Wednesday, 17 July 2013

यजुर्वेद

                                    


 जो नर यज्ञ - हवन  करते हैं  इह - पर  में वे  सुख  पाते हैं 
पर  उपकार  में  रत  रहते हैं  श्रेष्ठ  कर्म  से  यश   पाते  हैं ।

धर्म  मार्ग  ईश्वर  ने दिखाया  सत्य न्याय से युक्त  वही है
वह ही शुभचिंतक है सबका पुरुषार्थ मात्र का श्रोत वही है ।

जैसा  कर्म  जीव  करता  है   वैसा  ही  प्रतिफल  पाता  है
दुष्ट कर्म का प्रतिफल दुख है मनुज  इसी से दुख पाता है ।

ईश्वर का आदेश  यही  है  दुष्ट  बुध्दि  का त्याग  हम करें 
प्रेरित हो कर  फिर  सत्पथ पर  हर  मानव  का दुख हरें ।

वेद -  ज्ञान के  द्वारा मानव  श्रेष्ठ  मार्ग  का  बने  सृजेता
सत्कर्मों  के माध्यम  से वह शत्रु  जीत कर बने विजेता ।

सृष्टि ब्रह्म की अद्भुत अनुपम सूर्य जगत को करे प्रकाशित
वसुधा  होती  पुष्ट  वायु  से  यह  धरती  हमसे  हो रक्षित ।

नर पाए आरोग्य यज्ञ से व्याधि  नाश हो यश - विस्तार
पूर्ण आयु ले जिए धरा पर सुख - समृध्दि सतत हो सार ।

दुष्ट- बुध्दि  नर  पीडा  पाते  निम्न  योनियों  में जाते  हैं
सत्य धर्म के पथिक संत ही कष्ट - क्लेश से बच पाते हैं ।

मात- पिता षड् - ऋतु सम  होते  देते  हैं  उत्तम  उपदेश
उन्हें नित्य संतुष्ट  रखें  हम  पायें  सदा  सुखद  सन्देश ।

बाल्य- काल में मात- पिता ज्यों संतति को देते आकार
उन्हें सदा ही हम कृतज्ञ बन गरिमा- मय देवें  व्यवहार ।

पर- हित चिन्तन होता जिसका विद्यावान वही  होता है
नभ शुचि होता यज्ञ धूम से आरोग्य तभी पावस देता है ।

राजपुरुष का यज्ञ न्याय है जन- हित हो राजा का ध्येय
धर्म अर्थ और काम  मोक्ष हो हर मानव का चिंतन श्रेय ।

ईश्वर का आदेश  यही है सिंहासन  उत्तम जन को  सौंपो 
सुख से भर दो वसुन्धरा को क्षुद्र-पुरुष को कभी न सौंपो ।

आज्ञा यह भी  है ईश्वर  की उत्तम  हो  व्यक्तित्व  तुम्हारा
जड्ता कभी न हो तन- मन में जग पूरा  परिवार हमारा ।

विद्याओं  में जो  पारंगत  हो  राजतंत्र  का  हो  अधिकारी
सतजन की  रक्षा  करता  हो  दुर्जन  हेतु  विपद हो भारी ।

ब्रह्मचर्य  है  पहला  आश्रम  उत्तम  विद्या  ग्रहण  करे  नर 
द्वितीय गृहस्थाश्रम में सञ्चय तृतीय आश्रम धर्मम् चर ।

चतुर्थ आश्रम संन्यासी  का  बन संन्यासी  धर्म  धरे नर
वेद - गिरा का  करे  प्रकाश  तम मेटे आलोक  प्रभा  धर ।

सुख वैभव यदि नर चाहे तो निज स्वभाव  स्तर अनुरुप
 निज इच्छा से विवाह कर ले  मोद मनाये निजस्वरुप ।

ज्यों पश्चिम जा कर विद्वद्जन करें वस्तुओं का सन्धान
नर - नारी  उत्तम सन्तति से  श्रेष्ठ  गुणों के बनें निधान ।

दो  ही तीर्थ  धरा  पर  पावन गुरु  सेवा  विद्या  अद्वितीय
उदधि - पार  आने  जाने में हों समर्थ जो तीर्थ - द्वितीय ।

सत्य न्याय चहुँ हो आलोकित न्यायासन पर सज्जन हों
दुष्टों  को  जो दण्ड  दे सकें  सिंहासन  पर  पावन  नर हों ।

सेना - नायक  वही  बने  जो  धर्म  मार्ग का अनुयायी हो
दया-रहित हो दुष्टों के प्रति सज्जन का वह अनुगामी हो ।

जैसे  सेनापति  सेना  को  सूर्य   मेघ  को  वर्धित  करता
वैसे  ही  गुरु सदाचरण  से  प्राणिमात्र  की  सेवा  करता ।

सभी  लोक  ज्यों  सूर्य  लोक  से  उत्तम  आश्रय  पाते   हैं
श्रेष्ठ  पुरुष वैसा ही आश्रय  निज आश्रित को  दे  जाते हैं ।

मात पिता निज संतति  की ज्यों रक्षा  करते प्रेरित करते
अध्यापक  भी  निज  शिष्यों को विद्या से संवर्धित करते ।

औषधियों  से होम  जो करता  जग को  सुरभित करता है
सर्वाधिक शुभचिंतक है जग का महादान वह ही करता है ।

गो- धन  की  जो  सेवा  करता अति परोपकारी है वह नर
जो  भी  भावुक  पशुपालक  है वास करे सुख वैभव के घर ।

व्यथित कभी भी आत्मा न हो नितप्रति इसका ध्यान रखें
वज्रपात न  करें किसी पर बन  कर कृतज्ञ निज को परखें ।

वेद - वाङमय  जो  कहते  हैं  हम  करें  उसी  का  अनुष्ठान 
संतति को  मॉं सँस्कारित करती  वैसे ही सबको देवें ज्ञान ।

पथ- औषधि का सेवन करके करें प्रकाशित  निज जीवन
विद्वद् जन की सेवा  करके सेवा भावी बन जाए तन - मन ।

बढ  जाता   है  मान   मान  से  सदा   दूसरों  को  दें   मान
मान - महत्ता  के ज्ञाता  को  शीर्ष  सदृश  अति उत्तम मान ।

आत्मा  तन  से  जब  जाती  है  वही  भाव  नित मन में हो
शव  के  जल  जाने  पर  कोई  संस्कार  कभी  न उसका हो ।

परमेश्वर  है  एक  सदा  से  उपासना हो  उसी  की प्रतिदिन
कर्म नहीं निष्फल होता है रहें धर्म में रत छिन- पल- छिन ।

ऋग्वेद  सदृश  हो  उत्तम वाणी यजुर्वेद सम उज्ज्वल  मन
हो सामवेद सम प्राञ्जल  प्राण अथर्ववेद  सम हो यह तन ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ. ग. ]








3 comments:

  1. पर- हित चिन्तन होता जिसका विद्यावान वही होता है
    नभ शुचि होता यज्ञ धूम से आरोग्य तभी पावस देता है ।

    वेद की इन सुंदर शिक्षाओं को पढवाने के लिए आभार!

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  2. वाह, पहली बार वेदों को काव्यानुवाद पढ़ा, बहुत अच्छा लगा।

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  3. व्यथित कभी भी आत्मा न हो नितप्रति इसका ध्यान रखें
    वज्रपात न करें किसी पर बन कर कृतज्ञ निज को परखें ।

    अद्भुत और उत्तम संग्रहनीय पद प्रणाम इस उत्तम कार्य हेतु

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