[ कहानी ]
" तेरी मॉ बर्तन धोती है, तू भी वही काम कर. यहॉ स्कूल में क्या करने आई है ? पढ - लिख कर मास्टरनी बनेगी क्या ?" विद्या फूट-फूट कर रोने लगी.टीचर की डॉट की डर से वह ज़ोर-ज़ोर से नहीं रो रही थी, पर ऑख से ऑसू लगातार बह रहे थे और विद्या अपराधिनी की तरह सिर झुका कर खडी थी. थोडी देर में नाश्ते की छुट्टी हुई. सभी बच्चे अपना-अपना टिफिन खोल कर खाने लगे पर विद्या एक कोने में चुपचाप सिर झुका कर बैठी रही. शाम को जब छुट्टी हुई तो वह अपना बस्ता उठा कर घर की ओर जाने लगी तभी उसे रास्ते में उसी की कक्षा में पढने वाली सहेली माया मिली. उसने विद्या से पूछा - ' तेरा घर कहॉ पर है ?' विद्या ने उसे बताया कि वह पास की बस्ती में ही रहती है. माया ने कहा- 'मैं भी तो वहीं रहती हूँ पर मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा, तब विद्या ने उसे बताया कि वह अपनी नानी के साथ गॉव में रहती थी और अभी पढने के लिए मॉ के पास आ गई है. दोनों बच्चियों में दोस्ती हो गई और दोनों साथ-साथ रहने लगीं.
विद्या अभी तक समझ नहीं पाई थी कि टीचर ने उसे क्यों डॉटा था पर जब माया ने बताया कि टीचर ने तुम्हें इसलिए डाटा था कि तुम्हें न तो वर्णमाला लिखना आता और न ही तुम गिनती जानती हो.
' पर मुझे टीचर ने कभी सिखाया ही नहीं तो मुझे आएगा कैसे? मैं सीखने के लिए ही तो स्कूल जाती हूँ न ?'
'ऐसा नहीं होता विद्या ! हमें घर से सब कुछ सीख कर स्कूल जाना पडता है नहीं तो टीचर इसी तरह अपमानित करते हैं. वे केवल मुँह से बोलते हैं, हाथ पकड कर नहीं सिखाते.'
'पर मेरी मॉ तो कहती है कि टीचर भगवान की तरह होते हैं. वे सभी बच्चों को अपने बच्चे की तरह समझते हैं और सबको बराबर प्यार करते हैं.'
'अच्छा देख ! तेरा नाम विद्या है न ! तो तू ज़रूर पढेगी, चल आज वर्णमाला से मैं तेरा परिचय करवाती हूँ.'
बस फिर क्या था दोनों सहेलियॉ साथ-साथ पढने लगीं और विद्या ने थोडे ही दिनों में वर्णमाला और सौ तक गिनती सीख ली.टीचर का व्यवहार भी धीरे-धीरे बदलने लगा.रूखी बानी में मिठास आ गई.
आज वसंत-पञ्चमी है. आज विद्या के स्कूल में सरस्वती-पूजा हो रही है. बडे गुरुजी के साथ-साथ सभी बच्चों ने सरस्वती माता की वन्दना की फिर बडे गुरुजी के संग-संग सभी बच्चों ने गाया-
" जय सरस्वती की जय सरस्वती
तोर माथे धरवँ बेल की पत्ती ।
मॉ तुम पहनो गज - मुक्ताहार
हमको दे दो विद्या - भण्डार ॥"
विद्या गाती रही पर ऑखों से झर-झर ऑसू बहते रहे. बडे गुरुजी ने देख लिया, उन्होंने विद्या को अपने पास बुलाया और फिर उससे पूछा- " बेटा ! तुम क्यों रो रही हो ?"
