Monday, 21 September 2015

बेटी बचाओ

                                 [ एकांकी ]

पात्र - परिचय
 1 - रामलाल - घर का मुखिया   उम्र - 50 वर्ष ।
2 - कमला - रामलाल की पत्नी । उम्र - 45 वर्ष ।
3 - पवन -  रामलाल का बेटा ।  उम्र - 25 वर्ष ।
4 - पूजा - पवन की पत्नी । उम्र  - 22 वर्ष ।
5 - शोभा - रामलाल की बेटी । उम्र - 21 वर्ष ।
6 - श्याम - पूजा का भाई । उम्र - 24 वर्ष ।

                            प्रथम - दृश्य

     [  गॉव का घर । गोबर से लीपा हुआ अंगना । अंगना में चौक । रामलाल अपनी पत्नी को कुछ समझा रहे हैं । च्रहरे पर परेशानी का भाव झलक रहा है । ]

रामलाल - कमला ! तुम बहू को समझा दो कि अब वह नौकरी नहीं करेगी । हमारे घर में बहू - बेटियॉ नौकरी नहीं करतीं । यह बात वह जितनी जल्दी समझ जाए, उतना ही अच्छा है ।
 कमला - बहू नौकरी कर रही है, इसमें हर्ज ही क्या है ? अब ज़माना बदल गया है । हमें भी ज़माने के साथ चलना पडेगा, वर्ना हम पीछे रह जायेंगे । जो अन्याय मेरे साथ हुआ , वह अपनी बहू के साथ मैं नहीं होने दूँगी । रामलाल - तुमसे तो कुछ कहना ही बेकार है । हर बात का मतलब उल्टा ही निकालोगी । तुम्हारे भेजे में तो गोबर भरा है ।
कमला - मैं भी तुम्हारे बारे में यही बात कह सकती हूँ । मेरी सज्जनता को मेरी क़मज़ोरी समझने की भूल मत करना ।
रामलाल - हे भगवान ! इस औरत को सद्बुद्धि दे ।
कमला - इसकी ज़्यादा ज़रूरत तुम्हें है ।
[ बहू का प्रवेश ]
पूजा - अम्मॉ ! मैं उनके लिए चाय बना रही हूँ । आप लोगों के लिए बना दूँ क्या ?
कमला - हॉ, बेटा ! बना ले । चाय का टाइम तो हो ही गया है ।
रामलाल - हमारी बहू कितनी समझदार है, देखो हमारा कितना ध्यान रखती है, पर पता नहीं शोभा से कैसा व्यवहार करेगी ? मुझे इस बात की बडी चिन्ता है ।
कमला - मैंने कितनी बार यह बात कही कि हमें सच्चाई बता देनी चाहिए पर तुमने हर बार मना कर दिया । अब मैं क्या करूँ ?
पूजा - लीजिए अम्मॉ ! गरमा - गरम चाय । साथ में आलू - बैगन की पकौडी भी है ।
कमला - बेटा ! चाय पॉच कप क्यों बनाई हो ? हम तो चार ही हैं न !
पूजा - अम्मॉ ! आप शोभा को कैसे भूल सकती हैं ? क्या वह घर पर नहीं है ?

[ रामलाल के हाथ से चाय छलक जाती है पर कमला के हाथ से, चाय का कप गिर जाता है । कप के टूटने की आवाज़ से सभी स्तब्ध हो जाते हैं, सास - ससुर को असहज देखकर, पूजा कहती है -'आप रहने दीजिए अम्मॉ मैं उठा देती हूँ ।'  वह कप के टुकडे उठा - कर भीतर चली जाती है ।]
                 [ पूजा का प्रवेश ]
पूजा - अम्मॉ ! लीजिए, आपकी चाय ।

