Sunday, 31 May 2015

अन्तरराष्ट्रीय योग दिवस के पावन पर्व पर - योग

तन - मन , बुद्धि और आत्मा का परमात्मा से जुडना ही योग है । वस्तुतः योग जीवन - विद्या है । " सा विद्या या विमुक्तये ।" जो मनुष्य को बन्धन - मुक्त करे वही विद्या है । शिक्षा से हमें रोजगार मिल जाता है , धन - उपार्जन होता रहता है पर मनुष्य इससे बँधता है , मुक्त नहीं होता जबकि विद्या मनुष्य को मुक्त होना सिखाती है । आइये अब हम यह विचार करें कि मनुष्य के लिए  दुनियॉ में सबसे महत्वपूर्ण  क्या है ? उत्तर मिलता है - " निरोगी काया ।" यदि हम योग से जुड - जायें तो हमें बडी सरलता से निरोगी - काया मिल सकती है । योग के आठ - अंग हैं - 1- यम 2- नियम 3- आसन 4 - प्राणायाम 5 - प्रत्याहार 6 - धारणा 7 - ध्यान और 8 - समाधि ।

1 - यम - यम के अन्तर्गत - अहिंसा , सत्य , अस्तेय , ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह आते हैं । आइये हम सर्वप्रथम अहिंसा की चर्चा करते हैं । योग में अहिंसा का सर्वाधिक महत्व है । दया , क्षमा , उदारता , करुणा आदि , अहिंसा का ही सृजन - पक्ष है । दूसरे को दुख देकर , खुश होना , हिंसा की श्रेणी में आता है । यदि हम सुखी होना चाहते हैं तो हमें चाहिए कि हम सबको सुख देने का प्रयास करें , सबके प्रति शुभ - भावना रखें , यही अहिंसा का सूक्ष्म अर्थ है । श्रुतियों ने कहा है - " सत्यं वद ।" सत्य बोलो । " सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्  मा ब्रूयात् सत्यं अप्रियम् । प्रियं च नानृतम् ब्रूयात् एष धर्म सनातन ॥" सत्य बोलो प्रिय बोलो किन्तु अप्रिय सत्य मत बोलो । यही सनातन धर्म है ।अस्तेय का अर्थ है - चोरी न करना । चोरी मात्र - वस्तुओं की नहीं होती । किसी भी तरह किसी को ठगना ' चोरी' कहलाता है । हमें इससे बचना चाहिए क्योंकि इसी में हमारा कल्याण है । हम और आप सभी जानते हैं कि हम सबको कर्मानुसार ही फल मिलता है - "बोया पेड बबूल का तो आम कहॉ से होय ?" ब्रह्मचर्य का आशय है जो ब्रह्म जैसा आचरण करे , वही ब्रह्मचारी है । मेरे विचार से विवाह के साथ , ब्रह्मचर्य को जोडना सही नहीं है । कोई भी मनुष्य कभी भी ब्रह्म के साथ जुड सकता है , कहीं कोई व्यवधान नहीं है । कभी यह परम्परा रही होगी पर परम्परा की तुलना में विवेक को महत्व देना चाहिए ।अपरिग्रह = संग्रह मत करो । परिग्रह का अर्थ होता है संग्रह करना । अपनी आवश्यकता से अधिक कुछ भी संग्रह करना वर्जनीय है । यदि हमारे पास कुछ भी पर्याप्त - मात्रा में उपलब्ध है तो दान की परम्परा का निर्वाह होना चाहिए । यही हमारे लिए सुख - कर होगा ।