विद्या ने बताया- " बडे गुरुजी ! मेरी दो छोटी बहनें हैं और मेरे पिताजी हम लोगों को छोड कर कहीं चले गए हैं । हमारे पास न ही रहने की जगह है न ही खाने-पीने के लिए कुछ है, मेरी मॉ दो घरों में बर्तन धोती है पर उससे गुज़ारा नहीं हो रहा है. आप मुझे कुछ काम दिलवा दीजिए,मैं पूरे स्कूल में झाडू-पोछा कर सकती हूँ" कहते -कहते वह फूट-फूट कर रोने लगी. गुरुजी की ऑखें भर आईं,उन्होंने विद्या के सिर पर हाथ रख कर कहा -
" आज से तुम मेरी बेटी हो ! तुम्हारी किताबें,स्कूल-ड्रेस तुम्हें मैं दूँगा और तुम्हारी मॉ को काम भी मिल जाएगा । तुम चिंता मत करो, तुम्हें काम करने की ज़रूरत नहीं है,अभी तुम्हें पढना है और पढ-लिख कर कुछ बनना है. "
बडे गुरुजी, विद्या और माया के साथ उसके घर गए. एक छोटे से सीलन भरे कमरे में उसकी दोनों बहनें,फ्टी हुई चादर पर खेल रही थीं और उसकी मॉ काम करने गई थी. बडे गुरुजी बाहर खडे रहे और जब उसकी मॉ काम से लौट कर आई तो उन्होंने कहा-" बच्चों को लेकर मेरे साथ चलिए, स्कूल में चौकीदार का कमरा खाली है, अपने बच्चों के साथ वहॉ रहिए. चपरासी का काम तुम्हें मिल जाएगा और तुम्हारा गुज़ारा हो जाएगा."
बच्चियॉ खुश हो गईं पर उनकी मॉ, लक्ष्मी के ऑसूँ नहीं थम रहे थे, उसने बडे गुरुजी के दोनों पैरों को पकड कर प्रणाम किया और बोली- " बडे गुरुजी ! आप मेरे लिए भगवान की तरह हैं, आपने मेरी बच्चियों को नई ज़िन्दगी दी है. लक्ष्मी अपनी छोटी बेटी रंभा को गोद में लेकर चल रही थी और विद्या और सरस्वती,बडे गुरुजी की ऊँगली पकड कर ऐसे शान से चल रही थीं जैसे उनको आसमान मिल गया हो.
विद्या आज खेल-खेल में सरस्वती -माता की मिट्टी की मूरत बनाई है और उसे अपने सीने से लगा कर अपने नए घर में ले जा रही है. रास्ते भर वह सरस्वती-माई से बात करती रही- ' हे सरस्वती माता ! तुम मुझे विद्या का भण्डार देना. वाणी का वरदान देना. मुझे अपने समान बनाना सरस्वती माई ! हमारी रक्षा करना. मुझे इतनी विद्या देना कि हम सिर उठा कर इस संसार में जी सकें.'
हम सब काम करते-करते थक जाते हैं और थक कर सो जाते हैं. एक-एक दिन करते -करते कई बरस गुज़र जाते हैं. कालचक्र कभी नहीं थमता, वह निरंतर चलता रहता है . बेटियॉ कब बडी हो जाती हैं पता ही नहीं चलता. लक्ष्मी बडी हो गई है. वह आई. पी. एस. अफसर बन चुकी है और उसकी नियुक्ति मुँबई - ठाणे में हो गई है. विद्या का घर हँस रहा है बहनें खिलखिला रही हैं और मॉ की ऑखें मुस्कुरा रही हैं. सरस्वती, मेडिकल कॉलेज़ में पढ रही है. रंभा आई. आई. टी. की तैय़ारी कर रही है.
अब विद्या को घर की याद आ रही है, वह अपनी खुशियों को अपनों से बॉटना चाहती है. उसे मॉ की बहनों की और बडे गुरुजी की याद आ रही है पर आज सडक - दुर्घटना में एक आदमी बुरी तरह घायल हो गया है,उसके दोनों पॉव टूट गए हैं, उससे मिलने जा रही है. वैसे तो इंस्पैक्टर उसका बयान लेकर आ गए हैं पर विद्या स्वयं उससे मिलना चाहती है. उसका नाम प्रभाकर है. विद्या उससे मिली और उसने उससे पूछा - ' कहॉ रहते हो ?'
' फुटपाथ पर .'
'कहॉ से आए हो ?'
'भवतरा से .'
अरे ! यह तो मेरा ही गॉव है.
' घर में और कौन - कौन हैं ?'
' मैं अपनी पत्नी और तीन बेटियों को छोड कर मुँबई आ गया था , पता नहीं वे कहॉ हैं और किस हाल में हैं .'
उसकी ऑखें भर आईं,वह रोने लगा,अपने आपको कोसने लगा. उसने कहा - 'मेरी बेटी आपके उम्र की होगी पर मैं बेटे की चाह में, अपनी बेटियों को छोड कर यहॉ भाग आया. क्या पता वे जिन्दा हैं भी या नहीं ?'
वह फूट-फूट कर रोने लगा.
