बादल गरज रहे हैं बिजली चमक रही है . इन्द्रदेव अपनी चतुरंगिणी सेना के साथ सज धज कर नभ जल का प्रसाद दे रहे हैं . नदियॉ तालाब खुश होकर लहरों के माध्यम से अपनी खुशी का इज़हार कर रहे हैं और गोंदा डर के मारे अपनी मॉ की छाती से चिपक कर पूछ रही है ' मॉ पानी बरसना कब बन्द होगा ? मुझे ज़ोर से भूख लग रही है मॉ कुछ खाने को दो न !' गोंदा बचपन से कानी है पर पता नहीं चलता है बिना बताए कोई नहीं जान सकता कि वह कानी है . मॉ ने उसे चार - पॉच तेन्दू दिए और कहा- ' ले बेटा! तू खा ले.' चार बरस की गोंदा खुश होकर तेन्दू खा रही थी कि अचानक बहुत तेज हवा आई और उनके तम्बू को उडा कर ले गई.चंदा अपनी बच्ची को पकड कर पीपल के पेड के नीचे खडी हो गई . उनके साथ बादल नाम का उनका कुत्ता भी था . छोटू- मोटू नाम के दो बन्दर भी थे . यही तो गोंदा के दोस्त हैं वह अपने दोस्तों के साथ खेलने लगी.
गोंदा के परिवार के साथ-साथ दस - बारह देवार- देवरनिन तम्बू तान कर कोसला गॉव के भॉठा में तीन दिनों से रह रहे थे. अभी जब सभी का तम्बू ऑधी में उड गया तो सबने आस-पास के पेडों के नीचे शरण ले ली है. इनकी आजीविका का प्रमुख साधन- गोदना, नाचना-गाना,सुअर और बन्दर पालना आदि हैं. देवार - जाति नट-नटी का करतब दिखा कर लोगों का मनोरंजन करते हैं और बदले में लोग इन्हें कुछ दे दिया करते हैं,इसी से इनका पेट भरता है.पुरखों से इनकी यह परम्परा चली आ रही है कि वे घर नहीं बनाते. वे चार - दीवारी के भीतर क़ैद होकर जीना पसन्द नहीं करते अपितु चलते- चलते जहॉ भी रात हुई वहीं अपना तम्बू - तानकर रात बिता लेते हैं पर गोंदा की मॉ चन्दा ने सोचा-'हमारा जो पुश्तैनी काम है वह मुझे रास नहीं आ रहा है. मैं अपनी बच्ची को पढाना चाहती हूँ उसे अच्छा नागरिक बनाना चाहती हूँ. मैं चाहती हूँ कि वह जहॉ भी रहे अपने देश का नाम उज्ज्वल करे,देश- धर्म सीखे.उसके बापू तो नहीं रहे अब मैं ही उसकी मॉ भी हूँ और बाप भी हूँ.' चन्दा अपने मन की बात कबीले के सभी सदस्यों को बताई तो कबीले के सरदार ने कहा- ' चन्दा बिल्कुल ठीक कह रही है. हम लोगों को अपनी ज़िद छोडनी होगी. परम्परा की तुलना में विवेक को महत्व देना होगा. इसी में हमारा और हमारे बच्चों की भलाई है.
देवारों का पूरा कुनबा देश की मुख्य-धारा से जुडने के लिए शहरों के आस-पास बस गया है. भगवान ने उन्हें मेहनत-क़श तो बनाया ही है उन्हें प्रतिभा का वरदान भी खूब दिया है.गोंदा अब स्कूल जाने लगी है,साथ -साथ वह भरत-नाट्यम् भी सीख रही है.उसके ऊपर ईश्वर की विशेष-कृपा है. नृत्य-कला की सभी खूबियॉ गोंदा को अनायास ही मिल गई हैं. उसकी ऑखें,उसका चेहरा उसके हाव-भाव को सजीव कर देता है.
हम सब काम करते-करते थक जाते हैं और थक -कर सो जाते हैं पर काल-चक्र कभी नहीं थकता,वह निरन्तर चलता रहता है. एक-एक दिन करते-करते कई-बरस बीत जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता. समूची परिस्थितियॉ बदल जाती हैं. गोंदा, खैरागढ संगीत विश्व- विद्यालय में पढती है. भरत-नाट्यम् में ग्रेज़ुएट हो चुकी है, इतना ही नहीं वह भरत-नाट्यम् में जानी-मानी हस्ती भी बन चुकी है. उसकी टीम में चौबीस-लडकियॉ हैं. सभी एक से एक हैं, प्रतिभाशालिनी हैं. उनकी संस्था का नाम है 'वन्दे-मातरम्.' महीनों पहले उनके कार्यक्रमों की बुकिंग हो जाती है. पिछले महीने फ्रॉस के पैरिस में उनका कार्यक्रम था. उन्हें शोहरत और दौलत इफरात मिल रही है.अभी चौदह अगस्त को दिल्ली में उनका कार्यक्रम है, जिसमें गोंदा,सिंह-वाहिनी, भारतमाता के रूप में प्रस्तुत हो रही है,उसके इस कार्यक्रम का नाम है-'वन्दे-मातरम्.'
