तुम्हारे अनुग्रह से
आज ऑंसुओं में डूब कर
मैं अनुभव कर रही हूँ
प्रेम की उस पीर का
जिसे मैंने कभी हँस हँस कर पढ़ा था।
थाह लगाने की सोंचना नासमझी है
उस ढाई आखर की गहराई का
फिर भी मैं उसका
अ अनार का पढ़ने में लगी हूं।
तुम्हारे द्वारा प्रदत्त यह अनुभव
मेरे लिये ब्रम्हानन्द है
क्योंकि मेरे ब्रम्ह तो तुम्ही हो
और सच कहूं तो
तुम्ही मेरे सर्वस्व हो।
तुम्हारे गहन नयन मेरी मृग-मरिचिका हैं
परिणाम से परिचित हूं
फिर भी यह अनन्त नित नूतन
अनमोल भाव परित्याज्य नहीं है
प्रबलतम प्यास है
पढ़ने का प्रयास है
ढाई आखर ........
आज ऑंसुओं में डूब कर
मैं अनुभव कर रही हूँ
प्रेम की उस पीर का
जिसे मैंने कभी हँस हँस कर पढ़ा था।
थाह लगाने की सोंचना नासमझी है
उस ढाई आखर की गहराई का
फिर भी मैं उसका
अ अनार का पढ़ने में लगी हूं।
तुम्हारे द्वारा प्रदत्त यह अनुभव
मेरे लिये ब्रम्हानन्द है
क्योंकि मेरे ब्रम्ह तो तुम्ही हो
और सच कहूं तो
तुम्ही मेरे सर्वस्व हो।
तुम्हारे गहन नयन मेरी मृग-मरिचिका हैं
परिणाम से परिचित हूं
फिर भी यह अनन्त नित नूतन
अनमोल भाव परित्याज्य नहीं है
प्रबलतम प्यास है
पढ़ने का प्रयास है
ढाई आखर ........
अप्रतिम...गहन भावों की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...बहुत सुंदर...
ReplyDeleteprem ki sahj abhivykti
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