Thursday, 5 September 2013

वयम् राष्ट्रे जागृयाम् पुरोहिता:

 कल उस समय मुझे आश्चर्य -मिश्रित सुखानुभूति हुई
 जब मैंने अपने ही घर पर
सर्वपल्ली डा. राधाकृष्णन को दिन -दहाड़े देखा।
वही चेहरा , समुन्दर सी आँखे
और सिर पर पगड़ी थी।
मुख -मुद्रा गंभीर थी।

मेरे घर पर कुछ इस तरह घुसे
जैसे कोई साहूकार अपने देनदार के घर
वसूलने पहुँचता है।
कहने लगे -"तुम शिक्षक हो , बताओ
कितने बच्चों को तुमने शिक्षित किया है ?"
मुझे काटो तो खून नहीं।
युध्द भूमि में पीठ दिखाते हुए मैंने कहा -
"हम पढ़ाते तो हैं पर बच्चे ही--------------"
उन्होंने फिर कहा -
"बच्चे यदि जीवन मूल्यों को ,गुरु -लाघव को
और सृजन के अर्थ को नहीं समझते
इसका तात्पर्य तो यही है कि
तुमने अपने दायित्व का निर्वाह
भलीभांति नहीं किया।
तुम्हें युवा -पीढ़ी के मन -मस्तिष्क के संचालन का
गुरुतर भार सौंपा गया था
बताओ ! इस दिशा में तुमने क्या किया ?"

उनके एक-एक शब्द ,मेरे मस्तिष्क को संज्ञा-शून्य
मेरे अहंकार को चूर -चूर ,
और मेरे हृदय को छलनी कर रहे थे।
उनके शब्द -बाणों में यति नहीं थी ,
गति थी अविरल गति।
उन्होंने मेरी चेतना को झिंझोड़ कर पुन: कहा -
"किसी भी राष्ट्र का स्तर ,
उस देश के शिक्षकों के स्तर पर निर्भर करता है ,
क्या तुमने कभी अपना मूल्यांकन किया
कि तुम कितने पानी में खड़ी हो ?
जो छात्र नवीं कक्षा में पढ़ता है ,उसका स्तर
पाँचवीं -छठवीं कक्षा के छात्र के बराबर है ,
सातवीं -आठवीं के छात्र ,जोड़ना -घटाना ,
गुणा -भाग नहीं जानते
और नवीं -दसवीं के छात्र हिंदी की किताब पढ़ते समय
[अंग्रेज़ी और संस्कृत ,तो वे पढ़ ही नहीं सकते ]
हर वाक्य में गलतियाँ करते हैं।
क्या तुमने कभी सोचा कि इसके मूल में कौन है ?"

मेरा होश -हरिन हो गया।
उनका गला भर आया था ,
रुँधे गले से उन्होंने कहा -
" अरे भाइयों -बहनों ! ज़रा सोचो तो
अपना जन्म -दिवस ,
क्या इसीलिए मैंने तुम शिक्षकों के नाम समर्पित किया था
कि तुम अपना लक्ष्य भूलकर ,
एक सामान्य नागरिक की तरह जियो ?"

इन शब्दों के ही साथ -साथ ,
उनकी आँखों से झर -झर आँसू बहने लगे।
भरी हुई तो मैं भी थी ,फूट पड़ी ,
भरे कण्ठ से मैंने स्वीकारा -
" अब मैं आपसे क्या कहूँ  ?
कहने को तो हम शिक्षक हैं
पर हम अपना दायित्व भूल चुके हैं।
आजकल हम अपनी आन और मान के लिए नहीं जीते ,
अपने छोटे -छोटे सुखों के लिए जीते और मरते हैं। "

अचानक मेरे भीतर का चेतना -शून्य शिक्षक जाग उठा
उसकी ओजस्वी -वाणी आज भी मेरे कानों में गूँज रही है -
उसने कहा था -
"हम मानव -मूल्यों के लिए और सृजन के लिए जियेंगे ,
हम अपनी वाणी को अपने आचरण में उतार कर रहेंगे। "
तभी अचानक मेरी आँख खुल गई।
मैंने अनुभव किया कि वे आश्वस्त होकर चले जा रहें हैं।

शकुन्तला शर्मा , भिलाई  [ छ ग ]       

5 comments:

  1. दायित्वों का बोध सम्हाले,
    साथ काल के बढ़े जा रहे।
    प्रेरक स्वप्न।

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  2. eआपकी यह प्रस्तुति बहुत ही अच्छी लगी। धन्यवाद।

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  3. "हम मानव -मूल्यों के लिए और सृजन के लिए जियेंगे ,
    हम अपनी वाणी को अपने आचरण में उतार कर रहेंगे। "

    कितने प्रेरक वचन..बहुत बहुत शुभकामनायें शकुंतला जी.

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  4. वाह ..
    अभिनन्दन !!

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  5. शकुन्तला जी, वाणभट्ट ने आपको निराश नहीं किया... ये संभवत: मेरे जीवन का सर्वश्रेष्ठ कमेन्ट है... इसके लिए मै अपना आभार व्यक्त करता हूँ... आपने अपने ब्लॉग को फोल्लो करने का कोई जरिया नहीं छोड़ा है... आपकी रचनाओं का प्रोफाइल ही आपकी रचनात्मकता और गहन समीक्षा को प्रतिबिंबित करता है... शुभकामनाएं...

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