[ पवन और पूजा पूरे घर को खोज डाले पर शोभा उन्हें कहीं नहीं मिली । थक - हार कर पवन ने अपनी मॉ से पूछा - ]
पवन - अम्मॉ ! शोभा कहॉ है ?
कमला - [ असहज होने का अभिनय करती हुई ] शोभा अपने कमरे में ही है ।
पवन - पर उसके कमरे में तो ताला लगा हुआ है अम्मॉ !
कमला -ये रही चाबी, जा खोल दे ।
[ पवन ने कमरे की चाबी, पूजा के हाथ में देते हुए कहा- " पूजा ! अम्मॉ - बाबूजी शोभा को लॉक करके रखे हैं " तिरस्कार से अपनी माता - पिता को देखते हुए ]
पवन - वह लँगडी है, इसमें उसकी क्या गलती है ? हद कर दिए आप लोग ! अपने ही बच्चे के साथ ऐसा व्यवहार ? वैसे पूजा ! मैं भी इंजीनियर नहीं हूँ । मैं एम. ए. बी. एड. किया हूँ । शिक्षा - कर्मी वर्ग - एक में बच्चों को हिन्दी पढा रहा हूँ । कभी - कभी मुँह खोलना ज़रूरी होता है अम्मॉ ! इसलिए बोल रहा हूँ । यदि बाबूजी यही बात समझ जाते तो मुझे पूजा के सामने ज़लील होने से बच जाता ।
                     

                             द्वितीय - दृश्य 

[ पूजा ने जब कमरे का ताला खोला तो मारे बदबू के, उसे अपनी नाक में साडी का पल्ला रखना पडा और यह क्या ? शोभा तो यहॉ बेहोश पडी है । वह रोती - चिल्लाती अम्मॉ के कमरे की ओर भाग रही है । ] 

पूजा - अम्मॉ ! शोभा बेहोश पडी है और उसके मुँह से झाग निकल रहा है ।
[अफरा-तफरी में पवन, वैद्य जी को लेकर आया है । सभी के चेहरे पर चिन्ता की लकीरें दिखाई दे रही है ।] 
वैद्य - चिन्ता की कोई बात नहीं है । थोडी देर में जाग जाएगी । चेहरे पर ठण्डे - पानी का छींटा डालिए । [ पूजा शोभा के चेहरे पर ठण्डा - पानी छिडकती है , शोभा ऑखें मिचमिचाती है ।] शोभा जाग गई है ,उसे नीबू - पानी पिला दीजिए और वह जो खाना चाहे उसे खिला दीजिए । अब मैं चलता हूँ ।
[ पवन, वैद्य जी का बैग पकड - कर उन्हें छोडने जाता है ।]

[ शोभा की यह हालत देख कर पूजा रो - रो कर बेहाल है । उसकी ऑखें सूज गई हैं । वह सपने में भी नहीं सोच सकती कि कोई माता - पिता अपने बच्चे के साथ, ऐसा व्यवहार कर सकता है । वह शोभा का ध्यान इस तरह रखने लगी, जैसे वह उसकी छोटी बहन हो । ननद और भाभी, बतिया रही हैं, आइए हम भी सुनते हैं ।]
शोभा - भाभी । मुझे अम्मॉ - बाबूजी, फटे हुए कपडे की तरह क्यों छिपाते फिरते हैं ? कभी - कभी मैं अपने आप से पूछती हूँ कि यदि मैं लडका होती, तो भी क्या मेरे माता - पिता, मुझे इसी तरह छिपा - कर रखते ? लडकी को कितना अपमानित होना पडता है, भाभी ! उसे उस गलती की सज़ा मिलती है जो उसने कभी की ही नहीं है । 
[ वह पूजा को पकड - कर रोने लगती है ।] 
शोभा - आपके सिवाय, मेरा कोई नहीं है भाभी !
पूजा - मत चिन्ता कर । मैं हूँ न ! 
शोभा - भाभी ! मैं आपसे कुछ मॉगना चाहती हूँ , आप मना तो नहीं करेंगी ? 
पूजा - तू मॉग कर तो देख ! 
शोभा - भाभी ! आपने तो खैरागढ से लोक - गीत में एम. ए. किया है न ? मुझे भी सिखाइये न प्लीज़ ! 
पूजा - तुम मन लगा - कर सीखोगी तो सिखाऊँगी । 
शोभा - मैं आपसे प्रॉमिज़ करती हूँ , आपको कभी निराश नहीं करूँगी ।