2 - नियम- श्रुतियों में पॉच - नियम बताए गए हैं 1 - शौच 2 - संतोष 3 - तप 4 - स्वाध्याय 5- ईश्वर प्रणिधान । शौच = स्वच्छता । परमात्मा के पश्चात् स्वच्छता को ही स्थान मिला है । प्रत्येक कार्य में स्वच्छता आवश्यक है । आज " शौचालय" की व्यवस्था हमारे लिए ,किस तरह सर्वोपरि हो गई है क्योंकि बिना स्वच्छता के , कोई भी सार्थक - काम हो ही नहीं सकता । हम तन - मन और मति से भी सदैव स्वच्छ रहें , हमें यही प्रयास करना चाहिए । चिन्तन में भी स्वच्छता आवश्यक है ,तभी समस्त कार्य सम्पन्न हो सकते हैं । संतोष का अर्थ हम सभी जानते जो कुछ हमारे पास है उसी में गुज़ारा करना संतोष कहलाता है - कबीर ने कहा है - "पानी बाढय नाव में घर में बाढय दाम । दोनों हाथ उलीचिए यह सज्जन को काम ॥" जब भी संतोष की चर्चा होती है मुझे सन्त रैदास की याद आती है । रैदास अपनी कुटिया में रहते थे और साधू - संतों की सेवा किया करते थे । एक दिन उनके पास एक साधू आया और उनकी गरीबी से द्रवित होकर , उनको 'पारस - पत्थर' दिया , रैदास उस समय जूता सिल रहे थे , उन्होंने कहा-  "कुटिया में कहीं रख दो ।" साधू ने रैदास को दिखाते हुए ' पारस पत्थर '  को कुटिया के ऊपर रख दिया और चले गए । कई बरस - बाद वे फिर रैदास के पास आए तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि रैदास अभी भी गरीब है । उन्होंने पूछा- " पारस - पत्थर कहॉ है ?" " मुझे नहीं मालूम आप जहॉ रख कर गए थे , वहीं होगा ।" रैदास ने कहा । साधू ने आश्चर्य से देखा - सचमुच वह पारस - पत्थर , जस का तस , वहीं रखा हुआ है । इसे कहते हैं सन्तोष । तप - जीवन में तपस्या आवश्यक है । कुम्हार जब मिट्टी का घडा बनाता है तो उसे आग में तपाता है तभी उस घडे में पानी रुकता है । बिना तपाए घडे में पानी भरने से , घडा फूट जाता है । नवजात बच्चे को षोडश - संस्कारों में से , अनेक संस्कारों से होकर गुज़रना पडता है , जिसमें एक संस्कार का नाम है - " विद्यारम्भ - संस्कार ।" स्वर्ण को तपा - कर ,शुद्ध किया जाता है । घर चलाने के लिए , नर - नारी दोनों को तपस्या करनी पडती है तब कहीं जाकर , जीवन में सफलता मिलती है ।

स्वाध्याय - गायत्री - परिवार में यह आदर्श - कथन बहुत लोक - प्रिय है - " भजन नहीं भोजन नहीं स्वाध्याय नहीं शयन नहीं " और वे इसे निभाते भी हैंं ।जब मैं शान्ति - कुञ्ज - हरिद्वार जाती हूँ तो वेद - विभाग में बैठ कर , घन्टों दुर्लभ पुस्तकों को पढती रहती हूँ । साधारणी - करण से बहुत मज़ा भी आता है और यही स्वाध्याय का दुर्लभ फल है । ईश्वर करे इस फल से कोई वञ्चित न रहे । स्वाध्याय का फल सबको मिले ।
ईश्वर - प्रणिधान - धरा - गगन ,प्रकृति , वनस्पति , पञ्च - भूत यह सब परमात्मा द्वारा प्रदत्त है , यही मानकर हमें अपनी आवश्यकतानुसार ही इसका उपयोग करना चाहिए । हमें सबके सुख की कामना करनी चाहिए क्योंकि सबके सुख में मेरा भी सुख है । सृष्टि का सबसे बडा न्यायाधीश , परमात्मा ही है । हमें उस पर भरोसा होना चाहिए क्योंकि वह सबको , उसके कर्म के अनुसार ही सुख और दुख देता है ।

3 - आसन - विविध तरह के अनेक आसन होते है पर आसन का राजा है - सूर्य - नमस्कार । सूर्य - नमस्कार में सूर्य के चौबीस नामों के साथ चौबीस- तरह के आसन किए जाते हैं और साथ - साथ 1-ॐ सूर्याय नमः 2 - ॐ भास्कराय नमः 3 - ॐ आदित्याय नमः 4 - ॐ भानवे नमः 5 - ॐ रवये नमः इस प्रकार सूर्य के चौबीस नामों का उल्लेख भी किया जाता है । यदि हम प्रतिदिन मात्र - दस आसन ही कर लें तो भी हम उम्र - भर , स्वस्थ रह सकते हैं । मैं 1971 से प्रतिदिन आसन कर रही हूँ । पहले बहुत देर तक बहुत आसन किया करती थी । आज -  कल मात्र दस आसन करती हूँ - 1 - वज्रासन 2- पद्मासन 3- मकरासन 4- शशकासन 5-गोमुखासन 6 - योगमुद्रा 7- सुप्त - वज्रासन 8 - मार्जारि- आसन 9- नौकासन और 10- हलासन । वैसे तो एक आसन एक मिनट में हो जाता है पर जब हमें मज़ा आने लगता है तो हम स्वयं ही ज़्यादा समय देने लगते हैं । योग में आकर्षण है और यही इसकी सबसे बडी विशेषता है ।

