Wednesday, 11 September 2013

विनोबा भावे

आज विनोबा जी का जन्म -दिवस है। ११ सितम्बर १८९५ को " गागोदे " नामक गाँव में उनका जन्म हुआ जो महाराष्ट्र में ,कर्नाटक की सीमा से लगा हुआ है। १५ अगस्त १९८२ में ,मैं पवनार आश्रम गई थी। यह आश्रम वर्धा के पास 'धाम ' नदी के तट पर स्थित है। "पवनार " पव अर्थात् पाओ नार का अर्थ है 'लता। ' अभिप्राय यह कि आवश्यकता की समस्त वस्तुयें तरु -लताओं से ही प्राप्त करो। अपने आश्रम के लिए विनोवा जी कोई भी वस्तु बाहर से नहीं खरीदते थे। उपयोग की सभी वस्तुयें आश्रम में ही उत्पन्न की जाती थीं और संन्यासी -गण उन वस्तुओं से अपने उपयोग की वस्तुयें स्वत: बना लेते थे। उन्हें केवल नमक खरीदना पड़ता था क्योंकि पवनार आश्रम समुद्र -तट पर नहीं था। 'पवनार' आश्रम वस्तुत: महिलाओं का आश्रम है। देश की सामाजिक और राजनीतिक स्थिति जब सर्वथा प्रतिकूल थी ,उस समय हमारी माँ की उम्र की स्त्रियाँ ,ब्रह्मचर्य धारण कर ,संन्यासी की तरह आश्रम में रहती थीं ,यह कितना आश्चर्य -जनक है और विनोबा जी जैसे संत का संरक्षण उन्हें प्राप्त था ,यह उनका कितना बड़ा सौभाग्य है ?

आश्रम में कपास की उपज होती थी और संन्यासी -गण अपने -अपने लिए वस्त्र स्वयं बुनती थीं और उसी वस्त्र को पहनती थीं। उनकी पोशाक में एक अधोवस्त्र हुआ करता था ,जो घुटने के नीचे तक रहता था और ऊपर कुरता होता था ,साथ में एक लंबा सा दुपट्टा होता था। यह पोशाक उन पर बहुत फबता था और इससे उन्हें काम -काज करने में कोई असुविधा भी नहीं होती थी। आश्रम में कुसियार की खेती होती थी और उससे मधुरस जैसा गुड़ आश्रम में ही बना लिया जाता था। उस गुड का स्वाद शहद जैसा ही था। भोजन में लगभग आधा लीटर दूध भी परोसा गया था ,जिसके स्वाद की तुलना ,कामधेनु के दूध से की जा सकती है। भोजन में बड़ी -बड़ी स्वादिष्ट रोटियाँ ,रुचिकर सब्जियाँ और नीम की पत्ती की चटनी भी परोसी गई थी। तन और मन दोनों इस भोजन से तृप्त हो गया और मेरा मन "जैसा खाओ अन्न वैसा बने मन " की सार्थकता का अनुभव करने लगा। भोजन के बाद मैं पुस्तकालय गई और कुछ किताबें खरीद लाई  । खरीदी हुई पुस्तकों पर उन्होंने हस्ताक्षर की जगह लिखा है "रामहरि।" मैं १५ अगस्त को इसलिए गई थी कि वे कुछ कहेंगे पर जब उन्हें बताया गया कि आज १५ अगस्त है तो वे बच्चों की तरह देर तक हँसते रहे पर कुछ बोले नहीं। 

संध्या समय प्रार्थना कक्ष में मैंने देखा कि आश्रम का कोई भी सदस्य प्रार्थना -मात्र नहीं कर रहा है। प्रार्थना के साथ -साथ कोई चरखा चला रहा है तो कोई तकली तो कोई अन्यान्य कार्य में संलग्न है। जीवन में पहली बार मैंने कर्मयोग को चरितार्थ होते हुए देखा और मैंने समझने की चेष्टा की ,कि संभवतः गीता का कर्मयोग यही है जिसे भगवान कृष्ण ने अर्जुन को समझाया था। 