अब विद्या पहचान चुकी थी कि वह उसका पिता है पर उसने बताया नही.उसके पैरों का ऑपरेशन करवाया.जयपुरी पैर लग गए और प्रभाकर जब चलने-फिरने लायक हो गया तो विद्या ने उससे पूछा-'क्या आप अपने गॉव जाना चाहेंगे? 'उसने रोते हुए कहा- ' हॉ , जाऊँगा .'
आज वसंत-पञ्चमी है . विद्या , प्रभाकर को लेकर मॉ के पास पहुँचने वाली है, मॉ ने विद्या के सम्मान में पूरे गॉव को बुलाया है, बडे गुरुजी नई धोती- कुर्ता पहन कर, सोफे पर बैठे हुए हैं, वे सभी आगंतुकों का स्वागत कर रहे हैं, विद्या की मॉ , लक्ष्मी आरती की थाल सजा कर , विद्या का इंतज़ार कर रही है, जैसे ही विद्या आई उसकी दोनों बहनें उससे लिपट गईं. लक्ष्मी ने विद्या की आरती उतारी और विद्या ने मॉ के चरण छुए, उसने बडे गुरुजी को प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद लिया. प्रभाकर असहज होकर इधर-उधर देख रहा था,तभी विद्या ने अपनी मॉ से कहा- ' मॉ ! यहॉ आओ, देखो तो ये कौन हैं ?'
लक्ष्मी ने प्रभाकर को ध्यान से देखा- ' अरे ! वही ऑखें, वही चेहरा ! उसके होठों ने कहा- ' प्रभाकर !'
' मॉ ! तुम इन्हें जानती हो क्या ?'
" मैं तुम्हारा अपराधी हूँ लक्ष्मी !" कहकर प्रभाकर हाथ जोड कर बोला - " हो सके तो मुझे माफ कर देना ,मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ ." वह रोने लगा . नारी तो धरती है . लक्ष्मी ने उसका हाथ पकड कर उसे बिठाया, अपने बच्चों से मिलवाया और फिर पूरे गॉव वालों के साथ माता सरस्वती की पूजा की. माता सरस्वती ने विद्या की प्रार्थना सुन ली थी .
" तेरी मॉ बर्तन धोती है, तू भी वही काम कर. यहॉ स्कूल में क्या करने आई है ? पढ - लिख कर मास्टरनी बनेगी क्या ?" विद्या फूट-फूट कर रोने लगी.टीचर की डॉट की डर से वह ज़ोर-ज़ोर से नहीं रो रही थी, पर ऑख से ऑसू लगातार बह रहे थे और विद्या अपराधिनी की तरह सिर झुका कर खडी थी. थोडी देर में नाश्ते की छुट्टी हुई. सभी बच्चे अपना-अपना टिफिन खोल कर खाने लगे पर विद्या एक कोने में चुपचाप सिर झुका कर बैठी रही. शाम को जब छुट्टी हुई तो वह अपना बस्ता उठा कर घर की ओर जाने लगी तभी उसे रास्ते में उसी की कक्षा में पढने वाली सहेली माया मिली. उसने विद्या से पूछा - ' तेरा घर कहॉ पर है ?' विद्या ने उसे बताया कि वह पास की बस्ती में ही रहती है. माया ने कहा- 'मैं भी तो वहीं रहती हूँ पर मैंने तुम्हें कभी नहीं देखा, तब विद्या ने उसे बताया कि वह अपनी नानी के साथ गॉव में रहती थी और अभी पढने के लिए मॉ के पास आ गई है. दोनों बच्चियों में दोस्ती हो गई और दोनों साथ-साथ रहने लगीं.
विद्या अभी तक समझ नहीं पाई थी कि टीचर ने उसे क्यों डॉटा था पर जब माया ने बताया कि टीचर ने तुम्हें इसलिए डाटा था कि तुम्हें न तो वर्णमाला लिखना आता और न ही तुम गिनती जानती हो.
' पर मुझे टीचर ने कभी सिखाया ही नहीं तो मुझे आएगा कैसे? मैं सीखने के लिए ही तो स्कूल जाती हूँ न ?'
'ऐसा नहीं होता विद्या ! हमें घर से सब कुछ सीख कर स्कूल जाना पडता है नहीं तो टीचर इसी तरह अपमानित करते हैं. वे केवल मुँह से बोलते हैं, हाथ पकड कर नहीं सिखाते.'
