Tuesday, 8 November 2016

कालिदास कवि कुल गौरव हैं

कालिदास कवि - कुल - गौरव हैं शब्द - चित्र के हैं आकाश
लोगों  ने उपहास - किया पर हुए  नहीं वह कभी - निराश ।

अभिज्ञानशाकुन्तल रच - कर दुनियां भर में नाम कमाया
मेघदूत छा - गया गगन में प्रणय - गीत जब तुमने गाया ।

सत्यमेव जयते की धुन पर तुमने रचा कुमार - सम्भवम्
दुष्ट - दमन अति आवश्यक है आदि सनातन यही नियम ।

मालविका भी अग्नि - मित्र - संग हंसी - ठिठोली करती है
प्रेम - रतन - धन दिया तुम्हीं ने आतुर - हो कर कहती है ।

विक्रम की उर्वशी क्षितिज पर सहज - सरल देती - सन्देश
अमर - रहे अनुराग  हमारा प्रेम - से पूरित- हो परि - वेश ।

ऋतु - संहार यही कहता  है  नित - नवीन  है यह - धरती
वनस्पतियॉ कितनी सुंंदर हैं कल कल कर कावेरी कहती ।

शिप्रा - तुम्हें - याद करती  है  बैठी - रहती  है  वह - मौन
पद - चापों की परख उसे है कभी - कभी कह उठती कौन ?

महाकाव्य - रघुवंश - तुम्हारा सब को राह - दिखाता है
यह मानव - जीवन अमूल्य है हम सब को समझाता है ।

जन्म भूमि की महिमा अद्भुत तुमने किया है गौरव गान
आज़ादी की खीर बँटी जब जाग- गया फिर हिन्दुस्तान ।

कालिदास तुम यहीं - कहीं हो सुनती  हूँ तेरा  पद - चाप
तुम मेरे मन में बसते हो अनुभव करती हूँ अपने - आप ।