मैं १९६३ में भी विनोबा जी को देखी थी जब वे बिलासपुर में  'नार्मल स्कूल ' में आए थे। तब मैं महारानी लक्ष्मी बाई स्कूल में नवमी कक्षा में पढ़ती थी , हमारा पूरा स्कूल विनोबा जी को सुनने के लिए आया हुआ था । मैंने देखा कि विनोबा जी इतनी तेजी से चल रहे थे कि उनके स्वागत में खड़े हुए लोग उनके पीछे लगभग दौड़ रहे थे। उस समय उनका "भूदान आँदोलन " बहुत लोकप्रिय था। लोग उन्हें देवता की तरह मानते थे और अपनी सैकड़ों एकड़ जमीन दान में दे दिया करते थे। आज वही विनोबा दुबले -पतले और कमज़ोर दिखाई दे रहे हैं। अभी वे भोजन के नाम पर केवल शहद खाते हैं। बच्चों की सी सरलता है उनमें और सरलता क्यों न हो ? "सरलता ही तो साधुता है " इस कथन को वे स्वयं चरितार्थ कर रहे थे।

"विनोबा जी की लाखों एकड़ जमीन गुम हो गई है पता नहीं केंद्र सरकार इसे ढूढने के लिए क्या करेगी ? यह तो वही जाने पर उनके समर्थकों ने जमीन बचाने की गुहार लगाई है। "[सुरेंद्र प्रसाद सिंह ,नई दिल्ली ]

अभी मैं सत्संग भवन में बैठी हूँ। सत्संग में सभी आगन्तुक एवं आश्रम के सदस्य भी बैठे हैं। मुझे सामने जगह नहीं मिली है मैं बहुत पीछे में बैठी हूँ पर भीड़ के बीच से विनोबा जी ने मुझे बुलाया और मुझसे कहा -"तुम्हारे बाल कितने लंबे हैं ,इन्हें छोटा करो। " दूसरी बात उन्होंने मुझसे कही -"संस्कृतं पठितव्यम्।" अर्थात् तुम्हें संस्कृत पढ़ना चाहिये। उनके कथन का मैंने विश्लेषण किया तो मुझे यह समझ में आया कि आश्रम की सभी संन्यासियों की तरह मैं भी अपने बाल छोटे कर लूँ। दूसरी बात उन्होंने मुझसे संस्कृत पढ़ने के लिए कहा ,क्यों ? मैं संस्कृत में एम ए थी ,पर मुझे कुछ नहीं आता था ,आज भी वैसी ही हूँ पर आज संस्कृत के प्रति अनुराग हो गया है। हम उनसे मिलकर आए हैं और १५ नवंबर 1982 को उनका देहावसान हो गया। ' पवनार ' में उनकी पुण्य -तिथि को "मित्र -मिलन " के रूप में मनाया जाता है। विनोबा ने न किसी से दीक्षा ली , न किसी को दीक्षा दी। वे आजीवन " अप्प दीपो भव " की राह पर चले। 

आश्रम के प्रवेश द्वार पर दो वृक्ष आमने- सामने खड़े हैं। एक वृक्ष पर " जयप्रकाश " लिखा हुआ है और दूसरे पर "प्रभावती।" बरसों पूर्व महान क्रांतिकारी जयप्रकाश नारायण और उनकी धर्मपत्नी प्रभावती ने उन पौधों को रोपा था जो आज छायादार वृक्ष बन चुके हैं। तन -मन से थके हुए जन को ये वृक्ष अपनी ओर आकृष्ट करते हैं ,मानों हमसे कह रहे हों कि -"आओ ! आश्रम को जानो ,जानकर इसे जियो और जीकर ,जीवन की पूर्णता को प्राप्त करो। "

शकुन्तला शर्मा ,भिलाई [छ ग ]

2 comments:

  1. शकुंतला जी, बहुत बहुत बधाई, आपको इस युगपुरुष से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ.

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  2. वहाँ गये थे, आत्मिक आनन्द आया था। सुन्दर प्रस्तुति।

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