कैसे निर्मल हो अब गंगा नीयत बिखर - बिखर जाती है
गंगा मैया भाव की भूखी रो - रो कर सब समझाती है ।
गंगा में शव - दाह मत करो इससे मोक्ष नहीं मिलता है
मनुज कर्म से सद्गति पाता मन प्रसून तब ही खिलता है ।
अस्थि - विसर्जन से अब कैसे बचे हमारी गंगा - माई
खुद ही मैली हुई बेचारी कितनी बार हमें समझाई ।
रो - रो कर बेहाल है गंगा झर - झर उसके ऑसू - बहते
मेरा ऑचल उज्ज्वल कर दो रोती है यह कहते - कहते ।
अर्चन का विधान यह कैसा जिससे मैली हो गई गंगा
स्वयं - कठौती में आती है जब मानव का मन हो चंगा ।
जन चेतना से ही क्रांति होती है...स्वच्छ भारत और योग की तरह ही गंगा को बचाने की मुहिम छिड़नी चाहिए...यदि भारतवासी गंगा को स्वच्छ - निर्मल देखना चाहते हैं...शव-दाह और अस्थि विसर्जन को भी रोकना चाहिये...प्रेरक प्रस्तुति...
ReplyDeleteप्रेरक रचना..
ReplyDeleteअर्चन का विधान यह कैसा जिससे मैली हो गई गंगा
ReplyDeleteस्वयं - कठौती में आती है जब मानव का मन हो चंगा ।
..बिलकुल सच कहा है...लेकिन जब मानव का मन ही स्वच्छ नहीं है तो वह गंगा की स्वच्छता के बारे में क्या सोचेगा...बहुत सार्थक अभिव्यक्ति...