[ हम सब काम करते - करते थक जाते हैं और थक - कर सो जाते हैं पर काल - चक्र कभी नहीं रुकता, वह निरन्तर चलता रहता है । दिन के बाद रात आती है और रात के बाद दिवस आता है और इसी तरह न जाने कितनी बरसात निकल जाती है । पूजा अपनी ननद को लोक - गीत गाना सिखाने लगी और सचमुच पूजा ने भी, पूरे मन से गाना सीखा और अब वह स्टेज़ पर गाने लगी है । आइए हम भी सुनें- वह "भरथरी " गा रही है ।
शोभा - 
ए दे नोनी पिला के जनम ल धरे तोर धन भाग ए ओ मोर नोनी 
तैं ह बेटी अस मोर तैं ह बहिनी अस मोर संगवारी अस मोर 
महतारी अस महतारी अस मोर नोनी sssssssssssssssssssssss।

लइका ल कोख म वोही धरथे भले ही पर - धन ए मोर - नोनी 
सब ल मया दिही   भले पीरा सइही    भले रोही - गाही 
ओही डेहरी म  ओही डेहरी म मोर - नोनी  sssssssssssssssssss।

पारस पथरा ए   जस ल बढाथे    मइके के  ससुरे के  मोर नोनी
ओला झन  हींनव ग ओला झन मारव ग  थोरिक सुन लेवव ग
गोहरावत हे  गोहरावत हे मोर - नोनी sssssssssssssssssssssss।

पूजा - तुम बहुत अच्छे से गाई हो शोभा ! पर मैं चाहती हूँ कि तुम फील - करो, इससे तुन्हें मज़ा भी आएगा और गीत में तुम्हारी पकड और मजबूत होगी ।
शोभा - ठीक है भाभी मैं कोशिश करूँगी ।

             तृतीय - दृश्य 

[ श्याम पूजा का भाई है । वह भाई - दूज में अपनी बहन के घर आया है । पूजा, अपने भाई को तिलक, लगा कर, आरती उतार ही रही थी कि आसपास से  "कजरी "  गीत का स्वर सुनाई देता है ।]
                        कजरी 
रंगबे -  तिरंगा मोर लुगरा बरेठिन 
किनारी म हरियर लगाबे बरेठिन ।

झंडा- फहराए  बर  महूँ  हर जाहँवँ
उप्पर म  टेसू -  रंग  देबे  बरेठिन ।

सादा -  सच्चाई  बर  हावय  जरूरी
भुलाबे झन छोंड देबे सादा बरेठिन।

नील रंग म चर्खा कस चक्का बनाबे
नभ  ल अमरही - तिरंगा  बरेठिन ।

श्याम - पूजा ! यह किसकी आवाज़ है ? वह देश - प्रेम में कजरी गा रही है पर उसकी आवाज़ में दर्द क्यों है ? पूजा बताओ न ! वह कौन है ? क्या तुम उसे जानती हो ?
पूजा - है एक लडकी, तुम्हें क्या इंटरेस्ट है ? 
श्याम - पूजा ! मैं उसके गायन का मुरीद हो गया हूँ । उसके लिए कुछ भी कर सकता हूँ ।
पूजा - लूली , लँगडी, अंधी होगी, तब भी क्या तुम --------------------
श्याम - हॉ पूजा हॉ, वह जैसी भी हो, मैं उसे अपनाने के लिए तैयार हूँ ।
[ तभी गीत के आखरी दो पंक्तियों को गुनगुनाती हुई, पूजा का प्रवेश ]
रंगबे -  तिरंगा  मोर लुगरा बरेठिन 
किनारी म हरियर लगाबे बरेठिन ।
[ 'कजरी' गाते- गाते शोभा, अपने भाई - भाभी के कमरे में आती है और किसी अजनबी को देख - कर ठिठक जाती है । श्याम और शोभा के बीच कोई बात नहीं होती पर दोनों असहज हो जाते हैं । अरे ! ये दोनों एक - दूसरे से ऑखें क्यों चुरा रहे हैं ? लगता है कि ये दोनों एक - दूसरे के बहुत क़रीब आने वाले हैं । आज पूजा अपनी शिष्या शोभा को " बिहाव - गीत " गाना सिखा रही है क्योंकि देवउठनी एकादशी आने वाली है । कोसला गॉव के गुँडी में " बिहाव - गीत " का कार्यक्रम है । शोभा, बिहाव - गीत गा रही है और पूजा हारमोनियम बजा रही है, पवन ढोलक बजा रहा है और श्याम बॉसुरी बजा रहा है ।]
शोभा - 
सियाराम के होवत हे बिहाव गौरी - गनेश बेगि आवव 
शुभ - शुभ  होही  सब काज गौरी - गनेश बेगि आवव ।