4 - प्राणायाम - स्वस्थ तन एवम्  स्वस्थ मन के लिए प्राणायाम अत्यन्त आवश्यक है । सोचिए - इस शरीर की बनावट ऐसी है कि बाहर में त्वचा है , ज्ञानेन्द्रिय हैं , कर्मेन्द्रिय हैं पर शरीर के जो अन्य बहुत महत्वपूर्ण - अंग हैं वे देह के भीतर छिपे हुए हैं और सबसे अधिक प्राण - वायु की ज़रूरत उन्हीं को है जो प्राणायाम के माध्यम से हम उन्हें स्वस्थ और मजबूत बनाते हैं । आपको यह जान कर सुखद आश्चर्य होगा कि प्राणायाम के प्रयोग से जो दुर्बल  है वह स्वस्थ हो जाता है और जो मोटापे से परेशान है वह छरहरा हो जाता है । आसन की अपेक्षा प्राणायाम करने से शरीर सुन्दर भी दिखता है और स्वस्थ भी हो जाता है । प्राणायाम के अनेक प्रकार हैं पर पॉच तरह के प्राणायाम अत्यन्त लोक - प्रिय हैं - 1- भस्त्रिका 2 - कपालभाति 3- अनुलोम - विलोम 4 - उज्जायी और 5 - भ्रामरी । प्रत्येक प्राणायाम को कम से कम पॉच - पॉच मिनट , प्रतिदिन करना चाहिए । अभूत - पूर्व लाभ होता है । मैं अपने अनुभव से कह रही हूँ ।

5- प्रत्याहार - जीवन - समर में प्रत्याहार बहुत आवश्यक है , जो हमारे अनुकूल नहीं है उसका प्रतिकार आवश्यक है । हमारे मन में प्रति - क्षण देवासुर - संग्राम होता रहता है । मन देवत्व को ग्रहण करे यही उद्देश्य होता है , इसके लिए जो आवश्यक पुरुषार्थ होता है वही प्रत्याहार है । प्रेय को त्याग - कर श्रेय की ओर बढना प्रत्याहार है । पानी ढाल की ओर बहता है पर जब हम खेतों की सिंचाई करते हैं तो उसे बल - पूर्वक ऊँचा - उठा कर खेत में पहुँचाते हैं , तभी फसल अच्छी हो सकती है अन्यथा पानी बहता रहेगा और फसल सूखती रहेगी ।

6 - धारणा - प्रत्येक मनुष्य की अपनी अलग - अलग धारणायें होती हैं जो मन - मस्तिष्क में स्थापित हो जाती हैं । ज्ञान के आलोक से यह धारणा बदलती रहती है । अज्ञान - तमस का भी इस पर विपरीत प्रभाव पडता है । यम ,नियम , आसन , प्राणायाम और प्रत्याहार यह पॉच बहिरंग है । इन्हें सिद्ध करने के लिए अभ्यास की ज़रूरत होती है जबकि धारणा ,ध्यान और समाधि को साधने के लिए , वैराग्य की आवश्यकता होती है ।

7 - ध्यान - "ध्यानहेयास्तद्वृत्तयः ॥11॥" ज्यों - ज्यों मनुष्य का अभ्यास बढता जाता है , मन निर्मल होता जाता है , मन में जो क्लेश का बीज अभी भी विद्यमान है , वह ध्यान के द्वारा ही नष्ट हो सकता है । जब तक यह बीज जल कर नष्ट न हो जाए , ध्यान करते रहना चाहिए । यदि हमने ऐसा नहीं किया तो वह बार - बार नया - अंकुर बन कर ,विशाल - वृक्ष बन जाएगा और निरन्तर कष्ट देता रहेगा । वस्तुतः ध्यान किया नहीं जाता वह होता है।

