विविध रूप में वरुण - देव तुम वसुधा का हित करते हो
देकर निज अनुदान जगत को नभ - जल देते रहते हो ।
सर सरिता सागर सब के सब करते हैं वन्दना तुम्हारी
निर्झरणी भी मीठी धुन में करती है मनुहार तुम्हारी ।
पावस - घन दुन्दुभि बजाता करता है अभिषेक तुम्हारा
अवनि - श्रोत से निसृत होता अक्षय पावन रूप तुम्हारा ।
नर तन में अस्तित्व तुम्हारा व्यापक विविध विधा में है
सुख दुख प्रस्तुति में रूप तुम्हारा प्रकट नयन बानी में है ।
जहॉ अशेष शब्द होते हैं नयन - गिरा से तुम झरते हो
शेष भावनाओं को तुम ही छलक - छलक भाषा देते हो ।
नयन तुम्हारे माध्यम से जब कुछ कहने की चेष्टा करते
भाषा - बन्धन तोड शाश्वत भावों से सम्प्रेषित होते ।
विविध निम्न कर्मों से जब नर अपना दामन मैला करता
ऑखों का जल प्रायश्चित से दाग मनुज के धोया करता ।
कहता है यह कौन नयन - जल निर्बलता का है परिचायक
यह अद्भुत उपहार प्रकृति का शुभ-भावों का है प्रतिपालक ।
शस्य - श्यामला भूमि तुम्हीं से तुमसे है सन्तुलन धरा का
तुमसे भावों की उज्ज्वलता तुम ही तो हो स्नेह - शलाका ।
आओ वरुण - देव आ जाओ मेरे नयनों में नीड बना लो
अपनों ने तज दिया क्या करूँ तुम ही मुझको मीत बना लो ।
देकर निज अनुदान जगत को नभ - जल देते रहते हो ।
सर सरिता सागर सब के सब करते हैं वन्दना तुम्हारी
निर्झरणी भी मीठी धुन में करती है मनुहार तुम्हारी ।
पावस - घन दुन्दुभि बजाता करता है अभिषेक तुम्हारा
अवनि - श्रोत से निसृत होता अक्षय पावन रूप तुम्हारा ।
नर तन में अस्तित्व तुम्हारा व्यापक विविध विधा में है
सुख दुख प्रस्तुति में रूप तुम्हारा प्रकट नयन बानी में है ।
जहॉ अशेष शब्द होते हैं नयन - गिरा से तुम झरते हो
शेष भावनाओं को तुम ही छलक - छलक भाषा देते हो ।
नयन तुम्हारे माध्यम से जब कुछ कहने की चेष्टा करते
भाषा - बन्धन तोड शाश्वत भावों से सम्प्रेषित होते ।
विविध निम्न कर्मों से जब नर अपना दामन मैला करता
ऑखों का जल प्रायश्चित से दाग मनुज के धोया करता ।
कहता है यह कौन नयन - जल निर्बलता का है परिचायक
यह अद्भुत उपहार प्रकृति का शुभ-भावों का है प्रतिपालक ।
शस्य - श्यामला भूमि तुम्हीं से तुमसे है सन्तुलन धरा का
तुमसे भावों की उज्ज्वलता तुम ही तो हो स्नेह - शलाका ।
आओ वरुण - देव आ जाओ मेरे नयनों में नीड बना लो
अपनों ने तज दिया क्या करूँ तुम ही मुझको मीत बना लो ।
जहॉ अशेष शब्द होते हैं नयन - गिरा से तुम झरते हो
ReplyDeleteशेष भावनाओं को तुम ही छलक - छलक भाषा देते हो ।
बहुत सुंदर पंक्तियाँ ...
धन्यवाद , आभार
ReplyDeleteजय हो!
ReplyDeleteपकड़ वारि की धार झूलता रे मेरा मन -आज यहाँ भी वर्षा झब्बर झब्बर हुयी है -अच्छी कविता!
ReplyDeleteआपके भाव-प्रदेश में प्रवेश कर कृतार्थ हुआ!
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