'पर मेरी मॉ तो कहती है कि टीचर भगवान की तरह होते हैं. वे सभी बच्चों को अपने बच्चे की तरह समझते हैं और सबको बराबर प्यार करते हैं.'
'अच्छा देख ! तेरा नाम विद्या है न ! तो तू ज़रूर पढेगी, चल आज वर्णमाला से मैं तेरा परिचय करवाती हूँ.'
बस फिर क्या था दोनों सहेलियॉ साथ-साथ पढने लगीं और विद्या ने थोडे ही दिनों में वर्णमाला और सौ तक गिनती सीख ली.टीचर का व्यवहार भी धीरे-धीरे बदलने लगा.रूखी बानी में मिठास आ गई.
आज वसंत-पञ्चमी है. आज विद्या के स्कूल में सरस्वती-पूजा हो रही है. बडे गुरुजी के साथ-साथ सभी बच्चों ने सरस्वती माता की वन्दना की फिर बडे गुरुजी के संग-संग सभी बच्चों ने गाया-
" जय सरस्वती की जय सरस्वती
तोर माथे धरवँ बेल की पत्ती ।
मॉ तुम पहनो गज - मुक्ताहार
हमको दे दो विद्या - भण्डार ॥"
विद्या गाती रही पर ऑखों से झर-झर ऑसू बहते रहे. बडे गुरुजी ने देख लिया, उन्होंने विद्या को अपने पास बुलाया और फिर उससे पूछा- " बेटा ! तुम क्यों रो रही हो ?"
विद्या ने बताया- " बडे गुरुजी ! मेरी दो छोटी बहनें हैं और मेरे पिताजी हम लोगों को छोड कर कहीं चले गए हैं । हमारे पास न ही रहने की जगह है न ही खाने-पीने के लिए कुछ है, मेरी मॉ दो घरों में बर्तन धोती है पर उससे गुज़ारा नहीं हो रहा है. आप मुझे कुछ काम दिलवा दीजिए,मैं पूरे स्कूल में झाडू-पोछा कर सकती हूँ" कहते -कहते वह फूट-फूट कर रोने लगी. गुरुजी की ऑखें भर आईं,उन्होंने विद्या के सिर पर हाथ रख कर कहा -
" आज से तुम मेरी बेटी हो ! तुम्हारी किताबें,स्कूल-ड्रेस तुम्हें मैं दूँगा और तुम्हारी मॉ को काम भी मिल जाएगा । तुम चिंता मत करो, तुम्हें काम करने की ज़रूरत नहीं है,अभी तुम्हें पढना है और पढ-लिख कर कुछ बनना है. "
बडे गुरुजी, विद्या और माया के साथ उसके घर गए. एक छोटे से सीलन भरे कमरे में उसकी दोनों बहनें,फ्टी हुई चादर पर खेल रही थीं और उसकी मॉ काम करने गई थी. बडे गुरुजी बाहर खडे रहे और जब उसकी मॉ काम से लौट कर आई तो उन्होंने कहा-" बच्चों को लेकर मेरे साथ चलिए, स्कूल में चौकीदार का कमरा खाली है, अपने बच्चों के साथ वहॉ रहिए. चपरासी का काम तुम्हें मिल जाएगा और तुम्हारा गुज़ारा हो जाएगा."
बच्चियॉ खुश हो गईं पर उनकी मॉ, लक्ष्मी के ऑसूँ नहीं थम रहे थे, उसने बडे गुरुजी के दोनों पैरों को पकड कर प्रणाम किया और बोली- " बडे गुरुजी ! आप मेरे लिए भगवान की तरह हैं, आपने मेरी बच्चियों को नई ज़िन्दगी दी है. लक्ष्मी अपनी छोटी बेटी रंभा को गोद में लेकर चल रही थी और विद्या और सरस्वती,बडे गुरुजी की ऊँगली पकड कर ऐसे शान से चल रही थीं जैसे उनको आसमान मिल गया हो.
विद्या आज खेल-खेल में सरस्वती -माता की मिट्टी की मूरत बनाई है और उसे अपने सीने से लगा कर अपने नए घर में ले जा रही है. रास्ते भर वह सरस्वती-माई से बात करती रही- ' हे सरस्वती माता ! तुम मुझे विद्या का भण्डार देना. वाणी का वरदान देना. मुझे अपने समान बनाना सरस्वती माई ! हमारी रक्षा करना. मुझे इतनी विद्या देना कि हम सिर उठा कर इस संसार में जी सकें.'