8 - समाधि - श्रुति के अनुसार - मानव - जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि समाधि ही है । यह दो प्रकार की होती है - 1 - सविकल्प - समाधि जिसे सबीज समाधि भी कहते हैं । 2 - निर्विकल्प - समाधि जिसे निर्बीज - समाधि भी कहते हैं - " ता एव सबीजः समाधिः ॥46 ॥ सबीज - समाधि सविचार और निर्विचार बीज - सहित होती है । "तस्यापि निरोधे सर्वनिरोधान्निर्बीजः समाधिः ॥51॥ ऋतम्भरा प्रज्ञा वाले संस्कार भी जब मिट जाते हैं तो निर्बीज समाधि होती है । मानव की सर्वोत्तम - उपलब्धि यही है ।                 

Tuesday, 19 May 2015

हिन्दुस्तान बहुत सुन्दर है

हिन्दुस्तान  - बहुत - सुन्दर  है  पर  सुन्दर  है  हैदराबाद
हैदराबाद  में  घूम  रही  थी  एक - घटना  मुझको है याद ।

मुझको मोती खरीदना था थी चारमीनार के पास दुकान
मोती - पिरो  रही  थी लडकी  पर देख - रही थी मैं हैरान ।

उसके  दोनों - हाथ  नहीं  थे पॉवों से वह करती थी काम
जल्दी - जल्दी पिरो रही थी निपटाती थी काम - तमाम ।

कई - मोतियों  की  मालायें  मैंने -  मन  से मोल - लिया
भाव  नहीं  कम - करवाए  थे सबका वाज़िब दाम - दिया ।

मन था एक - बार  लडकी  से  बात  करूँ मैं अपने - आप
पर परेशान न कर दे मालिक़  इस डर से लौटी - चुपचाप ।

छोटी सी चोट से हम - चिल्लाते लेते  नहीं  धैर्य से काम
कुछ  भी  काम  नहीं कर पाते करते हैं दिन - भर आराम ।

पर  बिना - हाथ  की होकर भी वह पैरों से करती है काम
जिजीविषा  उसकी  प्रणम्य  है  करती  हूँ  मैं उसे प्रणाम ।

हम सबका दायित्व यही  है  हम - सब इनके काम आयें
सुख - साधन उन तक पहुँचायें उनसे जुडकर हाथ बँटायें ।

मन में हाहाकार मचा है जब से उससे मिल - कर आई हूँ
सम्  - भाषण भी हुआ नहीं है मैं बहुत - बहुत पछताई हूँ ।


Friday, 15 May 2015

अमर रहे यह हिन्दुस्तान

अरुणाचल में  एक  लडकी है पर वह देख नहीं सकती है
पर उसको सुर मिला  है सुन्दर  वह हरदम गाती रहती है ।

बारह - बरस की है वह लडकी नाम मिला है उसको माया
मन में गीत स्वयं  रचती  है मधुर - विरासत उसने पाया ।

माया की मॉ सुन्दर - गाती है उसको मिला वही - उपहार
अरुणाचल में  सब कुछ अच्छा है मगर -पडोसी है बेकार ।

आए - दिन  दुन्दुभि - बजाते  वे  भारत  में  घुस आते  है
सौ -बार दिखाया सरहद उनको पर वे समझ नहीं पाते हैं ।

पन्द्रह - अगस्त के मौके पर अरुणाचल जश्न  मनाता  है
यदि प्रधान अरुणाचल जाता तो दुखी पडोसी हो जाता है ।

इस अवसर पर माया को भी कहनी  है  कुछ मन की बात
सुर  में पिरो - दिया  शब्दों  को ' बोलो कितनी है औकात ।'

घुसे - चले आते  हो  हरदम  यह  कैसी  है  रण  की  नीत
हम तो  कभी नहीं घुसते हैं हमने तो सदा  निभाई - प्रीत ।

दुनियॉ - भर में पटा - हुआ है बस  तेरे  ही  घर  का  माल
फिर  भी  कैसी  दरिद्रता  है  सबसे बडा  है  यही - सवाल ।

हम - उद्यम करते  हैं घर में  नहीं  झॉकते किसी का  घर
तुम  भी अपनी - सीमा  में ही सदा सिमट कर रहो मगर ।