बॉस - पूजा पहिली मँडवा म होही 
उपरोहित ल  झट के बलाव  गौरी - गनेश  बेगि आवव ।
सियाराम के होवत हे बिहाव गौरी - गनेश बेगि आवव ।
शुभ - शुभ  होही  सब  काज  गौरी - गनेश बेगि आवव ।

चूल - माटी खनबो परघा के लानबो 
थोरिक माटी  के  मान  बढाव गौरी - गनेश बेगि आवव ।
सियाराम के होवत हे  बिहाव गौरी - गनेश बेगि आवव ।
शुभ - शुभ  होही  सब  काज  गौरी - गनेश बेगि आवव ।

पाणि -  ग्रहण  के  बेरा  हर आ  गे
सु - आसीन  मंगल - गाव  गौरी -  गनेश  बेगि  आवव ।
सियाराम के होवत हे बिहाव गौरी - गनेश बेगि आवव ।
शुभ - शुभ  होही  सब  काज  गौरी - गनेश बेगि आवव ।

बर - कइना  दुनों  ल असीस  देवव
दायी - बेटा  आघू  ले  आव  गौरी - गनेश  बेगि आवव ।
सियाराम के होवत हे बिहाव गौरी - गनेश बेगि आवव ।
शुभ - शुभ  होही  सब  काज  गौरी - गनेश बेगि आवव ।

हरियर  हे  मडवा  हरियर हे मनवा
जिनगी  ल  हरियर  बनाव  गौरी - गनेश  बेगि  आवव ।
सियाराम के होवत हे बिहाव गौरी - गनेश बेगि आवव ।
शुभ - शुभ  होही  सब  काज  गौरी - गनेश बेगि आवव ।

[ बिहाव - गीत के सम्पन्न होते ही पवन कुछ कह रहे हैं आइए हम भी सुनते हैं । ]
पवन - आज आप सबको साक्षी मान कर मैं श्याम को अपना बहनोई बना रहा हूँ । [ उसने श्याम का तिलक किया और शगुन के रूप में 101 रुपया उसके हाथ में दिया । श्याम ने तुरन्त पवन के पॉव छुए ।] आज मेरी बहन शोभा ने तुलसी - विवाह में " बिहाव - गीत गाया और आज से ठीक तीन दिन बाद, पूर्णिमा के दिन गोधूलि - वेला में मेरी बहन शोभा की शादी है । आप सभी को निमंत्रण है, उसे आशीर्वाद देने ज़रूर आइये ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई मो - 093028 30030                            
         
                               

Sunday, 13 September 2015

टोनही

                              टोनही                  [ कहानी ]