गोंदा के परिवार के साथ-साथ दस - बारह देवार- देवरनिन तम्बू तान कर कोसला गॉव के भॉठा में तीन दिनों से रह रहे थे. अभी जब सभी का तम्बू ऑधी में उड गया तो सबने आस-पास के पेडों के नीचे शरण ले ली है. इनकी आजीविका का प्रमुख साधन- गोदना, नाचना-गाना,सुअर और बन्दर पालना आदि हैं. देवार - जाति नट-नटी का करतब दिखा कर लोगों का मनोरंजन करते हैं और बदले में लोग इन्हें कुछ दे दिया करते हैं,इसी से इनका पेट भरता है.पुरखों से इनकी यह परम्परा चली आ रही है कि वे घर नहीं बनाते. वे चार - दीवारी के भीतर क़ैद होकर जीना पसन्द नहीं करते अपितु चलते- चलते जहॉ भी रात हुई वहीं अपना तम्बू - तानकर रात बिता लेते हैं पर गोंदा की मॉ चन्दा ने सोचा-'हमारा जो पुश्तैनी काम है वह मुझे रास नहीं आ रहा है. मैं अपनी बच्ची को पढाना चाहती हूँ उसे अच्छा नागरिक बनाना चाहती हूँ. मैं चाहती हूँ कि वह जहॉ भी रहे अपने देश का नाम उज्ज्वल करे,देश- धर्म सीखे.उसके बापू तो नहीं रहे अब मैं ही उसकी मॉ भी हूँ और बाप भी हूँ.' चन्दा अपने मन की बात कबीले के सभी सदस्यों को बताई तो कबीले के सरदार ने कहा- ' चन्दा बिल्कुल ठीक कह रही है. हम लोगों को अपनी ज़िद छोडनी होगी. परम्परा की तुलना में विवेक को महत्व देना होगा. इसी में हमारा और हमारे बच्चों की भलाई है.
देवारों का पूरा कुनबा देश की मुख्य-धारा से जुडने के लिए शहरों के आस-पास बस गया है. भगवान ने उन्हें मेहनत-क़श तो बनाया ही है उन्हें प्रतिभा का वरदान भी खूब दिया है.गोंदा अब स्कूल जाने लगी है,साथ -साथ वह भरत-नाट्यम् भी सीख रही है.उसके ऊपर ईश्वर की विशेष-कृपा है. नृत्य-कला की सभी खूबियॉ गोंदा को अनायास ही मिल गई हैं. उसकी ऑखें,उसका चेहरा उसके हाव-भाव को सजीव कर देता है.
हम सब काम करते-करते थक जाते हैं और थक -कर सो जाते हैं पर काल-चक्र कभी नहीं थकता,वह निरन्तर चलता रहता है. एक-एक दिन करते-करते कई-बरस बीत जाते हैं और हमें पता भी नहीं चलता. समूची परिस्थितियॉ बदल जाती हैं. गोंदा, खैरागढ संगीत विश्व- विद्यालय में पढती है. भरत-नाट्यम् में ग्रेज़ुएट हो चुकी है, इतना ही नहीं वह भरत-नाट्यम् में जानी-मानी हस्ती भी बन चुकी है. उसकी टीम में चौबीस-लडकियॉ हैं. सभी एक से एक हैं, प्रतिभाशालिनी हैं. उनकी संस्था का नाम है 'वन्दे-मातरम्.' महीनों पहले उनके कार्यक्रमों की बुकिंग हो जाती है. पिछले महीने फ्रॉस के पैरिस में उनका कार्यक्रम था. उन्हें शोहरत और दौलत इफरात मिल रही है.अभी चौदह अगस्त को दिल्ली में उनका कार्यक्रम है, जिसमें गोंदा,सिंह-वाहिनी, भारतमाता के रूप में प्रस्तुत हो रही है,उसके इस कार्यक्रम का नाम है-'वन्दे-मातरम्.'
अगर आगे बढ़ने का ज़ज्बा हो तो कोई भी राह कठिन नहीं होती और मनचाही मंजिल मिल ही जाती है..बहुत प्रेरक प्रस्तुति...
ReplyDeleteअगर आगे बढ़ने का ज़ज्बा हो तो कोई भी राह कठिन नहीं होती और मनचाही मंजिल मिल ही जाती है..बहुत प्रेरक प्रस्तुति...
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