हम सब काम करते-करते थक जाते हैं और थक कर सो जाते हैं. एक-एक दिन करते -करते कई बरस गुज़र जाते हैं. कालचक्र कभी नहीं थमता, वह निरंतर चलता रहता है . बेटियॉ कब बडी हो जाती हैं पता ही नहीं चलता. लक्ष्मी बडी हो गई है. वह आई. पी. एस. अफसर बन चुकी है और उसकी नियुक्ति मुँबई - ठाणे में हो गई है. विद्या का घर हँस रहा है बहनें खिलखिला रही हैं और मॉ की ऑखें मुस्कुरा रही हैं. सरस्वती, मेडिकल कॉलेज़ में पढ रही है. रंभा आई. आई. टी. की तैय़ारी कर रही है.
अब विद्या को घर की याद आ रही है, वह अपनी खुशियों को अपनों से बॉटना चाहती है. उसे मॉ की बहनों की और बडे गुरुजी की याद आ रही है पर आज सडक - दुर्घटना में एक आदमी बुरी तरह घायल हो गया है,उसके दोनों पॉव टूट गए हैं, उससे मिलने जा रही है. वैसे तो इंस्पैक्टर उसका बयान लेकर आ गए हैं पर विद्या स्वयं उससे मिलना चाहती है. उसका नाम प्रभाकर है. विद्या उससे मिली और उसने उससे पूछा - ' कहॉ रहते हो ?'
' फुटपाथ पर .'
'कहॉ से आए हो ?'
'भवतरा से .'
अरे ! यह तो मेरा ही गॉव है.
' घर में और कौन - कौन हैं ?'
' मैं अपनी पत्नी और तीन बेटियों को छोड कर मुँबई आ गया था , पता नहीं वे कहॉ हैं और किस हाल में हैं .'
उसकी ऑखें भर आईं,वह रोने लगा,अपने आपको कोसने लगा. उसने कहा - 'मेरी बेटी आपके उम्र की होगी पर मैं बेटे की चाह में, अपनी बेटियों को छोड कर यहॉ भाग आया. क्या पता वे जिन्दा हैं भी या नहीं ?'
वह फूट-फूट कर रोने लगा.
अब विद्या पहचान चुकी थी कि वह उसका पिता है पर उसने बताया नही.उसके पैरों का ऑपरेशन करवाया.जयपुरी पैर लग गए और प्रभाकर जब चलने-फिरने लायक हो गया तो विद्या ने उससे पूछा-'क्या आप अपने गॉव जाना चाहेंगे? 'उसने रोते हुए कहा- ' हॉ , जाऊँगा .'
आज वसंत-पञ्चमी है . विद्या , प्रभाकर को लेकर मॉ के पास पहुँचने वाली है, मॉ ने विद्या के सम्मान में पूरे गॉव को बुलाया है, बडे गुरुजी नई धोती- कुर्ता पहन कर, सोफे पर बैठे हुए हैं, वे सभी आगंतुकों का स्वागत कर रहे हैं, विद्या की मॉ , लक्ष्मी आरती की थाल सजा कर , विद्या का इंतज़ार कर रही है, जैसे ही विद्या आई उसकी दोनों बहनें उससे लिपट गईं. लक्ष्मी ने विद्या की आरती उतारी और विद्या ने मॉ के चरण छुए, उसने बडे गुरुजी को प्रणाम किया और उनका आशीर्वाद लिया. प्रभाकर असहज होकर इधर-उधर देख रहा था,तभी विद्या ने अपनी मॉ से कहा- ' मॉ ! यहॉ आओ, देखो तो ये कौन हैं ?'
लक्ष्मी ने प्रभाकर को ध्यान से देखा- ' अरे ! वही ऑखें, वही चेहरा ! उसके होठों ने कहा- ' प्रभाकर !'
' मॉ ! तुम इन्हें जानती हो क्या ?'
" मैं तुम्हारा अपराधी हूँ लक्ष्मी !" कहकर प्रभाकर हाथ जोड कर बोला - " हो सके तो मुझे माफ कर देना ,मैं तुम्हारे लायक नहीं हूँ ." वह रोने लगा . नारी तो धरती है . लक्ष्मी ने उसका हाथ पकड कर उसे बिठाया, अपने बच्चों से मिलवाया और फिर पूरे गॉव वालों के साथ माता सरस्वती की पूजा की. माता सरस्वती ने विद्या की प्रार्थना सुन ली थी .