रक्त - पात  हम  नहीं  चाहते मगर नहीं हैं हम - क़मज़ोर
सज्जनता और  कायरता  में अन्तर  होता  है  पर - घोर ।

यह वसुधा कुटुम्ब है मेरा ऋषि - मुनियों की हम संतान
इम्तिहान न  लो  धीरज  का जाग - गया  है हिन्दुस्तान ।'

यह उद् बोधन  गीत अद्भुत था मंत्र मुग्ध सुन रहे थे लोग
करतल ध्वनि तब गूँज उठी है यह है माया का सुर- योग ।

मन्त्री  जी  थे  वहॉ उपस्थित  मिला  है माया को उपहार
पॉच - लाख  का  चेक  मिला  है यह है माया पर उपकार ।

माया को अब पंख - लग गए बढा है खुद पर  ही विश्वास
'मैं अब कुछ भी कर सकती  हूँ मैं भी बन सकती हूँ खास ।'

देश - प्रेम  बस  गया है  मन में ऐसा है मेरा देश - महान
सब कुछ इसके लिए समर्पित अमर रहे यह हिन्दुस्तान ।

 

Sunday, 10 May 2015

मातृ - दिवस के पावन पर्व पर - मॉ

" मॉ तुम अंधेरे में क्यों खा रही हो ? " चार बरस की सपना ने अपनी मॉ से पूछा ।
" ऐसे ही बेटा ! कोई खास बात नहीं है । जाओ तुम अपनी छोटी - बहन के साथ खेलो ।" सपना दौड -  कर अपनी छोटी - बहन भावना के पास चली गई । सपना के पापा एक ऑफिस में चपरासी हैं । उनकी तनख्वाह बहुत  कम है । आए दिन वे अपनी पत्नी को डॉटते रहते हैं कि - " दो - दो बेटियों को मैं पता नहीं कैसे पालूँगा ?"   इसी गम में उन्होंने पीना भी शुरु कर दिया है । देर - रात में चिल्लाते हुए घर आते हैं और फिर बेचारी पत्नी को वही उलाहना - " अपनी बेटियों को लेकर तुम कहीं चली जाओ । मुझे चैन से जीने दो । तुम लोगों को खिलाते - खिलाते मैं थक गया हूँ । अब और नहीं खिला सकता । तुरन्त निकल जाओ मेरे घर से । मुझे माफ करो , मेरा पीछा छोडो ।" कविता चुपचाप सुनती पर उफ नहीं करती । मॉ - बाप , भगवान को प्यारे हो गए हैं । एक छोटा - भाई है जो नौकरी की तलाश में दर - दर की ठोकरें खा रहा है । वह कहॉ जाए ? क्या करे ?

हम सब काम करते - करते थक - जाते हैं और थक - कर सो जाते हैं पर काल- चक्र कभी नहीं रुकता , वह निरन्तर चलता रहता है । एक - एक दिन कर - करके न जानें कितनी बरसात बीत चुकी है । सपना अब कॉलेज में पढती है । राकेश ने दूर शहर में अपना तबादला करवा लिया है । कई बरस हो गए , वह यहॉ नहीं आया है और न - ही कभी पैसे भेजता है । सपना की मॉ कविता डाक्टर मैम के यहॉ सुबह से शाम तक काम करती है । वह पास के दो घरों में बर्तन धोती है और झाडू - पोछा करती है , इस तरह कविता का घर चलता है । उसकी दोनों बेटियॉ पढने में होशियार हैं । सपना इन्जीनियरिंग कर रही है और भावना का रुझान अभी भरत - नाट्यम् की ओर है । वह संगीत और भरत - नाट्यम् सीख रही है । वह खैरागढ विश्वविद्यालय में पढाई कर रही है । बारहवीं के बाद दोनों बच्चे अपने स्कॉलर - शिप से ग्रेजुएशन कर रही हैं । अभी दीवाली की छुट्टी में दोनों बहन मॉ के पास आई हुई हैं । मॉ , आज - कल बच्चों के पसन्द की चीजें रोज - रोज बनाती है और उनको जी भर - कर खिलाती है ।

