Tuesday, 23 June 2015

मन चंगा तो कठौती में गंगा



कैसे निर्मल हो अब गंगा नीयत बिखर - बिखर जाती है
गंगा  मैया  भाव की भूखी रो - रो कर सब समझाती  है ।

गंगा में शव - दाह मत करो इससे मोक्ष नहीं मिलता है
मनुज कर्म से सद्गति पाता मन प्रसून तब ही खिलता है ।

अस्थि - विसर्जन से अब कैसे बचे हमारी  गंगा -  माई
खुद  ही  मैली  हुई  बेचारी  कितनी  बार  हमें समझाई ।

रो - रो कर बेहाल है गंगा झर - झर उसके ऑसू - बहते
मेरा ऑचल उज्ज्वल कर दो रोती है यह कहते - कहते ।

अर्चन का विधान यह कैसा जिससे  मैली हो गई  गंगा
स्वयं - कठौती में आती है जब मानव का मन हो चंगा ।

Sunday, 14 June 2015

विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर

             पर्यावरण बचाओ


मन -  में  जिजीविषा  हो  पर्यावरण -   बचाओ
जल - वायु स्वच्छ रखो अपना गगन - बचाओ ।

सद्भाव  से  जियो - तुम  यह  है  कवच -  हमारा
वाणी -  मधुर  हो सब  की  पर्यावरण - बचाओ ।

नित यज्ञ करो घर में परि - आवरण का रक्षक
इस  यज्ञ -  होम  से  तुम ओज़ोन  को  बचाओ ।

सत - राह  पर  है चलना सब सीख लें तो बेहतर
गंदी -  गली  से  अपने- अस्तित्व  को  बचाओ ।

तरु  हैं  हमारे  रक्षक  रोपो  'शकुन'  तुम उनको
इस -  वृक्ष  के  कवच  से अपना वतन बचाओ ।

         माटी की करो रक्षा

माटी  की  करो -  रक्षा  तुम  पेड  को  लगा -  कर 
फल - फूल  खूब -  पाओ  तुम  बेल को उगा- कर ।

वट -  नीम - बेल- पीपल अर्जुन को तुम लगाओ 
केला -  पपीता -  दरमी  खाओ  इन्हें  उगा - कर ।

कुँदरू -  करेला -  ककडी  तुम  क्यों  नहीं  उगाते 
खुद -  खाओ  पुण्य  पाओ औरों  भी खिला - कर ।

गमलों  में  फूल - सब्जी  अच्छे  से  तुम  उगाओ 
बाहर  की  सब्ज़ियों  से निज को रखो बचा - कर ।

लहसून -  प्याज़ -  अदरक  घर  में उगा  के देखो 
थोडे  से  श्रम  से  देखो  सुन्दर -  नतीजा पा कर ।

अँगने  में  जगह  है  'शकुन'  मेथी  वहॉ उगा लो 
तुम भी तो लाभ पाओ अपने को कुछ सिखाकर ।

        उद्योग न खा जाए धरती को

जन्म - भूमि की महिमा समझो माटी तो मॉ  है भाई 
चन्दन  - जैसी  खुशबू -  इसकी  माटी तो मॉ है भाई ।

जिस  माटी  में  खेल - कूद - कर बडे हुए हैं हम बच्चे 
कभी  प्रदूषित - करे  न  कोई  माटी  तो  मॉ  है  भाई ।

बडे - बडे हम वृक्ष - लगायें जिससे माटी बह न पाए 
आम - अनार - नीम  भी  बोयें  माटी  तो  मॉ है भाई ।

उद्योग न खा जाए खेती को इस पर भी देना है ध्यान 
अन्न - हमें   देती  वसुन्धरा - माटी  तो  मॉ  है भाई ।

नल -कूप निकट माटी हो तो आर्द्र रहेगा श्रोत 'शकुन'
जल - श्रोत  बढाएगी  माटी - माटी  तो  मॉ  है  भाई ।

             जल ही तो जीवन है

जल  को  रखो  बचा - कर  भाई  जल  ही  तो  जीवन है 
सम्भव  नहीं  है  जल बिन जीवन जल ही तो जीवन है ।

फल - सब्ज़ी जिसमें धोए हो उस जल से सींचो - पौधे
जल  का  अपव्यय  न  हो  पाए  जल  ही  तो जीवन है ।

चॉवल - दाल धुले - जल से  भी फल - फूलों  को  सींचो 
पौष्टिक - भोजन  है  यह उनका  जल  ही  तो जीवन है ।

पानी  का  ग्लास  बडा  न हो बेवज़ह - फेंकना पडता है
उपयोग  करो उपभोग  मत  करो जल ही तो जीवन है ।

फव्वारे  से  करो - नहाना  इससे - जल  बचता है भाई 
जल  है  इस  धरती  का अमृत  जल  ही  तो जीवन है ।

'शकुन' बचाओ जलश्रोतों को वाटर हारवेस्टिंग कर लो
जीवन -  जल  पर  ही  निर्भर  है जल ही तो जीवन है ।

         पञ्चभूतों को बचायें

कवि सम्मेलन में हम कवि गण जागरण के गीत गायें 
प्रकृति  के सहचर - बनें  सब  पञ्च - भूतों को बचायें ।

जन - जागरण करना हमारा धर्म है पहला समझ लो 
प्रतिदिन करें हम यज्ञ उससे पञ्च - भूतों को बचायें ।

वृक्ष  भी  सन्तान  हैं यह बात जन - जन को बतायें 
हर  घर ढँका हो पेड से हम पञ्च - भूतों  को  बचायें ।

