Wednesday, 31 July 2013

अथर्ववेद


पुरुषार्थी  क्लेश  नहीं  पाता  है गुरु शिक्षा से वर्धित होता
यश पाता जगती में वह ही ज्ञान मार्ग से विकसित होता ।

जो नर निज को परमात्मा के पथ पर रखते सदा सतत
चहुँ - दिशि वही प्रगति पाते  हैं उद्यम  में नित  रहते रत ।

सप्रयास सदगुण संग जीकर तम गुण का परित्याग करें
निन्दित कर्मों से पृथक रहें हम यश पाकर भी धीर - धरें ।

सन्जीवन  है  वेद - ज्ञान यह सबको  देता  शुभ - भोग यही
दुःख के पीछे तो  सुख  आता है चार - बलों  का  मार्ग  यही ।

इन्द्रिय निग्रह यदि हम कर लें जीवन बन जाए अजर अमर
जन - मन दुर्गम जिसे मानता सत जन पाते हैं सुख सत्वर ।

सूर्य - चन्द्र साक्षात् देव  हैं वे दुनियाँ  को  नीति  सिखाते  हैं
नेम - नियम  अति आवश्यक है यह  सीख  हमें  दे जाते  हैं ।

करें सात्विक भोजन निश दिन रखें स्वस्थ निज तन व मन
सात्विकता से ही तो  बढ़ती है मानव की प्रज्ञा और चिन्तन ।

जड़ - चेतन से सत लेकर नित करें सदा निज का  कल्याण
अति  समर्थ  है  प्रकृति  सम्पदा  सदा  बढायें  उसका  मान ।

हरी - भरी इन वनस्पति से उत्तम औषधि निर्माण हम करें
व्याधि - शमन  हो जाये  जन  का परोपकार  से  क्लेश  हरें ।

उद्भव - पालक - प्रलय का कर्ता  वही  परम है  वही  महान
ऋषि - गण ध्यान करें उनका  ही सूर्य चन्द्र देते व्याख्यान ।

उस विराट की विविध-विधा का ऋषि जानें हैं करके ध्यान
उसी ब्रह्म  की महिमा का नित दिवा - रात्रि कहते आख्यान ।

सृष्टि और तन के अवयव का बहुत निकट का यह  नाता है
वही  परम  है  सर्व  नियन्ता  वह  परमपिता  कहलाता  है  ।

ईश्वर - प्रणीत जो सत्य नियम है माननीय है , है सर्वोत्तम
पद - प्रधान हम पा सकते हैं  संतति  यदि बन जायें उत्तम  ।

कर्म - प्रधान सृष्टि  यह  अनुपम  उसी  परम का है वरदान
कण - कण में वह ही  रमता है  उसी ब्रह्म का धर लें ध्यान ।

जल प्राणी को शुचि करता है पावन -पथ पर उन्मुख करता
वेद ब्रह्म बहि अभ्यन्तर को प्रक्षालित कर आलोकित करता ।

धरा  गगन यह परम हेतु है अतिशय लघु अतिशय है शुध्द
ऊष्मा देता  सूर्य  सभी को आनन्दित नर  हो जाते  हैं बुध्द ।

श्वास ग्रहण कर  मानव  पाता  भोजन  की  भी शक्ति पुनीत
परमेश्वर  का  आज्ञाकारी जित -  इन्द्रिय  गाता  चल  गीत ।

उद्योगी- योगी- ज्ञानी - नर ही प्रगति - शिखर को छू पाते हैं
गत -आगत का नीति नियम यह सिध्द पुरुष वैभव पाते हैं ।

सत - जन  की जो करे  उपेक्षा  करें  शीघ्र  उनका  प्रतिकार
गुरु से समुचित- शिक्षा- पाकर बाँटें  सविनय विद्या साभार ।

विपरीत क्षणों  में शांत  रखें मन वेद- मार्ग को ही अपनायें
बाधाएँ तो आती - जाती हैं अति - शुचि वेद ऋचा को गायें ।

धर्माचरण  पुनीत  कर्म  है  शौर्य -  शक्ति  है  वर्द्धित  होती
ब्रह्मचर्य तप सिखलाता है जितेन्द्रिय ही  पा सकता मोती ।

परि -आवरण शुध्द होता है नभ-मण्डल  होता है शुचितर
यज्ञ - धूम की महिमा अद्भुत पुण्य - लाभ होता है द्रुततर ।

परमात्मा के नियम से चलें सत्कर्म सतत कर सुखी रहें
धर्म -पुरुष नित निर्भय रह कर शोक -व्याधि से दूर रहें  ।

शांति  और  वैभव  पाता  है  नर  बाधाओं   से   हो  पार
कठिनाई पथ की  सीढ़ी  है  हेतु  प्रगति का यही  है सार ।

द्विज निज तृषा शांत करते हैं करके सर सरिता में स्नान
ज्ञानी वेद - पुरुष के गुण  को गाकर करें अहर्निश ध्यान ।

रवि की सप्त रश्मियाँ ओजस तिमिर मिटायें जहाँ-जहाँ हो
विद्वत - जन नित विद्या बाँटें वेद - ज्ञान आलोक यहाँ हो ।

भू - पर वेद - ज्ञान से पूरित रहें सूर्य सम नित आलोकित
चतुर्शक्तियाँ  वर्द्धित होतीँ प्रसन्न चित्त हम रहें प्रतिष्ठित ।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई [ छ . ग . ] 









  

2 comments:

  1. उद्भव - पालक - प्रलय का कर्ता वही परम है वही महान
    ऋषि - गण ध्यान करें उनका ही सूर्य चन्द्र देते व्याख्यान ।

    पावन वचन !

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