रात के नौ बजे है । बच्चे अपनी पढाई कर रहे थे । अचानक भावना मॉ के पास गई और अंधेरा देख - कर वापस लौट आई । उसने अपनी दीदी से पूछा - " दीदी ! मॉ कहॉ है ? " दोनों ने जोर - जोर से आवाज दी - " मॉ - मॉ तुम कहॉ हो ? "
"मैं यहीं हूँ बेटा ! मैं खाना - खा रही हूँ ।"
" अच्छा रहने दे - रहने दे भावना , मॉ को अंधेरे में खाने की आदत है " सपना ने कहा ।
"नहीं दीदी ! " कहते हुए भावना ने लाइट जला दी ।
दोनों लडकियों के पैरों - तले जमीन खिसक गई । उन्होंने देखा - मॉ की प्लेट में सूखा - चावल था जिसे वह हरी मिर्ची और नमक के साथ खा रही थी ।       

Wednesday, 6 May 2015

तुम भी मेहनत करके देखो

सरगुजा में एक - संगवारी है पर उसके नही हैं दोनों हाथ
वैसे  तो  हम  दूर - दूर  हैं पर मन से रहते हैं साथ - साथ ।

वह भट - गॉव में रहती  है और टुकनी - रोज - बनाती  है
दोनों - पॉवों को हाथ बना - कर  मेहनत  करके  खाती है ।

उस - लडकी का नाम है लाजो अम्मा के साथ में रहती है
मॉ - बेटी मेहनत - करती  हैं जीवन की गाडी - चलती  है ।

आज तो लाजो सोच - रही  है टुकनी को देना है - आकार
सजा - धजा  कर  पेश - करेगी  तब  ही  होगा बेडा - पार ।

सूपा - डलिया सभी - बनाया चटक - रंग से उसे सजाया
हाथों - हाथ बिका था सब  कुछ लाजो का मन भर आया ।

रात के  पीछे  दिन - आता है दिन के पीछे - आती है रात
एक - एक दिन करते - करते बीत - गई कितनी बरसात ।

लाजो की फैक्ट्री है सुन्दर चलता - रहता दिन भर -काम
माल धडाधड बिक - जाता है  फैक्ट्री  लेती नहीं - विराम ।

ललित - नाम का एक  लडका है वह फैक्ट्री में मैनेजर है
लाजो उसके  मन  में  बसती  बात अभी  बस  मन  में है ।

ललित आज लाजो से मिलने एक गुलाब -लेकर आया है
लाल - रंग  का  वह  गुलाब  है लाजो  का  मन  हर्षाया है ।

रास - बरग मिल गया है उनका बस  होने  वाली है शादी
सम्हर - पखर  कर  रहते दोनों गहना लेकर आई - दादी ।

लाजो  ने  मेहनत  से पाया जीवन में एक नया - मुक़ाम
तुम भी मेहनत करके देखो दोनों मिलता है माया - राम ।

Tuesday, 5 May 2015

मेहनत का फल मीठा होता

घर - भर में सन्नाटा - छाया कानी - खोरी- छोरी जन्मी है
मॉ  की  छाती - पर  पत्थर है उसके मुँह में जमा - दही है ।

ढेली उसका - नाम  पड - गया  पहली - कक्षा  में आई  है
वैद -  विदुषी  है  उसकी  मॉ अपनी - मॉ  की  परछाईं  है ।

मोती - जैसे सुन्दर - अक्षर  हैं  वह पढने में  होशियार  है 
मन में पीडा अनुभव - करती कडुवे सच पर वह सवार है ।

दृष्टि - कोण है निरा - निराला वह स्वभाव से ही खोजी है
कौतूहल  है  मन  में  इतना  वह अद्वितीय  है  जो  भी  है ।

रात  के  पीछे  दिन आता  है  दिन  के पीछे आती है रात
एक - एक  दिन करते - करते  बीत गई कितनी बरसात ।

ढेली अब - कॉलेज़ में पढती है बायो की वह - विद्यार्थी है
कुछ कुछ नया खोजती रहती अन्वेषण की अभिलाषी है ।

मॉ के संग  संग लगी है ढेली वह औषधि-शोधन करती है
बरसों से वह लगी हुई है कुछ - प्रयोग करती - रहती है ।

एक - अनार के पौधे - पर वह डाल - रही है औषधि - एक
जिससे - पौधा थोडे - दिन में देगा - बडे - अनार - अनेक ।