तरु बचपन से ही कानी थी
सब करते थे उसका उपहास ।
अपमानित होती रहती थी
फिर भी थी मन में एक आस ।
खेल - कूद में आगे रहती
मिलता - रहता था ईनाम ।
पर सब कोई उसे चिढाते
कहते थे कानी को परनाम ।
एक ऑख से ही तरु का पर
सही निशाना लगता था ।
तीरंदाज़ी में माहिर थी
हर पुरस्कार बस उसका था ।
स्कूल से उसको मिला सहारा
सुविधा सब मिल जाती है ।
तरु जी-जान से भिडी हुई है
मन भर खुशी यहॉ पाती है ।
रात के पीछे दिन आता है
दिन के पीछे आती रात ।
इसी तरह आते-जाते फिर
चली गई कितनी बरसात ।
तीरंदाज़ी में अब तरु भी
सफल हो गई बनी मिसाल ।
यश वैभव इतना मिलता है
तरु हो गई है माला-माल ।
अब तो बडे घरों से रिश्ते
आए - दिन आते रहते हैं ।
उद्यम यदि हम करें निरन्तर
तो हम भी सुख पा सकते हैं ।
सब करते थे उसका उपहास ।
अपमानित होती रहती थी
फिर भी थी मन में एक आस ।
खेल - कूद में आगे रहती
मिलता - रहता था ईनाम ।
पर सब कोई उसे चिढाते
कहते थे कानी को परनाम ।
एक ऑख से ही तरु का पर
सही निशाना लगता था ।
तीरंदाज़ी में माहिर थी
हर पुरस्कार बस उसका था ।
स्कूल से उसको मिला सहारा
सुविधा सब मिल जाती है ।
तरु जी-जान से भिडी हुई है
मन भर खुशी यहॉ पाती है ।
रात के पीछे दिन आता है
दिन के पीछे आती रात ।
इसी तरह आते-जाते फिर
चली गई कितनी बरसात ।
तीरंदाज़ी में अब तरु भी
सफल हो गई बनी मिसाल ।
यश वैभव इतना मिलता है
तरु हो गई है माला-माल ।
अब तो बडे घरों से रिश्ते
आए - दिन आते रहते हैं ।
उद्यम यदि हम करें निरन्तर
तो हम भी सुख पा सकते हैं ।
अब मौन हो गए हैं अक्षर
हिमाचल के प्रवास पर थी
मनाली में मैं घूम रही थी ।
गुफा-हिडिम्बा देख रही थी
देवदारु के पास खडी थी ।
माला लेकर एक लडकी आई
"माला की माला खरीद लो ।"
माला की माला सुन्दर थी
"माला कितने की है बोलो ?"
"दीदी के लिए दाम कम होगा
मुझको दे दो केवल पचास ।"
"माला तो सुन्दर है सचमुच
पर ज़्यादा है दाम पचास ।"
"दीदी देखो और रखी हूँ"
कहकर उसने पलटी मारी ।
एक पॉव से वह लँगडी थी
दुखी हुआ मन मेरा भारी ।
मैंने दस - मालायें ले ली
पॉच सौ का एक नोट दिया ।
वह चेंज खोजने लगी तभी
मैंने खुद को ही हटा लिया ।
मैं मालायें लेकर जल्दी
भीड में हो गई थी ओझल ।
मन ही मन मैं सोच रही थी
यह माला मैं पहनूँगी - कल ।
पकड लिया माला ने मुझको
"दीदी तुम अपने पैसे ले लो ।
तुम जल्दी में निकल गई
पर पैसे कैसे रखती बोलो ?
दाम तुम्हीं ने कम करवाए
और दे दिए ज़्यादा - दाम ।
रख लो अपने पैसे दीदी
आयेंगे कभी तुम्हारे काम ।"
मेरी - ऑखों में ऑसूँ थे
उसकी ऑखें भी थीं साक्षर ।
चारों ने सब बात समझ ली
अब मौन हो गए हैं अक्षर ।
कर्मयोगी तरु
ReplyDeleteदिल से लिखी...दिल के करीब की रचना...
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