सोच लो शुभ - कर्म  हो  सत् - कर्म  ही सौभाग्य  है 
सत् कर्म के सौजन्य से हम पञ्च - भूतों  को बचायें ।

'शकुन'  सुन  ले  धरती  असहाय  हो  - कर  रो  रही 
जागें स्वयं सबको जगा कर पञ्च-  भूतों को बचायें ।  

Sunday, 7 June 2015

जन्म - जयन्ती के पावन - पर्व पर - देख कबीरा रोया

कबीर , एक ऐसा सहज - सरल व्यक्तित्व है , जो सबके मन में आसानी से जगह बना लेता है । उसकी सादगी पर मर - मिटने को जी चाहता है , वस्तुतः सरलता ही तो साधुता है । कबीर साक्षात् कर्म - योग का ही अवतार है । कहते हैं कि उसने चादर बुनते - बुनते , परमात्मा को पा लिया था -
" पोथी पढि - पढि जग मुआ पण्डित भया न कोय ।
ढाई - आखर प्रेम का पढे सो पण्डित होय  ॥"
आपको यह जान कर सुखद - आश्चर्य होगा कि कबीर ने अपने छोटे - छोटे दोहे के माध्यम से दर्शन की बडी - बडी बातों को कह दिया है -
" ऑखिन की करि कोठरी पुतरी - पलंग बिछाइ ।
पलकन के चिक डारि के पिउ को लेऊँ रिझाइ ॥"
पहली नज़र में यह श्रृँगार दिखता है पर यह भक्त और भगवान के बीच की बात है ।

कबीर ने कर्म - योग को अपना गुरु बनाया और जीवन - भर कर्म - मार्ग पर , न केवल स्वयं चलता रहा अपितु सभी को कर्म - मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित - प्रोत्साहित करता रहा । वह एक ऐसा संत है जिसे सभी ने मन से अपनाया । कबीर का एक - एक दोहा अमर हो गया । उसके दोहे शास्त्रों की बडी - बडी बातों को बडी सहजता से हमें समझा देते हैं -
" बुरा जो देखन मैं चला बुरा न मिलया कोय ।
जो दिल खोजौं आपना मुझ सा बुरा न कोय ॥"
मानव के मन का अहंकार आध्यात्मिक सुख से वञ्चित कर देता है , परमात्मा से दूर कर देता है , इस बात को समझाने के लिए कबीर ने हमसे कहा -
" जब मैं था तब हरि नहीं अब हरि है मैं नाहिं ।
प्रेम - गली अति सॉकुरी जा में दो न समाहिं ॥"

"मसि कागद छुयो नहीं " कहने वाले उस कबीर ने अपने " बीजक" में ज्ञान - आलोक के एक नए आयाम को छुआ है जिसे देख - कर  बडे - बडे पण्डित भी आश्चर्य - चकित हो जाते हैं । हम दूसरी - कक्षा से कबीर को पढते हुए आ रहे हैं पर यह मन है कि उन्हें पढ - कर यह कभी नहीं अघाता -
" दुख में सुमिरन सब करे सुख में करे न कोय ।
जो सुख में सुमिरन करय तो दुख काहे - होय ?"
अकेले खाने से क्या नुकसान हो सकता है और बॉट - कर खाने से क्या लाभ हो सकता है , इसे कबीर ने बखूबी समझाया है -
" पानी - बाढय नाव में घर में बाढय - दाम ।
दोनों हाथ उलीचिए यह सज्जन को काम ।"
क्या स्टाइल है उनकी ! यदि सज्जन हो तो प्रमाणित करो अन्यथा समझ लो कि तुम क्या हो !

संतरा , रंगीन होता है पर हम उसे ' ना - रंगी ' कहते हैं , दूध को औंटा - कर जो सार बचता है , उसे हम ' खोया ' कहते हैं । ' गाडी ' अरबी का एक शब्द है , जिसका अर्थ होता है 'स्थिर ' पर हम जो चलती है , उसे गाडी कहते हैं , इन्हीं सब विसंगतियों को देख - कर कबीर रोता है -
" रंगी को नारंगी कहे असल चीज़ को खोया ।
चलती को गाडी कहय  देख - कबीरा रोया ॥"

वैसे तो छत्तीसगढी के प्रथम - कवि , कबीर - दास जी के शिष्य , धरम - दास माने जाते हैं , पर मेरे विचार से , छत्तीसगढी के पहले कवि कबीर ही हैं । अब आप ही बताइए और निर्णय कीजिए , इस दोहे को देखिए -
" मरने से यह जग डरा मेरो - मन आनन्द ।
कब मरिहौं कब भेंटिहौं पूरन - परमानन्द ॥"
कबीर ने परम्परा की तुलना में विवेक को महत्व दिया , इसलिए निश्चित रूप से वे बहुतों की ऑख की किरकिरी रहे होंगे पर वे किसी से डरे नहीं । उनके बारे में कहने का मन करता है - " न भूतो न भविष्यति ।" वे 'काशी' में रहते थे पर अपने अन्तिम - पडाव में वे काशी छोड - कर ,' मगहर' चले गए । ऐसी मान्यता है कि जो काशी में देह त्यागता है , वह सीधे , स्वर्ग - लोक जाता है और जो मगहर में मरता है वह नर्क में जाता है । कबीर ने 'मगहर' में देह त्याग - कर यह सिद्ध कर दिया कि - " मन चंगा तो कठौती में गंगा ।"