"पुरा कवीनां गणना प्रसंगे कनिष्ठिकाधिष्ठित कालिदास; ।
अद्यापि तत्तुल्यकवेरभावात अनामिका सार्थवती बभूव ।। "
सावन शुक्ल-पक्ष को हम संस्कृत- दिवस पखवाड़ा के रूप में मनाते हैं । सावन के आते ही कालिदास मुझे कुरेदना शुरू कर देते हैं । कहते हैं मेरे बारे में भी तो कुछ लिखो । मेरे मन प्राण को बँधुआ मजदूर बना लेते हैं और मुझसे लिखवाते हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि कालिदास के साथ मेरा पूर्व जन्म का कोई सम्बन्ध है । बचपन से ही मुझे उनकी रचनाओं से लगाव है । मेरा नाम भी ऐसा है जो मुझे कालिदास से जोड़ता है । बचपन का एक प्रसंग मुझे याद है। सन १९६३ की घटना है । मैं बिलासपुर में महारानी लक्ष्मीबाई स्कूल में नवमी कक्षा में पढ़ रही थी । उस समय बिलासपुर जिले में "कालिदास समारोह " का आयोजन किया गया था । बिलासपुर में सभी शालाओं के बीच में कालिदास के नाटकों की प्रतियोगिता थी । यह प्रतियोगिता नार्मल स्कूल में आयोजित की गई थी । हमारी शाला ने भी इसमें भाग लिया था । मैं राजा विक्रमादित्य बनी थी और मुझे सर्वश्रेष्ठ अभिनय हेतु पुरस्कृत किया गया था । तब से लेकर आज तक कालिदास मेरे मन मस्तिष्क में सर्वदा विराजमान रहते हैं ।
सन १९६५ की बात है । मैं बी एस पी क उ मा शा से ५ भिलाई में कक्षा ११ वीं में पढ़ रही थी । जब शाला में वार्षिक उत्सव सम्पन्न हुआ, तब हमारे संस्कृत के आचार्य श्रीयुत प्रह्लाद चन्द्र शर्मा ने एक कार्यक्रम तैयार करवाया था, जिसका नाम था कवि-दरबार । उस कार्यक्रम में शर्मा सर ने मुझे कालिदास बनाया था । मैंने "अभिज्ञान शाकुन्तलम् " के श्लोक गाए थे । अल्पना सेनगुप्ता तुलसीदास बनी थी, पूर्णिमा रवानी सूरदास बनी थी और पूनम निराला बनी थी । यह कार्यक्रम बहुत लोकप्रिय हुआ था और समाचार पत्रों में इसे अच्छा विस्तार भी मिला था ।
कालिदास जन्म शताब्दी की पूर्व संध्या पर १८ /११ /१९९९ में संस्कृत शिक्षण दिशा निर्देश कार्यशाला का आयोजन किया गया था । यह आयोजन बी एस पी उ क शा से ५ में सम्पन्न हुआ था । मैं उसी शाला में संस्कृत व्याख्याता के पद पर कार्य रत थी । उस कार्यक्रम में मैंने पहली बार संस्कृत भाषा में मंच संचालन किया था । आचार्य महेश चंद्र शर्मा ने मुझे सहयोग किया था । मैंने 'अभिज्ञान शाकुन्तलम् ' से शकुन्तला के सौन्दर्य वर्णन से कार्यक्रम की शुरुआत की थी ।
"सरसिजमनुविध्दम् शैवलेनापिरम्यम् मलिनमपिहिमान्शोर्लक्ष्मलक्षी तनोति ।
इयमधिकमनोज्ञा वल्कलेनापि तन्वी किमिव हि मधुराणाम् मण्डनंनाकृतीनाम् ।। "
काई से घिरे रहने पर भी कमल सुन्दर दिखता है । चन्द्रमा मलिन होता हुआ भी सुन्दर दिखाई देता है । उसी तरह यह तरुणी वल्कल वस्त्र में भी सुन्दर दिखाई दे रही है क्योकि सौन्दर्य को आभूषण की आवश्यकता नहीं होती ।
मुझे अभूतपूर्व अनुभव हो रहा था । मैंने यह अनुभव किया कि यहाँ 'संस्कृति निलय ' में स्वयं कालिदास, हम सब संस्कृत परिवार के साथ ही उपस्थित हैं । जो आगन्तुक अतिथि विराजमान थे उन में भी इतना उत्साह इतनी आत्मीयता दृष्टिगोचर हो रही थी कि सब मंत्र मुग्ध होकर आनंदातिरेक में आकण्ठ डूबे हुए थे । अद्भुत दृश्य था । अपने जीवन काल में मैंने संस्कृत की एक ही कार्य शाला देखी है । पता नहीं आज भाषा की उपेक्षा क्यों हो रही है ? भाषा माँ है और बिना माँ के बच्चे का सर्वांगीण विकास नहीं हो सकता और फिर संस्कृत भाषा तो सभी भाषाओं की जननी है ।
कालिदास उद्भट विद्वान् थे पर उन्हें आसानी से प्रतिष्ठा नहीं मिली । पुराने प्रतिष्ठित साहित्यकारों के बीच में उनके आलोचक बहुत थे । लोग उन्हें बहुत गालियाँ देते थे और वे इन गालियों को बड़े प्यार से सुनते थे । वे कहा करते थे -" ददतु -ददतु गालीं " अर्थात् तुम मुझे गाली दो , मुझे बहुत मज़ा आता है और तभी उन्होंने कहा था - "पुराणमित्येव न साधु सर्वम् न चापि काव्यम् नवमित्यवद्यम् ।
संता: परिक्ष्यान्य तरद्भजन्ते मूढा: परप्रत्ययनेय बुध्दि : ।। "
यह आवश्यक नहीं कि परम्परायें सदैव सही हों और यह भी सत्य नहीं है नवीनता हमेशा दूषित हो । संत जन विवेक मार्ग से सत्य का परीक्षण करते हैं पर न्यून बुध्दि दूसरों की बातों पर ही विश्वास करते हैं ।
कविकुल गुरु कालिदास अद्वितीय हैं । वे भारतीय संस्कृति के उन्नायक और हम भारतीयों के स्तुत्य हैं । मैंने 'अभिज्ञान शाकुन्तलम ' [ जो कालिदास का सर्वाधिक लोकप्रिय नाटक है ] का भावानुवाद किया और ' शाकुन्तल' [खण्ड काव्य ] की रचना की । इसके बाद मेरा आत्मविश्वास बढ़ता गया और मेरे मन ने मुझसे कहा कि " शकुन ! तुम कालिदास के महाकाव्यों को भी छू सकती हो । डरो मत ।" प्रेम, भय और साहस तीनों संक्रामक हैं । मैंने उसी दिन "रघुवंश " महाकाव्य का भावानुवाद आरंभ कर दिया । ले देकर ' रघुवंश ' महाकाव्य मैंने लिख तो लिया पर इसे लिखकर मैं संतुष्ट नहीं हूँ । मुझे लगता है कि मैं इसे और अच्छा लिख सकती थी वैसे यह अफ़सोस मुझे मेरी सभी किताबों के लिए होता है । कालिदास के "कुमारसम्भवम् " महाकाव्य के एक एक श्लोक का छत्तीसगढी में अनुवाद करके मैंने छत्तीसगढी महाकाव्य की रचना तो की पर फिर भी मन का हाहाकार कम नहीं हुआ । सोचती हूँ उस हिमालय जैसे कालिदास को मैं क्या लिख कर श्रध्दाञ्जलि दूँ ?
शकुन्तला शर्मा , भिलाई [छ ग ]