' रोज सॉझ को दारु पीने के लिए मेरे पास आ जाता है पर अपनी एक लडकी को मेरे यहॉ काम पर लगा दे बोलता हूँ तो मना कर देता है । पढ -लिख कर क्या मास्टरनी बन जाएगी तेरी बेटी ?'
' मेरी घरवाली अपनी बेटियों को आने नहीं देती सेठ ! वरना मैं तो चारों को तुम्हारे यहॉ भेज देता.'
' औरत की इतनी हिम्मत कि वो मर्द की बात को काटे ? सीधी ऊँगली से घी नहीं निकलता बुधराम,उसे टेढी करना पढता है. समझा कि नहीं ? '
' समझ गया सेठ.'
 आज बुधराम जब घर आया तो वह राक्षस बन कर आया । आते ही वह ढेली के ऊपर बरस पडा. गंदी - गंदी गालियॉ देने लगा और ढेली को पीटने लगा. बेटियों ने जाकर छुडाया और चारों बेटियॉ,मॉ के पास ही बैठी रहीं.बारह बरस की निर्मला ने मॉ को बताया कि जब भी वह सम्पत सेठ की दुकान के सामने से गुज़रती है वह उसे आवाज़ देकर बुलाता है कहता है कि-'आ जा ! तुझे चॉकलेट दूँगा ,बिस्किट दूँगा ' पर मैं उधर देखती भी नहीं,  चुपचाप वहॉ से निकल जाती हूँ.' निर्मला की बात सुनकर उसकी बडी दीदी कविता ने उसे समझाया- ' इन जैसे लोगों से हमें बच कर रहना है निर्मला. हमें कभी भी इनकी बातों में नहीं आना है. मन लगा कर पढाई करना है और इस दल-दल से निकलना है. समझी रे मेरी प्यारी बहना ?' निर्मला ने मुस्कुरा कर कहा-' हॉ दीदी.'

ढेली का परिवार भवतरा गॉव में रहता है. उनका छोटा सा घर है. ढेली,चार-पॉच घरों में चौका-बरतन करती है तब कहीं जाकर उनके घर में चूल्हा जलता है और लडकियों की पढाई का खर्च पूरा होता है.उसका पति बुधराम दिन भर सम्पत सेठ का काम करता है और दारु पी कर आ जाता है. घर में कभी एक पैसा नहीं देता. कहता है- 'तू मुझे एक भी सन्तान नहीं दी तो मैं तुझे किसके लिए पैसा दूँ ?'
कविता अभी बारहवीं में पढती है. वह अपने स्कूल में झाडू-पोछा करती है और उसकी मैडम उसे 500 सौ रुपए देती है.कविता हर महीने 400 रुपए बैंक में जमा कर देती है.

ढेली अभी भी इतनी सुन्दर है कि उस पर से निगाहें हटती नहीं.वह बिना सिंगार के सुन्दर दिखती है.उसकी बेटियॉ भी अपनी मॉ जैसी हैं.ऐसा लगता है कि मॉ- बेटियॉ जानती ही नहीं कि वे कितनी सुन्दर हैं कारण उनके घर में दर्पण नहीं है.हर औरत के मन में यह भाव आ ही जाता है कि काश.....
अचानक आज सुबह से ही सरपंच ने ढेली को बुलवाया है. ढेली जब सरपंच के घर पहुँची तो उसकी पडोसन वहीं बैठी थी. ढेली भी उसी के पास जाकर बैठ गई.सरपंच ने कहा-' ढेली! तुम मेरी बात का बुरा मत मानना पर तुम्हारी पडोसन तुम्हारी शिकायत लेकर आई है कि तुमने उसके ऊपर जादू-टोना कर दिया है.'
ढेली की ऑखों में ऑसू आ गए, उसने आश्चर्य से भूरी को देखा तो भूरी चिल्लाने लगी-'सरपंच जी ! देखो इसकी ऑखें,यह ऐसे ही जादू-टोना करती है.'
'अब मैं आपसे क्या कहूँ सरपंच जी ? आप तो मुझे बचपन से जानते हैं' कहते - कहते ढेली ज़ोर-ज़ोर से रोने लगी और रोते-रोते वह बेहोश हो गई.गॉव में छोटा सा अस्पताल था, सरपंच ने ढेली को वहीं भिजवा दिया. ढेली बीच-बीच में बडबडाती थी-' मेरी बेटियों को बचाओ' और फिर बेहोश हो जाती थी. दिन बीत गया, रात बीत गई, ढेली को होश नहीं आया.दुनियॉ सो रही थी पर उसकी जीभ जाग रही थी. आग की तरह आस-पास के गॉवों में यह खबर फैल गई कि ढेली टोनही है. सुबह जब ढेली को होश आया तो उसके सामने पामगढ के इंसपेक्टर खडे थे और ढेली से पूछ रहे थे-'क्या हुआ ढेली ?' ढेली ने कहा - 'मेरी चार बच्चियॉ हैं उनको बचा लीजिए साहब, उनकी जान खतरे में है.' इंसपेक्टर ने तुरन्त वायरलेस से पुलिस-फोर्स को एलर्ट कर दिया, ढेली की चारों बेटियॉ, बिलासपुर रेल्वे-स्टेशन में, मुँबई-हावरा ट्रेन के ए. सी.कोच में मिलीं, उनके साथ सम्पत-सेठ भी मिला जो चेहरा छुपा-कर बैठा हुआ था. पुलिस ने बुधराम को खोजने की कोशिश की- वह सम्पत - सेठ के घर के सामने बेहोश पडा हुआ था.                                                

