Tuesday, 23 June 2015

मन चंगा तो कठौती में गंगा



कैसे निर्मल हो अब गंगा नीयत बिखर - बिखर जाती है
गंगा  मैया  भाव की भूखी रो - रो कर सब समझाती  है ।

गंगा में शव - दाह मत करो इससे मोक्ष नहीं मिलता है
मनुज कर्म से सद्गति पाता मन प्रसून तब ही खिलता है ।

अस्थि - विसर्जन से अब कैसे बचे हमारी  गंगा -  माई
खुद  ही  मैली  हुई  बेचारी  कितनी  बार  हमें समझाई ।

रो - रो कर बेहाल है गंगा झर - झर उसके ऑसू - बहते
मेरा ऑचल उज्ज्वल कर दो रोती है यह कहते - कहते ।

अर्चन का विधान यह कैसा जिससे  मैली हो गई  गंगा
स्वयं - कठौती में आती है जब मानव का मन हो चंगा ।

3 comments:

  1. जन चेतना से ही क्रांति होती है...स्वच्छ भारत और योग की तरह ही गंगा को बचाने की मुहिम छिड़नी चाहिए...यदि भारतवासी गंगा को स्वच्छ - निर्मल देखना चाहते हैं...शव-दाह और अस्थि विसर्जन को भी रोकना चाहिये...प्रेरक प्रस्तुति...

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  2. प्रेरक रचना..

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  3. अर्चन का विधान यह कैसा जिससे मैली हो गई गंगा
    स्वयं - कठौती में आती है जब मानव का मन हो चंगा ।
    ..बिलकुल सच कहा है...लेकिन जब मानव का मन ही स्वच्छ नहीं है तो वह गंगा की स्वच्छता के बारे में क्या सोचेगा...बहुत सार्थक अभिव्यक्ति...

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