुकवारा क्यों नहीं पढ सकती ? जब मैं पढ सकती हूँ तो सुकवारा क्यों नहीं पढ सकती ?' गुरुजी मुझे गुर्रा कर देखते थे किसी गुरुजी ने मुझ पर कभी हाथ नहीं उठाया क्योंकि सभी गुरुजी मुझे 'भॉची' मानते थे.

हम पॉचवीं कक्षा में पहुँच गए थे. परीक्षा पास आ गई थी, बडे गुरुजी अपने घर के सामने बुला कर, पॉचवीं के सभी बच्चों को पढाते थे. किसी ने सुकवारा से कह दिया- ' सुकवारा ! तुम मत आना.' सुकवारा को बहुत खराब लगा, उसने मुझे बताया, मैं सुकवारा का हाथ पकड कर बडे-गुरुजी होरीलाल के पास गई और उन्हें पूरी बात बता दी. बडे गुरुजी ने मझसे कहा- ' अच्छा किया जो तुमने मुझे बता दिया.' उन्होंने सुकवारा के सिर पर हाथ रख कर कहा-' बेटी! तुम कभी किसी से मत डरना. मैं तुम्हारे साथ हूँ. तुम भी सब बच्चों के साथ मेरे घर पर पढने के लिए आना.'

उस दिन के बाद सुकवारा के भी पंख निकल आए. हम दोनों बहुत मस्ती करते साथ-साथ पढाई में भी ध्यान देने लगे. पॉचवीं में हम दोनों के अच्छे नम्बर आए.सुकवारा ने 11वीं पास की और वह शिक्षिका बन गई. साथ-साथ प्रायवेट परीक्षा देती रही- बी.ए.कर ली एम.ए. कर ली. बी. एड. कर ली.धीरे-धीरे प्रमोशन भी होता रहा. अभी वह हिन्दी की व्याख्याता है.

एक दिन एक बुज़ुर्ग उसके पास आए, उनकी ऑखों में ऑसूँ थे, सुकवारा ने उनसे पूछा-' आप रो क्यों रहे हैं ? ' तो उन्होंने बताया- ' मेरा बेटा किशोर दसवीं में दो साल से फेल हो रहा है. पढाई में ध्यान ही नहीं देता, आप ही बताइए मैं क्या करू ?' वह फूट-फूट कर रोने लगा.' सुकवारा ने कहा- ' किशोर तो मेरी ही क्लास में पढता है, मैं उसकी क्लास टीचर हूँ, रुकिए मैं उसे बुलवाती हूँ.' किशोर आया तो सुकवारा ने उसे समझाया- ' देखो किशोर ! तुम्हारे लिए तुम्हारे पापा कितने परेशान हैं, तुम मन लगा कर पढाई करो और 60% से ज्यादा नम्बर लाकर दिखाओ.' ' यस मैम' कह कर किशोर ने सुकवारा के पॉव छुए और क्लास में चला गया.

सुकवारा को लगा कि यह चेहरा कुछ परिचित लग रहा है और जब उसने किशोर के पिता का नाम देखा तो पता चला कि यह तो वही गुरुजी हैं जो हमेशा उसका अपमान किया करते थे. फिर क्या था सुकवारा ने उस किशोर का ऐसा ध्यान रखा जैसे कोई अपने सगे भाई का ध्यान रखता है.देखते ही देखते एक साल बीत गया और इस बार किशोर ने सुकवारा को निराश नहीं किया, वह केवल अपने स्कूल में ही नहीं अपितु पूरे पामगढ में अव्वल आया है ।