Wednesday, 9 September 2015

तीन गज़ल

              छत्तीसगढ के लोग


सरल - सहज हैं संस्कारी हैं छत्तीसगढ के लोग
संकोची - भोले  अल्हड  हैं छत्तीसगढ  के  लोग ।

बाहर  से जो पहुना आता मान  बहुत  देते  हैं वे
सबको अपना कुटुम मानते छत्तीसगढ के लोग ।

भले  ही कोई करे उपेक्षा लडते नहीं किसी से वे
जान- बूझ कर चुप रहते हैं छत्तीसगढ  के लोग ।

नर  हो  चाहे  नारी  डट  कर  मेहनत  वे करते हैं
पुरुषार्थी  हैं  कर्म - वीर  हैं  छत्तीसगढ  के  लोग ।

मेहनत  करता  है किसान जो भरता सबका पेट
भुइयॉ  के  भगवान  हैं भैया  छत्तीसगढ के लोग ।

यहॉ  की  माटी  मम्हाती है देवदारु चन्दन जैसी
'शकुन' यहीं बस जा अच्छे हैं छत्तीसगढ के लोग ।

       तुम मानो या न मानो

        
 जिसकी लाठी भैंस उसी की तुम मानो या न मानो 
नारी  नहीं  बराबर  नर  के  तुम  मानो  या न मानो ।

उसे कभी विश्राम नहीं है तीज तिहार हो या इतवार 
हाथ - बँटाता  नहीं  है  कोई  तुम  मानो या न मानो ।

इंसाफ  नहीं  होता है दफ्तर में भी उसके साथ कभी
ज़्यादा  क़ाम  दिया  जाता है तुम मानो या न मानो ।

कोई  नहीं  समझता उसको कहने को सब अपने  हैं 
नारी  भी  नारी की दुश्मन है तुम मानो या न मानो ।

'शकुन' कोई तरक़ीब बता वह जीवन सुख से जी ले 
जीवन यह अनमोल बहुत है तुम मानो या न मानो ।

  कौम से कटा हुआ ये जी रहा है कौन 

 

 कौम  से  कटा  हुआ  ये  जी रहा है कौन 
ऑख  में ऑसू  लिए  ये  जी रहा है कौन ? 

आज  बहू - बेटियॉ  रोती  हैं  यहॉ  क्यों 
प्रश्न  उठ रहा है कि रुलाता है उन्हें कौन ? 

रोटी - बना  रही  थी  तो आग लग गई 
गगन  में  गूँजता  है  जला रहा है कौन ?

बेबस को मार के भला तुझे मिलेगा क्या 
अपने ही घर में आग लगा रहा है कौन ?

बेटी को बचा ले 'शकुन' रो  रही  है वह
दुनियॉ में आने से उसे  रोक़ रहा कौन ?