Wednesday, 28 January 2015

उद्यम से पारो ने पाया

देश का दिल भोपाल हमारा
      कितना सुन्दर कितना प्यारा ।
एक बार तुम आकर देखो
            तुम फिर आओगे दोबारा ।

हबीबगँज में एक मोहल्ला
     पारस - सिटी है जिसका नाम ।
भाई - चारे का मिसाल हैं
           बसते हैं जो यहॉ - तमाम ।

इस बस्ती की बात-बताऊँ
         एक लडकी की कहूँ कहानी ।
एक लँगडी लडकी है पारो
            पर पारो है बडी - सयानी ।

करुण-कथा है पारो का पति
          किसी और के साथ गया है ।
कारण इसकी दो बेटियॉ हैं
          "मुझको बेटा नहीं मिला है ।"

उस मूरख को कौन बताए
           इसमें पारो का नहीं है दोष ।
बिना दोष की सज़ा भुगतती
                धरती है मन में संतोष ।

वह झाडू- पोछा करती है
          दोनों बच्चों को पोंस रही है ।
कथा बताते समय स्वयं ही
         अपने - आपको कोस रही है ।

पच्चीस बरस की है बेचारी
           अपमानित होकर जीती है ।
डटकर काम किया करती है
            तिरस्कार को वह पीती है ।

एक दिन मैंने उसे बुलाया
          अच्छे से उसको समझाया ।
" लञ्च बनाकर बेचो पारो"
      विधि-विधान भी उसे बताया ।

पारो को बात समझ में आई
          घर में शुरू हुआ यह काम ।
चार-रोटियॉ साग-अचार
          औरों से कुछ कम हैं दाम ।

ग्राहक बढते रहे निरन्तर
       उसका बढा आत्म-विश्वास ।
 बच्चे पढने जाते  बस में
       वह स्कूल भी है कुछ खास ।

अब पारो भी मुस्काती है
            पारो ने पाया परि -तोष ।
खुश-खुश रहते हैं बच्चे भी
           सबके मन में है सन्तोष ।

रात के पीछे दिन आता है
            दिन के पीछे आती रात ।
एक - एक दिन करते करते
         बीत गई कितनी बरसात ।

बेटी डाक्टर बन कर आई
     भोपाल में प्रैक्टिस करती है ।
आईआईटी मुँबई में छोटी
        आठ सेमेस्टर में पढती है ।

रोटी- सब्ज़ी नाम से चलता
          पारो का यह पहुना - घर ।
अपनापन है इस होटल में
          जैसे हो यह अपना - घर ।

उद्यम से पारो ने पाया
      जीवन में एक नया मुकाम ।
कर्म-योग की महिमा अद्भुत
   बन सकता है मनुज - महान ।


    

     

Wednesday, 21 January 2015

उद्यम यदि हम करें निरन्तर

तरु बचपन से ही कानी थी
      सब करते थे उसका उपहास ।
अपमानित होती रहती थी
    फिर भी थी मन में एक आस ।

खेल - कूद में आगे रहती
        मिलता - रहता था ईनाम ।
पर सब कोई उसे चिढाते
       कहते थे कानी को परनाम ।

एक ऑख से ही तरु का पर
          सही निशाना लगता था ।
तीरंदाज़ी में माहिर थी
     हर पुरस्कार बस उसका था ।

स्कूल से उसको मिला सहारा
     सुविधा सब मिल जाती है ।
तरु जी-जान से भिडी हुई है
      मन भर खुशी यहॉ पाती है ।

रात के पीछे दिन आता है
          दिन के पीछे आती रात ।
इसी तरह आते-जाते फिर
       चली गई कितनी बरसात ।

तीरंदाज़ी में अब तरु भी
     सफल हो गई बनी मिसाल ।
यश वैभव इतना मिलता है
        तरु हो गई है माला-माल ।

अब तो बडे घरों से रिश्ते
         आए - दिन आते रहते हैं ।
उद्यम यदि हम करें निरन्तर
     तो हम भी सुख पा सकते हैं ।


अब मौन हो गए हैं अक्षर 

 

हिमाचल के प्रवास पर थी
        मनाली में मैं घूम रही थी ।
गुफा-हिडिम्बा देख रही थी
        देवदारु  के  पास खडी थी ।

माला लेकर एक लडकी आई
       "माला की माला खरीद लो ।"
माला की माला सुन्दर थी
        "माला कितने की है बोलो ?"

"दीदी के लिए दाम कम होगा
        मुझको दे दो केवल पचास ।"
"माला तो सुन्दर है सचमुच
          पर ज़्यादा है दाम पचास ।"

"दीदी देखो और रखी हूँ"
         कहकर उसने पलटी मारी ।
एक पॉव से वह लँगडी थी
           दुखी हुआ मन मेरा भारी ।

मैंने  दस - मालायें ले ली
         पॉच सौ का एक नोट दिया ।
वह चेंज खोजने लगी तभी
          मैंने खुद को ही हटा लिया ।

मैं मालायें लेकर जल्दी 
        भीड  में  हो  गई थी ओझल ।
मन ही मन मैं सोच रही थी
        यह माला मैं पहनूँगी - कल ।

पकड लिया माला ने मुझको
        "दीदी तुम अपने पैसे ले लो ।
तुम जल्दी में निकल गई 
           पर पैसे कैसे रखती बोलो ?

दाम तुम्हीं ने कम करवाए 
         और  दे  दिए ज़्यादा - दाम ।
रख लो अपने पैसे दीदी 
           आयेंगे कभी तुम्हारे काम ।"

मेरी - ऑखों में ऑसूँ थे 
          उसकी ऑखें भी थीं साक्षर ।
चारों ने सब बात समझ ली
            अब मौन हो गए हैं अक्षर ।